Tuesday, December 16, 2008

आदतें


कुछ चीजें छोड़ देने का मन करता है
कुछ चीजें बांध लेने का मन करता है

जो छोड़ना चाहती हूं
छूटता नहीं है
जो बांधना चाहती हूं
बंधता नहीं है

कश्मकश सिर्फ मेरी नहीं है
उन 'चीजों' की भी है
मुझसे और खुदसे

जो छूटना चाहती हैं
पर छूटती नहीं
मेरे अस्तित्व से

जो बंधना चाहती हैं
पर बंधने नहीं देती मैं
उन्हें
अपने अस्तित्व से

फिर भी अक्सर जोर का धक्का लगा कर
छूटने का मन करता है
भाप बन कर
लुप्त होने का मन करता है

इस आपाधापी में
कब क्या छूट जाता है
पता ही नहीं चलता है!

कब क्या लुप्त हो जाता है
पता ही नहीं चलता है!

कब क्या बंध कर
बन पड़ता है
मेरे होने का सबूत
दुनिया की नजरों से देखती हूं तो दिखता है

वरना तो सब जादू सा
मायावी सा लगता है...

Tuesday, October 7, 2008

जो ज़रूरी




आंसू मोती कैसे?
आंसू कीमती क्योंकर?

कहती है मां
संभाल कर रखो इनको
विदाई पे काम आएंगे।
कह कर मुस्कुराती हैं वो
और रूला जाती हैं वों।

पर आंसू मोती कैसे?
आंसू कीमती क्योंकर?
यह समझ नहीं पाती मैं।

लगते नहीं अच्छे ये बहते हुए
अंदर रखो या सोख जाओ इन्हें
यूं बहाते नहीं इन्हें
बुरा होता है ये
-लोग कहते हैं

पर भीतर क्यों पालूं इन्हें
क्यों सहेजूं इन्हें
आंसू मोती कैसे?
अब भी नहीं समझी मैं।

सबसे खूबसूरत फूलों के चुभते कांटों जैसे
आते बाहर चाीखते से
करते हल्का मन को
बचाते देवता होने से

इनके होने और जब हों, तो बहने पे
क्यों लगाऊं लगाम?
आंसू मोती क्यों मानूं मैं?
नहीं समझ पा रही हूं मैं।

आंसू की कीमत उन्हें सहेजने में कहां!
उनके बह चुकने पे है
सारी मान्यताएं और शिक्षाएं अधूरी
बकवास ही हैं इस बाबत

आंसू नहीं मोती
न ही कीमती कहो इन्हें
कीमती तो खुशी है और संतोष भी
इसे पालो
सहेजो इसे

पर आंसू तो
एक प्रकृति प्रदत्त उपहार
इंसान को इंसान बनाए रखने के लिए...

Monday, September 29, 2008

धूल झाड़ते हुए


कल किताबों से धूल झाड़ते हुए एक पर्ची गोद में गिर पड़ी। पता नहीं कब कहां से उतारी थी यह कविता। मगर, कितना कुछ कहती हैं ये पंक्तियां...!

ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना
मासिक धर्म
11 बरस की उमर से
उन्हें ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर।


कवि का नाम किसी को पता चले तो कृपया बताएं।

Saturday, September 27, 2008

मेरे बाजू वाली खिड़की


कब्रें

अपने होने का प्रमाण देती हैं
चलते फिरते लोगों में

कब्रें

फिर फिर दोहराती हैं
वही सच्चाई
कि सबको घुलना मिट्टी में

कब्रें

चुपचाप ही
इंसान सी
जीवित की तरह
सहती हैं धूप धुंआ अंधड़ पानी

कब्रें

बाईं ओर की खिड़की से झांकती सी
मुझमें,
कहती हैं
जीवन मृत्यु से बड़ा सत्य!


कब्रें

नाम की पट्टी ओड़े
मौत के बाद भी
ढोती हैं देह का दंश
सतत...सनातन...अंतहीन

Thursday, September 25, 2008

आहों पर बने सिंहासन


गुजरात पर जितना 'रोआ' जाए, कम है।

मेरे चारों ओर ऐसे महानुभावों की कतई कमी नहीं जो यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी गुजरात के भगवान साबित हुए हैं। उनके जैसा नेता (और भारतीय जनता पार्टी जैसी राजनीतिक पार्टी ) अब ईश्वर की फैक्ट्री में बनने बंद हो गए हैं। आज जो भी कुछ है गुजरात में, नरेंद्र मोदी की ही किरपा है। विकास के नए पैमाने स्थापित किए हैं। रोजगार के नए द्वार खोले हैं। वाह रे मोदी, गुजरात के ही नहीं राष्ट्र के लाल मोदी। हिंदुओं के तारणहार, पालनहार मोदी।

मेरा खून खौलता है। मगर, खौलता तो तेल भी है। आंच पर। होता क्या है? अंतत: तेल में पूरियां तल ली जाती हैं।

नानावती आयोग की रिपोर्ट की पहली किस्त आ गई है। गुजरात के दंगों पर आई इस पहली रिपोर्ट में कहा गया है कि साबरमती एक्सप्रेस को कथित दुघZटना नहीं थी बल्कि पूर्वनियोजित थी। ट्रेन को जलाने के लिए 140 लीटर डीजल का बंदोबस्त भी किया गया। ट्रेन जलाने का िक्लयर कट मकसद था- अराजकता फैलाना। कहा जा रहा है कि रिपोर्ट में मोदी को क्लीन चिट दी गई है।

इस क्लीन चिट पर भगवावादी नेता तो बल्ले बल्ले करेंगे ही, खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले कथित हिंदू भी करेंगे।

अभी एक जानकार से इस रिपोर्ट की खबर के बाबत बात हुई तो उनका कहना था, कौन जाने क्या सच है? दंगों में कितने हिंदू मारे गए...साजिश थी या नहीं.. क्या पता..रिपोर्ट विपोर्ट की हकीकतें क्या पता नहीं आपको?

ऐसा कहने सोचने और बोलने वाले केवल यही एक होंगे, ऐसा नहीं। एक ही रिपोर्ट ने दो बातें कहीं हैं। एक, मोदी का इन दंगों से कोई लेना देना नहीं। दूसरी, साबरमती को जलाना साजिश था जिसका मकसद दंगें करवाना था। मगर, अपनी अपनी सहूलियत के अनुसार, हम रिपोर्ट के बिंदु को सच मानेंगे और दूसरे को झूठ।

....हां, खौलता तेल जब पांव पर गिरता है तो कदम रोक देता है। खौलता तेल जब चेहरे पर गिरता है तो नक्शा बिगाड़ देता है। ज्यादा दिनों तक तेल में पूरियां नहीं तली जा सकतीं।

Saturday, September 13, 2008

जो जीवित



उजड़ते मकान
उजड़ते अरमान
जीवित रही सिर्फ जिजीविषा
तुममें या फिर सिर्फ उसमें

बाढ़ के पानी ने किया सब समान (?)
समाप्त हर भेद
न कोई ऊंच
न कोई नीच

यह प्रकृति का कोप
या प्रकृति का फिर फिर व्याख्यान...

Thursday, September 11, 2008

एक टुकड़ा


अगर न होते सपने, तो न होती संवेदनाएं...
अगर न होते आघात तुमसे, तो न होता विश्वास तुम पर...
क्योंकि सपनों की जमीन तुम हो
सपनों का आकाश तुम हो
और हो तुम विश्वास की कच्ची जमीन पर हौले से समाती बारिश की बूंद

जो बस गई है, रच गई है, मुझमें यानी तुम्हारे अंश में...

Wednesday, September 10, 2008

रफ़्तार हिंदी की...


आप यह पोस्ट पढ़ पा रहे हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हिंदी ने अपने पांव उन अनजान कोनों में फैला दिए हैं जहां कुछ साल पहले इसके होने की संभावना तक से इंकार किया जा रहा था।

इंटरनेट के महाजाल में हिंदी शांति से आई और अब इस भाषा की अपनी जगह है.हिंदी इतरा रही है, इठला रही है और वाकई छाने को तत्पर है। इंटरनेट, हिंदी और कंप्यूटर पर काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। लोगों का कम्फर्ट लेवल भी बढ़ा है कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के संबंध में। ई-मेल हिंदी में भेजी जा रही हैं। अन्य भाषाओं में काम करने वाले लोगों में हिंदी की साइट्स देखने और पढ़ने का सिलसिला तेज हुआ है। ब्लॉग जगत में ही देख लें...प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्

हिंदी को ले कर प्रयोगों की गुंजाइश कितनी अधिक है, यह भी नजर घुमाएं तो पता चल जाता है। हिंदी के सर्च इंजन रफ्तार डॉट इन, गुरूजी डॉट कॉम ऐसे ही सफल प्रयोग तो हैं। रफ्तार डॉट इन की ही बात करें तो यह अपने आप में एक ऐसा सर्च इंजन है जो इंटरनेट उपभोक्ता को हिंदी के असीमित संसार से जोड़ता है। समाचार से ले कर साहित्य तक एवं विज्ञान से ले कर किचन तक, इंटरनेट पर मौजूद हिंदी का सारा कंटेट आपको एक िक्लक पर मिल जाता है।

हिंदी में सैंकड़ों साइट्स हैं, यह रफ्तार पर आने से पहले मुझे नहीं पता था। कुछ गिनी चुनी साइट्स को छोड़ दें, तो कितनी ऐसी साइट्स हैं जिन पर हम और आप विजिटिआते हैं? ऐसे में कुछेक महीनों के अंतराल में कुछ न कुछ नया ले कर आने वाले सर्च इंजन रफ्तार डॉट इन ने हिंदी और इंटरनेट की खुशनुमा उथल-पुथल को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश की है।

Tuesday, September 2, 2008

कंपेटेबिलिटी...नारी स्वतंत्रता...


मेरी एक मित्र है। शादीशुदा है। अक्सर कहती है, बच्चे न होते तो अमन (पति) का साथ कब का छोड़ देती।

सुशीक्षित है। संपन्न परिवार से है। सोशल सर्कल में अच्छी-खासी पहचान है। प्रोफेशनल क्वालिफिकेशन भी है। विवाहपूर्व नौकरी करती थी, बाद में छोड़ दी। अपनी और पति की सहमति से। उम्र भी तीस से कम(तो नौकरी के लिए कथित आउटडेटेड भी नहीं)।

शादी के छह बरस बीत गए। तीन बरस हो गए, मुझे ये सुनते हुए कि अगर बच्चे न होते तो पति को छोड़ देती। वजह? पति और पत्नी के बीच 'इमोशनल कंपेटेबिलिटी´ नहीं है। वजह पर आपको हैरानी नहीं होगी। मगर, अगर यह बताऊं कि दोनों का प्रेम विवाह है तब...? क्या तब भी हैरानी नहीं होगी...?

मेरे लिए यह चौंंकाने वाला तथ्य था, तब जब मुझे यह नहीं पता था कि भावनात्मक रूप से एक दूसरे की जरूरतों को न समझने और न पूरी करने वाले युवक-युवती भी प्रेम कर विवाह कर लेते हैं। इधर ऎसे कई मामले देखने को मिले! मुझे लगता रहा है प्रेम विवाह का आधार पैसा या सामाजिक स्तर या सामाजिक अपेक्षाएं हों या न हों, मगर इमोशनल कंपेटेबिलिटी अवश्य ही होती है।

विवाह के छहों साल बीतते- बीतते जब भावनात्मक खालीपन इतना साल जाए कि रिश्ते में रूके रहने के लिए बच्चों का हवाला खुद को देना पड़े तो क्या यह उस रिश्ते के टूट चुकेपन का ही प्रमाण नहीं है? तब ऐसा क्यों होता है कि समस्या सुलझाने के लिए या अंततःन सुलझने पर फैसले नहीं लिए जाते...

कृपया बताएं आप क्या सोचते हैं...कि एक पढ़ी- लिखी, नौकरी सकने योग्य महिला भी 'बच्चों की खातिर´पति से अलग नहीं होती। क्योंकर? क्या वाकई बच्चे कभी- कभी मांओं के पांव में परतंत्रता की बेिड़यां बन जाते हैं... या उन तमाम समस्याओं और कथित लांछनों को अवाएड करने के लिए आड़ लेना ज़रूरी हो उठता है?

Wednesday, August 27, 2008

दाल काली है या नज़रिया


उड़ीसा में विश्व हिंदू परिषद द्वारा प्रायोजित,सॉरी आयोजित, बंद के दौरान एक महिला जिंदा जली, कई गंभीर रूप से घायल हुए और कुल पांच लोगों के मारे जाने की खबर है...

जम्मू में कई दिनों से आग लगी हुई है। स्वर्ग को नरक बनाने की हरसंभव कोशिश जारी है। तीन दिन से लगातार कर्फ़यू झेल रहा है यह क्षेत्र। पाक की नापाक कोशिशें जो रंग नहीं ला पाईं वो हमारे अपने ला रहे हैं...

और अभी -अभी की खबर है कि आज सुबह के पाक आतंकी हमले में आतंकवादियों ने एक परिवार को बंदी बना लिया है...

बिहार की `शोक´ नदी के दो सौ साल बाद रास्ता बदलने से प्रलय का सा माहौल है। लाखों लोग प्रभावित हैं। चारों ओर कोहराम मचा हुआ है...

ऐसे में सुशील, विजेंद्र और अभिनव। अंबानी बंधुओं की प्रति सेंकेड की सैलेरी का मनभावन सा ? हिसाब। सिंह इज किंग की विदेशों में धूम। नैनो समेत शेयर बाजार का कभी-कभी ऊपर दौड़ लगा जाना जैसी हंसी खुशी की खबरें भी खुशी नहीं दे रहीं। क्या मैं निराशावादी हो रही हूं? क्या मैं दाल में काला तलाश रही हूं, जबरदस्ती? क्या मैं अलग अलग चीजों को एक ही लेंस से देखने की बेवकूफी कर रही हूं? आप बताएं.....

आप बताएं, मेरे ही देश में लाखों लोग पानी में बह कर डूब कर सड़ कर मर जाएं तो मैं मेडलों की खबर को कैसे ओढूं और बिछाऊं...!? उड़ीसा में एक मौत का बदला कई मौतों से ले लिया जाए तो कोई कैसे कह कर खुश होए कि इंडिया शाइनिंग जी...? शाइनिंग की आड़ में जो स्याह कालापन है उस पर से कैसे आंखें भींच लें। खुशियां मनाने की कई वजहें हैं मगर इस समय जो जरूरी दीख पड़ रहा है वह है आम सी लगने वाली घटनाअों पर सक्रियता से कदम उठाना। खुशियों में डूब कर हम `डूबने´ को कमतर आंक रहे हैं क्या? आम लगता हो सकता है जम्मू कश्मीर का सुलगना मगर यह आम कहां हैं! समस्या पुरानी हो जाए तो क्या स्वीकार्य हो जाती है? नहीं ना। कोई कैसे धर्म, वर्ग आधार पर हमें लड़ाए जा रहा है। हम अपने `घरवासियों´ यानी बाढ़ प्रभावितों को बचाने की कोशिशों को पुश कर लें तब मनाएं खुशियां दिल खोल कर। कथित धर्माधारित संगठनों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए क्या हम वाकई कुछ नहीं कर सकते!

ये लाचारी है या बहानेबाजी? कृपया बताएं तो.....

Wednesday, August 13, 2008

पूछती है सैयदा......इस जिंदगी का क्या किया

मुस्लिम विवाह परंपरा में टूटती वर्जनाओं पर एक पोस्ट शाम मैंने चोखेरबालियां में डाली है। डॉक्टर सैयदा हमीद ने एक युगल का निकाह करवाया है। सैयदा केंद्रीय योजना आयोग की सदस्य हैं। वे प्रगतिशील मुस्लिम महिला संगठनों से भी जुड़ी हैं। कई मायनों में सैयदा और विवाहित जोड़े ने इतिहास रच दिया है। प्रेरक तो बने ही हैं।

मगर, अब विवाह की वैधता पर सवाल उठने लगे हैं। कहा जा रहा है कि महिला काजी सरकार से मान्यता प्राप्त नहीं है। डॉक्टर सैयदा को यह अधिकार किसने दिया कि वह विवाह करवाए। कुछों का मानना है कि परंपरागत रूप से पुरूष काजी की निकाह करवाते आए हैं और इसे प्रथा को बिना किसी ठोस वजह तोड़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी। आदि इत्यादि।

लेकिन सैयदा, इमरान नईम और नईश हसन (दूल्हा- दुल्हन) मानसिक रूप से इस तरह के विरोध को लेकर तैयार होंगे। वे जानते होंगे कि उनके कदम पर धीरे धीरे, या तेजी से, चिल्लपौं मचेगी।

मगर, फिर सैयदाएं यूं हथियार नहीं डालतीं। वे न सिर्फ निकाह करवाती हैं बल्कि निकाह की पूरी प्रणाली एक विदेशी भाषा यानी अंग्रेजी में करवाती हैं। देश के युवा को आज इमरान और नईश जैसों की भी सख्त जरूरत है। इमरान और नईश गालिब की मशहूर गजल की पंक्ति को चरितार्थ करते हैं- रंगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं कायल, रगों से ही जो न टपका, तो फिर लहू क्या है....

Thursday, August 7, 2008

आने से पहले


आ रहा है, आ गया है, बीत रहा है, बीत गया है, बीत चुका है। ये 15 अगस्त है। हर साल का पंद्रह अगस्त ऐसे ही आता है। बीतने लगता है। और फिर बीत जाता है। अगले सप्ताह शुक्रवार को है 15 अगस्त। मन कुलांचे साला फिर मारने लगा है। हर बार मारने लगता है। अपना स्वतंत्रता दिवस आ रहा है।

आ रहा है.... आ रहा है...आ गया है... चला गया है... बस चला सा गया है...

एम सी मॉडल स्कूल में प्रिंसिपल नंदा का विशेष निर्देश था जिसका मैंने पांचवी तक हर दिन, वाकई हर दिन, पालन होते देखा। सुबह प्रार्थना शुरू होने तक के लगभग 15 मिनट के समय में देश भक्ति के गीत प्रतिदिन बजते। तेज आवाज से भोंपू में। इस बीच नंदा मैडम स्कूल का मुस्कुराते हुए राउंड लेतीं। हम उन्हें देखते ही इधर उधर दुबकने को होते.... क्यों तो पता नहीं... गर वे जालिम सी प्रिसिंपल नहीं थी, ये मुझे ध्यान है। उनके चेहरे का दर्प मुझे हल्का हल्का याद है। ......

तब से 15 अगस्त और 26 जनवरी के करीब आते ही जो गीत बजते हैं, वे उसी वक्त में ले जाते हैं। याद है जब देशभक्ति के गानों के बोलों को मैं गंभीरता से लेते हुए सोचती थी कि मेरा देश महान है, महान देश के लिए कुछ करूंगी जरूर, सेना में जरूर भर्ती होऊंगी, गंदे से कपड़े पहने जो बच्चे हमारी सरकारी कॉलोनी के आस पास दिखाई देते हैं (पास ही जे जे कॉलोनी है) को स्कूल ले आऊंगी, देश के लिए बहुत कुछ करूंगी, बॉर्डर पर दुश्मन से लडूंगी और मर जाऊंगी आदि इत्यादि। सपने देखती थी बाकायदा।

अब 15 अगस्त आता है तो बचपन में की गईं 'प्रतिज्ञाएं' भी याद आती हैं। और मन रूंआसा हो उठता है। ये गीत याद दिलाते हैं कि बेटा, हम तो अब भी वही हैं.... जज्बात हमारे बोलों में अब भी गहन हैं तुम्हारे जज्बातों में से देश का हिस्सा गल गया है क्या?

पता नहीं..... शायद नहीं..... शायद हां।

Monday, July 28, 2008

अपनों का अपनों से युद्ध


समय आ गया है जब आतंकवाद के मनोविज्ञान को समझा जाए। आतंकवादियों की चालों को नाकामयाब करते हुए ही यह काम करना होगा। आतंकवाद से लड़ने के लिए केवल हथियार उठाने की और चलाने की जरूरत है, ऐसा भर नहीं है। और, यह हमें सर्वप्रथम मान लेना चाहिए और समझ लेना चाहिए।

सोंचें तो आतंकवाद की जड़ें कहां हैं? आतंकवाद को मुस्लिम आतंकवाद से अलग करके भी देखना होगा क्योंकि यह तो तय है कि आतंकवाद केवल इस्लाम मानने वालों का हथियार नहीं है। मुस्लिम आतंकवाद पुकार कर आतंकवाद को किसी एक धर्म या वर्ग या समुदाय विशेष के गांठ नहीं बांधा जा सकता। यह ऐसी इतिश्री करना होगा, जिसे अंतत: हमें ही भुगतना होगा।

नक्सलवाद क्या आतंकवाद का रूप नहीं! क्या देश के पूर्वोत्तर में असम, नगालैंड और मेघालय में जारी हिसंक अलगाववाद आतंकवाद ही नहीं! आतंकवाद से निपटना है तो एक साथ कई मोचोZं पर लड़ना होगा। व्यक्तिगत स्तर भीण्ण्ण्ण्ण्सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्तर पर भी। क्या आतंकवाद अपराध का घोरतम स्वरूप है? क्या अपराध सामाजिक समस्या नहीं? क्या आतंकवाद भी सामाजिक समस्या नहीं?

काफी हैरानी है कि इस बाबत सोचा विचारा नहीं जा रहा है। इस पर काम नहीं किया जा रहा है। आतंकवाद दोनों ओर से मारता है। इसके `अनुयायियों` को भी यह कम नहीं सताता होगा। इसके पीिड़तों को तो सताता ही है। फिर ...उपाय?

Friday, July 11, 2008

तमाशे की एक नई हद?


वासना के जुनून में मारा गया आरुषि तलवार को? बदला लेने के लिए आरुषि का कत्ल किया गया? घरेलू नौकर हेमराज ने मारा उसे? पिता राजेश तलवार ने अवैध संबंधों में बाधा बनने पर मारा आरुषि को? आरुषि का चरित्र ही खराब था...? आदि इत्यादि।

एक नई कहानी (?) कल रात से इलेक्ट्रानिक और आज सुबह से प्रिंट मीडिया में छाई पड़ी है। मीडिया वाले `ऐलान` कर रहे हैं कि मामला सुलट गया है, हत्या तो हुई ही, रेप भी हुआ था, सब नौकरों का किया धरा था, अडो़स पड़ोस के नौकरों के साथ मिल कर इस कत्ल को अंजाम दिया गया। एक चैनल के पास तो बाकायदा वह टेप है जो सीबीआई से किसी तरह उसने हासिल कर लिया है। यह टेप उन सवाल- जवाबो का ब्यौरा है जो नाकोZ टेस्ट के दौरान राजकुमार से पूछे गए। एकता कपूर के घटिया नाटकों की तरह नित नए खुलासे हो रहे हैं। एक गंभीर अपराध पर नौटंकी हो रही है। इस नौटंकी का सूत्रधार बन कर उभर रहा है मीडिया। इसमें मजा कौन ले रहा है, यह तो मेरी अल्पबुिद्ध में आता नहीं। मगर, कच्चा माल पुलिस मुहैया करवाती रही और अब सीबीआई के कथित सूत्र करवा रहे हैं।


अभी तक इस बाबत किसी सीबीआई प्रवक्ता का बयान नहीं आया है मगर हर ओर `कातिल का खुलासा` होने की खबरें आने लगी हैं। क्या यह एक नया तमाशा है? आरुषि के मर्डर केस में रेप शब्द भी जुड़ चुका है। किसी तिलिस्मी कहानी या सीग्रेड फिल्मों की तरह इस सारे मामले को डील किया जा रहा है मीडिया द्वारा। संवदेना को भुनाने की प्रक्रिया अपने आप में संवदेनहीनता की पराकाष्ठा है। न जाने किस आधार पर पिता राजेश तलवार को बेटी आरुषि का हत्यारा करार दिया गया। संदेहों को विश्वास में बदल दिया गया और ऐसा माहौल बनाया गया कि लगा संपूर्ण समाज रसातल में जा रहाहै...बचोरे।

ऐसा नहीं कि मीडिया अपनी भूमिका गंभीरता से कभी भी नहीं निभाता है। मगर क्राइम और देह की बात आते ही, उसका बावलापन और उतावलापन उसके विवेक पर हावी हो जाता है। अपने होने के औचित्य को ताक पर रखते हुए वह सनसनी ही जीता है, सनसनी ही पीता है और सनसनी ही परोसता है। बिना कुछ सोचे समझे आरुषि के चरित्र को ही हीनता की श्रेणी में रख दिया गया। चौदह साल की बेटी को पापा के अवैध संबंधों का साक्षी करार दे दिया गया। पिता कितना भी जलील या निर्दयी क्यों न हो, कुछ खास समुदायों या प्रांतों को छोड़ दें तो उसके बेटी की हत्या करने की बात भी आराम से गले के नीचे नहीं उतरती। मगर, इस मामले में भौचक्के अंदाज में गलप की जाती रही। लोगों द्वारा भी, टीवी चैनलों द्वारा भी और अपने आप को सनसनी से दूर मान कर रिअल पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाले प्रिंंट मीडिया के भी।

मगर इस सबमें असल मुद्दा हमेशा की तरह गायब! आरुषि कांड की सच्चाई पता नहीं कब आएगी, मगर जो माहौल बन चुका है और जिस तरह के दबाव बन रहे हैं, डर है कहीं सच भीतर ही दफन न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि जो सामने आए, वह सच का मुखौटा पहने झूठ हो।.........

एक घंटी घनघनाती सी


क्या वाकई मोबाइल फोन कोई `लकड़बग्धा` है जो हमारे आपके जीवन में चुपचाप घुस आया है?

हाल की दो खबरें बताती हूं। पहली और एकदम हालिया खबर के अनुसार, केरल के एक स्कूल में एक छात्रा को मोबाइल चैक करने के नाम पर क्लास में निर्वस्त्र कर दिया गया था। अब राज्य सरकार सभी स्कूलों में मोबाइल प्रयोग 'कानूनन' प्रतिबंधित करने वाली है। दूसरी खबर के मुताबिक, बर्लिन में सरकारी एजेंसी ने करीब 7 सालों में 50 सर्वे करवा यह घोषित किया कि मोबाइल कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचाता है। उसके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावी साबित होने के सभी दावे निराधार हैं और बेबुनियाद हैं।

दूसरी खबर से इतर, हम सब अक्सर मोबाइल की किरणों के शरीर पर कई तरह के दुष्प्रभावों के बारे में पढ़ते हैं, सुनते हैं। ऐसे में बर्लिन में जारी यह रिपोर्ट खुशखबरी दे सकती थी मगर नहीं दे पाई। इसलिए नहीं दे पाई क्योंकि रिपोर्ट के बाद ही यह कहा जाने लगा (इसमें कितनी सच्चाई है, नहीं जानती) कि जर्मनी सरकार के सर्वे को मोबाइल सेवाप्रदाता कंपनियों ने वित्तपोषित किया है। यदि ऐसा है तो जाहिर है नतीजे पार्शियल होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।

जब मैं आईएएनएस में कार्यरत थी तब मोबाइल के सामजिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर एक स्टोरी की थी।
कई लोगों से और विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के अलावा इस संदर्भ में डॉक्टरों से भी बात हुई। सभी ने अति को हानिकारक बताया। सभी की बातों का निचोड़ था कि मोबाइल के आने से जीवन में कई परिवर्तन हुए हैं। इनमें सकारात्मक कम हैं नकारात्मक अधिक।

खैर। यहां सवाल विज्ञान के वरदान या अभिशाप होने का नहीं है। बल्कि, एक तकनीक के अति, विभिन्न और भौंचक्क कर देने वाले उपयोग का है। क्या वाकई स्कूलों (ऑफिसों या कहीं और स्थान विशेष पर) मोबाइल फोन के प्रयोग को बैन कर देना चाहिए? क्या मोबाइल की आवश्यकता को ले कर बच्चों और उनके अभिभावकों के तकोZं में कोई दम है? क्या प्रतिबंध ही एकमात्र उपाय है? ....

मुझे लगता है कि किसी चलन या परंपरा या आदत से यदि सामूहिक हानि हो रही हो, तो पहले समीक्षा की जानी चाहिए कि असल वजह वह परंपरा या चलन विशेष ही है या कुछ और। कहीं हम असल समस्या से अनभिज्ञ तो नहींण्ण्ण्ण्। इसके बाद इस बाबत सरकार समेत व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर कदम उठाया जाना जरूरी होगा। मेरा मानना है कि इस बाबत सरकार या प्रशासन को कड़ाई से लागू करने वाले 'जायज' नियम बनाने चाहिए। हम लोगों को भी जरूरी गाइडलाइन स्वयं तैयार करनी होगी जिस पर हम अमल भी करें।

Thursday, July 10, 2008

दिल्ली मेरी दिल्ली


सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी गौरतलब है। कोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बाहरी लोगों के बोझ से चरमराने पर सरकार को संज्ञान लेने के लिए कहा है। अदालत की इस टिप्पणी पर कुछ लोग खुश हैं जबकि कुछ बेहद नाराज भी।

कोर्ट ने कहा है कि यह सही है कि किसी भी व्यक्ति को देश में कहींं भी बसने का अधिकार है मगर इस बाबत यह ध्यान रखने की भी जरूरत है कि संसाधनों पर बोझ न बढ़े और मूलभूल सरंचना न चरमराए। कोर्ट ने अपनी बात स्पष्ट और बेहद स्पष्ट शब्दों में कही है। जाहिर है कोर्ट किसी के भी आवागमन से ले कर बसने के अधिकार को बाधित नहीं करता बल्कि इस अधिकार को थोड़ा और ध्यान रखता है। कोर्ट की टिप्पणी लोगों के `ढंग` से रहने के अधिकार को भी सुनिश्चित करने की जरूरत पर बल देती है।

यहां यह स्पष्ट होना जरूरी है कि यहां बिहारियों या यूपी वालों को खेदड़ने की बात अदालत ने नहीं कही है और किसी जाति, प्रदेश या समुदाय के आधार पर दिल्ली को भीड़मुक्त करने की बात भी नहीं कही है। संसाधनों पर बढ़ते बोझ और चरमराती व्यवस्था को चलायमान रखने की जरूरत पर संजीदगी से अपनी बात कही है। अब यह सरकार पर है कि वह इस बाबत दिए गए निर्देशों को कैसी और कितनी गंभीरता से लेती है।

Thursday, June 12, 2008

प्राथमिकताएं

ब्लॉग कैसे एक निजी डायरी अधिक है और एक सार्वजनिक चिट्ठा कम, यह ब्लॉगर्स के प्रोफाइल देखकर अहसास हो जाता है। दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों में आ बसे लोग अपनी जड़ों को कितना शिद्दत से मान देते हैं और उन्हें त्वचा की तरह खुद पर लपेटे हुए आगे बढ़ते हैं, यह तब तब अहसास होता है जब जब ब्लॉगर्स के प्रोफाइल देखती हूं। अनुराग अन्वेषी के प्रोफाइल में लिखा है मन अब भी घूम रहा है झारखंड की गलियों में। अविनाश के ब्लॉग dillii दरभंगा छोटी लाइन में अक्सर पोस्ट ऐसी होती हैं जिन पर उनके कस्बे की छाप दिख जाती है। लोग उनसे अक्सर टिप्पणियों के माध्यम से सिफाारिश भी करते हैं कि भई आपकी फलां पोस्ट में कहीं भी दरभंगा का जिक्र नहीं, जिक्र डाला करिए। प्रियदर्शन कहते हैं, रांची में जन्म और पढ़ाई भी। जीवन के बेहतरीन वर्ष वहीं गुजारे।

ऐसे लिस्ट तो बहुत लंबी हो जाएगी। मगर, हम और आप जानते ही हैं कि कितना लाजिमी सा है प्रोफाइल में अपने कस्बे, शहर या गलियों का जिक्र होना, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब आप नॉन-डेहलाइट हों। चंद पंक्तियों में अपने बारे में मुक्त हो कुछ कहने का अवसर मिलता है तो सबसे पहले हम स्याही उठाते हैं उस मिट्टी से जहां पैदा हुए, जहां बचपन बीता, जहां मूलभूत रिश्तों की पैदाइश हुई। कथित अपने बारे में सार्वजनिक डाक्युमेंट रिज्यूम में भी लिखा जाता है जहां औपचारिकता ही आवश्यक तौर पर हावी रहती है। मगर, ब्लॉग नें निजी डायरी की तरह मन में उमड़ते घुमड़ते कुछ कुछ या बहुत कुछ को चस्पां देने की स्वतंत्रता दी है, जो इंटरनेटीय वरदान है।

मेरे मित्रों और जानकारों में अधिकांश दिल्ली से बाहर से हैं। कुछेक को छोड़ दें तो अक्सर वे अपने शहर या माहौल का जिक्र नहीं करते। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस शहर में हरेक नए कदम से वे अपने शहर में डाले जाने वाले कदमों से उनकी तुलना/मिलान करते होंगे।

मैं दिल्ली में हूं। यहां की मिट्टी से बेहद प्यार है। यहां के रौनकों से भी और खामोशियों से भी। प्रदूषित हवा से भी है और उस कथित प्रोफेशनलिज्म से भी जिसकी बुराई तो सब करते हैं मगर होते उसी का हिस्सा हैं। मैं दिल्ली में ही पैदा हुई। यहीं पली। यहीं शिक्षा दीक्षा हुई। कुछेक मौके मिले देश के अन्य हिस्सों में जाने के। गई और समेट लाई अनुभवों को साथ। मगर, वापस दिल्ली में ही आई और रूटीन में रच बस गई। ऐसे में अक्सर सोचती हूं कैसा लगता है अपना बहुत कुछ, कुछ वर्षों या हमेशा के लिए पीछे छोड़ कर आना और किसी ऐसे शहर का हो जाना जहां आना गाहे बगाहे मजबूरी थी। कितना तड़पाता होगा दिवाली पर छुट्टी न मिलना और 'इस मुंए पराए शहर' में खामोश रंगीनियों को त्यौहार की रात महसूस करना। बीमार होने पर मां की याद आना जो कि पास नही होती। कैसी बेबसी का अहसास होता होगा जब मन करे पापा-पापा चिल्लाना मगर सामने हों केवल सफेदी से पुती दीवारें। इन अहसासों को जीने का मन कतई नहीं है मगर काश ऐसा हो कि हर शहर इतना एनरिच अवश्य हो कि महत्वाकांक्षा के अलावा कोई ओर मजबूरी किसी मुएं पराए शहर की ओर रवाना करने की बाध्यता न बने।

Thursday, May 15, 2008

`रजनीगंधा` अब महकती है


उसका नाम रजनीगंधा है। उसकी उम्र 39 साल है। अलवर के जिरका फिरोजपुर के पास उसका मायका है और हिजौरीगढ़ में उसका ससुराल है। वह महीनेवार अठारह सौ रूपए कमाती है। दो बेटियां हैं और एक बेटा है। बड़ी बेटी के हाथ पीले करने है, संभवत: इसी बरस जबकि छोटी बेटी पढ़ रही है। बेटा भी पढ़ रहा है और पुलिस में भर्ती होना चाहता है। रजनीगंधा की आंखों में चमक है और चेहरे पर संतोष भी। उसकी आंखों में अब सपने भी हैं जिनके पूरे होने की न सिर्फ वह कामना करती है बल्कि कोशिश भी करती है। मगर, पहले ऐसा नहीं था।

कभी रजनीगंधा देश के उन सैकड़ों स्त्री पुरूषों में से एक थी जिनकी जिंदगियां एक ऐसा काम करते-करते बीतती रही हैं जो न केवल गैर कानूनी है बल्कि एक सभ्य समाज के माथे पर कलंक की तरह है। भारत सरकार द्वारा मैला ढोने की प्रथा गैर कानूनी करार दे दी गई है। मगर आज भी देश के कई राज्यों में यह कथित ``प्रथा`` बिना किसी रोकटोक के जारी है।

जब बात हुई तब रजनीगंधा ने बताया कि उसके मायके में भी मैला ढोने का काम किया जाता है। उसकी पीढ़ियां यही काम करती आई हैं। रजनीगंधा 15 साल की थी जब उसकी शादी हुई। ससुराल में भी सभी मैला ढोने का काम करते हैं। उसने बताया, ``शादी से कुछ महीने पहले जब मां पहली बार अपने साथ काम पर ले गईं तो चक्कर आ गए थे। इसके बाद कई दिन कई बार उल्टी कर देती। मगर जाना पड़ता। क्योंकि, मां कहतीं कि ससुराल में तो जाना ही पड़ेगा। यह काम करना ही होगा।`` रजनीगंधा मैला ढोने का काम नहीं करना चाहती थी। लेकिन, पहले मां के दबाव में और फिर परिवार की आर्थिक जरूरत के मद्देनजर यह करना ही पड़ा। फिर उसने इसे नियति मान कर समझौता कर लिया।

दिन भर आधा दर्जन घरों से शौच सफाई कर उसे सिर पर तसले में भर कर दूर कहीं डाल कर आना होता। एक घर से कुल मिला कर अधिक से अधिक 25 रूपए की कमाई हो पाती। महीने भर में दो सौ रूपए तक की कमाई हो पाती। जिन घरों में वह शौच सफाई का काम करती, वह परिवार उनसे अछूतों सा व्यवहार करता। रजनीगंधा दलित समुदाय से है। वह वाल्मीकि है। ये परिवार उसे प्यास लगने पर ``उपर`` से पानी देते। एक दिन न आने पर पैसे काट लेते। ऐसे में मैला ढोने के संक्रमण के चलते अगर बीमार भी पड़ जाएंं और काम पर न जाएं तो रही सही कमाई भी हाथ से जाती रहती है। अलवर में रजनीगंधा जहां रहती हैं वहां ऐसे कई परिवार हैं जो यही काम करते हैं, पीढ़ियों से मैला ढोते आ रहे हैं। उसका कहना है कि वहां करीब दो सौ से ढाई सौ परिवार ऐसे हैं जो यही काम पीढ़ियों से करते आ रहे हैं।

मगर अब रजनीगंधा की जिंदगी बदल गई है। करीब आठ नौ महीने पहले अपनी जेठानी के माध्यम से वह सुलभ इंटरनेशनल नामक एक एनजीओ से जुड़ी है। उसकी जेठानी पांच साल पहले सुलभ से जुड़ी थी। अब रजनीगंधा सुलभ के अलवर स्थित सेंटर में सुबह आठ से सात बजे तक काम सीखती है, पढ़ाई करती है। महीने के अंत में अठारह सौ रूपए पगार के तौर पर मिलते हैं। रजनीगंधा से जब यह पूछा गया कि क्या वह अपनीे सहेलियों और पड़ोसियों को मैला ढोने के काम से निजात दिलवाएगी तो उसने उत्साह से हामी भरी और कहा, `` क्यों नहीं! जरूर ही मौका मिलने पर उन्हें जोड़ूंगी। अभी तो मैं खुद भी नई हूं।``

रजनीगंधा का सपना है कि वह यहां से सिलाई कढ़ाई सीख कर अपनी खुद की सिलाई की दुकान खोले। रजनीगंधा के हाथों मैला ढोने का काम `छूटने` के बाद अब उसका पति भी किसी और काम की तलाश में है ताकि इस घिनौने काम से मुक्त हो सकें।

रजनीगंधा उन 56 महिलाओं में से एक है जो अलवर में मैला ढोने का काम करती थीं और अब सुलभ से जुड़ चुकी हैं। मगर, अब उन्हें इस काम से मुक्ति मिल चुकी है। अब उनसे अछूतों जैसा व्यवहार नहीं किया जाता। जो लोग कल तक उन्हें अपने घर में बिठाने को अपना अपमान मानते थे, वे अब उन्हें कुर्सी पर बिठा कर पूछते हैं कि तुम न्यूयंार्क कब जा रही हो। हां, यह सभी महिलाएं जुलाई में न्यूयॉर्क जा रही हैं जहां इन्हें सम्मानित किया जाना है। इसके लिए ये महिलाएं खासी तैयारी भी कर रही हैं। कभी अनपढ़ रही ये महिलाएं अब अंग्रेजी भाषा सीख रही हैं।

लगभग सौ साल पहले महात्मा गांधी ने बंगाल में हुई कांग्रेस की बैठक में वाल्मीकि समुदाय के लोगों की काम की परिस्थितियों और उनकी विवशताअों का मसला उठाया था। तब से आज तक एक पूरी सदी बीत चुकी है मगर एक कु-प्रथा है कि मिटती नहीं।

Tuesday, May 13, 2008

अब..?


बात है अधूरी सी
रात है स्याह गहरी सी

पीछे कुछ छूटता नहीं
साथ कुछ भी चलता नहीं

खामोशी है पैनी सी
उंगलियों को कुरेदती सी

बेचैनी सागर की लहरों सी
खुद को पत्थरों से ठोकती सी

अजीब सी बेकरारी है
नहीं, प्रेम नहीं,
कोई और ही सी महामारी है

रोशनी है कहीं-कहीं कौंधती सी
आस पास को चीरती भेदती सी
और मैं सिमटती सी
तलाशती हूं ``क्या हूं मैं अब?``

Tuesday, May 6, 2008

यादें-बातें



बचपन की कुछ यादें मील का पत्थर होती हैं। उन पर से फिर फिर गुजरना भले ही न होता हो मगर वो कई बार विशालकाय पहाड़ सी यकायक सामने आ खड़ी होती हैं। ये पहाड़ धूप और कुहासे भी याद करवाते हैं और हरियाली और चांदनी भी। इंटरनेट पर काम के दौरान अचानक ही नीरज की एक मशहूर कविता की एक पंक्ति पर नजर पड़ गई। कुछ कौंंधा सा गया। पर काम ज्यादा था, और मुंआ समय भागे जा रहा था। हमें भी समय का पीछा करते हुए दौड़ना पड़ता है। न दौड़ें तो पिछड़ जाएं। हम भी, और हमारा काम भी।
खैर। नीरज की ये पंक्तियां - कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है- मुझे उस दौर में दु्रत गति में ले जाती हैं जो कई साल पहले करनाल में जिया था। तब कोई खिलौना टूट जाने पर ये पंक्तियां भावविभोर हो कर गा कर मुझे सुनाई जातीं। मां बाजार नहीं ले जातीं और कई दिन से कुल्फी खाने की इच्छा को मन में संजोए रखे इस सपने के टूट जाने पर मैं रूंआसी हो उठती तो भी मुझे गोद में झुलाते हुए वे यही कहते। वे यानी मेरे पापा।

छिपछिप अश्रु बहाने वालों
मोती व्यर्थ लुटाने वालों
कुछ सपनों के मर जाने से
जीवन नहीं मरा करता है।

सपना क्या है नयन सेज पर
सोई हुई आँख का पानी
और टूटना है उसका ज्यों
जागे कच्ची नींद जवानी।

गीली उमर बनाने वालों
डूबे बिना नहाने वालों
कुछ पानी के बह जाने से
सावन नहीं मरा करता है।

माला बिखर गई तो क्या है
खुद ही हल हो गई समस्‍या
आँसू गर नीलाम हुए तो
समझो पूरी हुई तपस्या।

रूठे दिवस मनाने वालों
फ़टी कमीज़ सिलाने वालों
कुछ दीपों के बुझ जाने से
आँगन नहीं मरा करता है।

लाखों बार गगरियाँ फ़ूटीं
शिकन न आई पर पनघट पर
लाखों बार किश्तियाँ डूबीं
चहलण्पहल वो ही है तट पर।

तम की उमर बढ़ाने वालों
लौ की आयु घटाने वालों
लाख करे पतझड़ कोशिश पर
उपवन नहीं मरा करता है।

लूट लिया माली ने उपवन
लुटी न लेकिन गंध फ़ूल की
तूफ़ानों तक ने छेड़ा पर
खिड़की बंद न हुई धूल की।

नफ़रत गले लगाने वालों
सब पर धूल उड़ाने वालों
कुछ मुखड़ों की नाराज़ी से
दर्पण नहीं मरा करता है।

Tuesday, April 15, 2008

मुक्ति सच में हो

इंटरनेट पर एक खबर है। खबर अपने आप में चौंकाने वाली तो है ही, संग में एक साथ कई सवाल उठाती है। खबर के अनुसार बिहार और झारखंड में कई स्थानों पर भूतों और प्रेतों से कथित तौर पर पीड़ित लोगों को प्रेत बाधा से मुक्ति दिलवाने के लिए मेलों का आयोजन किया जाता है। इन मेलों में कथित `पहुंचे हुए` पंडे और ओझा भूत उतारते हैं।

खबर पर गौर करें, इन मेलों में आने (लाए जाने) वालों में महिलाएं ही अधिक होती हैं। जिन्हें, डंडे की चोट पर स्वीकार करवाया जाता है कि उन पर प्रेत छाया है। मार खा कर लॉक अप में पुलिस उस जुर्म को कबूल करवा पाने में सफल हो जाती है जो गिरफ्त ने किया न हो तो एक महिला की क्या बिसात!

वैसे खबर की ओट न भी ली जाए तो हम और आप यह जानते ही हैं इस देश में महिलाओं को ही अक्सर भूत बाधा का सामना करना पड़ता है। समाज में महिलाएं ही अक्सर चुड़ैल करार दी जाती हैं। इन भूतों को भी महिलाएं ही प्यारी होती हैं। पुरूष नहीं। वे अक्सर महिलाओं को ही निशाना बनाते हैं। वह भी ऐसी महिलाओं को, जो पहले से ही अपने परिवार या समुदाय में दबी-कुचली परिस्थिति में दोयम दर्जे का जीवन जी रही होती हैं। बीमार या उपेक्षित होती हैं। न जाने क्यों यह भूत प्रजाति ऐसी महिला पर कब्जा करती है जिसका खुद अपने पर कोई `कब्जा` नहीं होता! ऐसे में ऐसी महिला को कब्जा कर कोई भूत दूसरों पर अपनी `ताकत` (या सत्ता) कैसे साबित कर सकता है!? वह एक कमज़ोर महिला पर हावी हो कर कैसे उसके आस पास के लोगों को परेशान करने की कोशिश में `सफल` हो सकता है! यह बात भूत योनि की समझ में नहीं आती, तो पता नहीं क्यूं।

वैसे यहां आपत्ति उस मानसिकता पर भी है जिसके तहत इस खबर में पीड़ित शब्द का उपयोग किया गया है। मानो, वाकई `भूत आना` कोई बीमारी हो। ईश्वरप्रदत्त बीमारी? महिला के बुरे कर्मों का फल?

या फिर, अपनों की बेड इंटेशन की शिकार? या समाज के भीड़तंत्र से पीड़ित ? दरअसल मुक्ति चाहिए तो सही, मगर किसको किससे? यह जानने की जरूरत है।

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...