Wednesday, December 9, 2009

कुछ चेहरे मौसम नहीं होते...

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कुछ चेहरे मौसम नहीं होते...
कुछ चेहरे मौसम नहीं होते
कभी नहीं बदलते
रहते हैं एकसार से
तीन सौ पैसठों दिन
साल दर साल
दशक दर दशक

बदल जाती है
इन चेहरों की नियति
फिर भी इनके चिन्ह नहीं बदलते
पड़ते हैं वैसे ही
रास्तों पर आपके
उसी आकार
उसी प्रकार से
जैसे पड़ते थे कभी
जब मिले थे पहली बार

इन चेहरों पर
वक्त की मार पड़ती है
बहुत बहुत कई बार,
कभी आंखों का पानी बहता है
भीतर की ओर,
कभी खुशियां मिलती हैं अपार
कि छाती दुखने लगती है,
पर नहीं बदलती इन चेहरों की सरगमी थाप...

कुछ चेहरे सदा ऐसे ही रहें,
कुछ चेहरे सदा ऐसे ही मनें,
कुछ चेहरे समाज में सदा रहें
ऐसे से ही,
जो मेरे जैसे न हो
जो तेरे जैसे न हो
जो हों तो बस हों
ठहराव, आस, प्यार और विश्वास लिए
सदा सतत निरंतर
शुक्र है शुक्र है शुक्र है।

Saturday, November 28, 2009

वाकई, सेवा देती है मेवा

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अब लगने लगा है कि सेवा (सर्विस टू पीपल) स्वार्थ का खूबसूरत चेहरा है। पर है असल में स्वार्थ ही। सेवा करके मन संतुष्ट होता है और खुशी मिलती है। जैसे कुछ पा लिया हो। जैसे मन में कुछ हल्का हो गया हो। जैसे कुछ है जो साध लिया हो। जैसे स्वंय से कोई वार्तालाप कंपलीट हो गया हो...।

जो लोग सेवा को स्वार्थ नहीं मानना चाहते हैं, वे बताएं कि वे क्यों करते है सेवा?

सेवा संतुष्टि सी नहीं देती तो क्या देती है? कोई तो वजह होती होगी कि सुह्रदय लोग (टाटा अंबानी या अन्य अमीर कारोबारी नहीं) कभी कभार मंदिर के बाहर बैठे गरीबों को भोजन करवाते हैं। या, बुजुर्ग माता पिता का साथ तमाम दिक्कतों और विरोधाभासों को झेलते हुए देते हैं। या, नब्बे की उम्र पार गई विधवा बुआ को परिवार वालों के लाख चिक चिक करने के बाद भी उनकी अंतिम सांस चुकने तक साथ रखते हैं। या, कि बिना किसी बताए अनाथ बच्चों के आश्रम में अपना जन्मदिन बिताते हैं। अनजान लोगों के लिए कुछ करना। कभी कभी अपने दर्द और तकलीफों को भूल कर दूसरे के दुख दर्द को समझना और दूर करने का अपने स्तर पर प्रयास करना। और भी कई उदाहरण होंगे, फिलहाल तुरंत ध्यान में नहीं आ रहे।

क्या यह गलत नहीं है कि सेवा को निस्वार्थ सेवा की टर्म से पुकारा जाए...?

सेवा से मेरा मतलब एनजीओ में नौकरी करने से नहीं है। सेवा, जहां से आपको मोनिटरी या कोई और विजिबल फायदा न हो रहा हो...।

Wednesday, November 4, 2009

एक अमीबा

शब्दों के पैरों से घुंघरू बंधे हैं
कभी कभी कानों में शोर सा भरते हैं
ढांप लो हथेलियों से
कान को अगर कभी
तो चमड़ी पे तेज की थाप से बजते हैं
और कभी चमड़ी को
नोंच लो खुरच भी लो
तेज रोशनी बनके शब्द
आंखों में उतरते हैं

क्या करोगे नजर जब शब्द से ढकी होगी
क्या करोगे पांव जब शब्द से अटे होंगे
क्या करोगे सांस जब शब्द से सनी होगी
क्या करोगे शब्द जब मौन बन चीखेंगे..

चुनना तो है कि
कैसे शब्द को पचाना है
न पचे तो अपच सी
कर देते हैं घुंघर से शब्द
फिर कभी एक दिन मीरा के श्याम बन
नैया के खिवैया भी बनते हैं
यही शब्द
पर यकीन हो चला
शोर गजब ढाते हैं
आसमान गिरा रे गिरा
फिर फिर गरियाते हैं
शब्दों के पैरों से घुंघरू बंधे हैं
कभी कभी कानों में शोर सा भरते हैं

पीले नीले सफेद और भूरे लाल से
रंगीन कोई इंद्रधनुष है
सरगम की कल्पना..या फिर?
कौन जाने क्या बला है
पर यकीन तो हो चला है
बार बार धरती से खिसकते हैं यही शब्द

रहें तो रहें, या न रहें
बसें तो बसें, या न बसें
बजें तो बजें, या न बजें
या सदा बने ही रहें
पर कभी निजात दें
और कभी बता भी दें
क्या है अमीबा सा जो
खुद पे इतराते हैं
शब्दों के पैरों से 'सुनहरे' घुंघरू बंधे हैं...

Monday, October 26, 2009

माया की नगरिया में सोने की डगरिया..

..और जगजीत सिंह की आवाज मन में भीतर गहराती ही जा रही है। यह गीत सुनिए। पारुलचांदपुखराजका की पिछली पोस्ट खंगालते में मिल गया। वहीं से कॉपी कर रही हूं। फिल्म कालका का यह गीत मैंने पहले कभी नहीं सुना था..पर अब सुना तो बस खूब सुना और साझा करने का मन किया..। आप भी सुनें तो..

Sunday, October 25, 2009

धर्म और अध्यात्म : बहस की गुंजाइश



दीवाली के बाद की सुबह एक दबे छुपे सवाल को पटक कर सामने ले आई। सो अब न सुबह अलसाई रही और न ही इतावारिया मूड में स्लो..।

एक दोस्त का फोन आया। फोन साइलेंट पर डेस्कटॉप के पास रखा था और मैं सीट पर नहीं थी। सो 4 मिस कॉल हो गईं। ये दोस्त दनादन फोन खड़काने वालों में से नहीं है, सो तुरंत कॉल बैक किया। फोन उठाते ही बिना हलो किए ही बोले, तुम्हारी कॉलर ट्यून सुबह सुबह कान में पड़ जाए तो बड़ा सुकून महसूस करवाती है..सो स्वीट सो स्प्रिचुअल। वे हंसते हुए बोले, अब तुम्हें जो चीखते चिल्लाते देख ले,वो इस गुरबानी (मेरी कॉलर ट्यून) से तुम्हें रिलेट ही नहीं कर पाएगा। मैंने तुरंत कहा, हां यार, मैं इस ट्यून को जल्द ही बदलने वाली हूं। वे बोले, क्यों!मैंने चिढ़ कर कहा, लोगों को लगता है मैं धार्मिक हूं और मुझे पसंद नहीं कि कोई मुझे देवी देवताओं या धर्म-कर्म-कांड से जोड़े...। कॉलर ट्यून बदलने की इच्छा के पीछे के बाकी के तर्कों को बीच में ही काट कर वे बोले, ..पर यह गुरबानी तो आध्यत्मिक इनक्लाइनेशन दिखाती है, धार्मिक नहीं! मैंने तुरंत कहा, पर आमतौर पर लोग धर्म और अध्यात्म को एक ही मान कर चलते हैं। वे बोले, तो यह उनकी दिक्तत है। और, जिसे पता ही नहीं कि धर्म और अध्यात्म में क्या फर्क है, उसके कुछ भी सोचने- न सोचने से क्या फर्क पड़ता है।

इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती उन्होंने थोड़ा गंभीर हो कर पूछा कि अगर तुम्हें जानने या पहचानने वालों को यह मालूम चलता चले कि तुम्हारा आध्यात्मिक रुझान है और तुम अध्यात्म से काफी जुड़ा महूसस करती हो, तो क्या तब भी तुम्हें बुरा या अजीब लगेगा? मैंने कहा, बात अजीब लगने या बुरा लगने की नहीं है, पर मुझे लगता है कि ईश्वर से मेरा रिश्ता कैसा है और क्यों है, नहीं है, या है, है तो कितना है और किस हद तक गहरा है, कब से यह रिश्ता जुड़ा, जितना जुड़ा, उतना क्यों जुड़ा, न जुड़ता तो क्या होता, जुड़ गया तो क्या हो लिया...जैसे सवाल और जवाब मेरे और ईश्वर के बीच के हैं। मैं अपने और ईश्वर के संबंध को किसी पर प्रकट (जाने या अनजाने में) नहीं होने देना चाहती। इस पर उन्होंने जो कहा, उसका सार यह था कि आज की पीढ़ी के युवा लोग यह क्यों नहीं सोचते कि उनकी अध्यात्म को ले कर भूख और उत्सुकता अगर जगजाहिर होगी तो ज्यादा से ज्यादा लोग इस बारे में सोचेंगे और जानेंगे। शायद स्ट्रेस से निकलने, रिलेक्स होने, जीवन के तनाव के कम होने और गुड ह्यूमन बीइंग बनने के लिए वे इंस्पायर भी हों..।

उम्र में मुझसे काफी बड़े और जिंदगी को फुल्ली पॉजिटवली जीने वाले इस दोस्त ने यह सोचने पर मजूबर कर दिया है कि क्या वाकई धर्म या अध्यात्म को ले कर हमारी सोच हम तक ही सीमित रहे, यह अच्छा है। या फिर यह बेहतर है कि धर्म और अध्यात्म से जुड़ी 'पॉजिटिविटी' का प्रचार और प्रसार हो..?

मुझे लगता है कि मैं ईश्वर के किस प्रकार में यकीन रखती हूं,यह मेरा निजी मामला है। मैं नागपंचमी मनाते समय जानवरों के प्रति भला-भाव रख रही हूं या फिर भगवान को याद कर रही हूं, यह मेरी निजी सोच है। आस्था है। आस्था की वजहें क्या हैं और अनास्था की वजहें स्ट्रांग क्यों नहीं है, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती और जैसे बाकी लड़के लड़कियां परमात्मा और आस्था पर ज्यादा बातचीत नहीं करते, मैं भी बस चुप्पी मार कर बैठे रहना चाहती हूं। जिसे मानना है माने, नहीं मानना न मानें। जिसे लीक पर चलते हुए आंख मूंद कर 16 सोमवार के व्रत रख लेने है, रखे। जिसे शादी का सबसे बुरा मुहूर्त निकाल कर शादी करनी है, करे। मेरा क्या जाता है!अगर मुझे लगता है कि अध्यात्मिकता जीवन जीने का एक तरीका है, तो जरुरी तो नहीं यह दूसरों को भी समझाया- बताया जाए। मैं तो इस पर चुप्पा बन कर बैठी रहूंगी।

पर अब यह सोच रही हूं कि ये कैसा स्वार्थ है! जहां पॉजिटिविटी को सिर्फ यह सोच कर मैंने बांध लिया है कि भई प्रगतिशील समुदाय में अध्यात्म फिजूल की चीज माना जाता है। अगर 'स्प्रिचुएलिटी इज ए वे ऑफ लाइफ' है तो यह तरीका बांटने से परहेज क्यों हो। बाकी युवाओं को भी क्यों हो। हम सभी को क्यों हो यह परहेज आखिर। यह सवाल कुलबुला रहा है।

Sunday, October 4, 2009

रामबाण


दुनिया में एक नया सौंदर्य विकसित हुआ है। यह दिन ब दिन और विकसित, और विकसित किया जा रहा है। इसके होने की इतनी तीव्र जरुरत महसूस की जा रही है कि इसे हर पल हर कोई हवा दे रहा है।

यह हाव भाव का सौंदर्य है। नहीं यह तहजीब नहीं। यह मुखौटा सौंदर्य के ज्यादा करीब है। जिसका मुखौटा सौदर्य जितना बेहतरीन, वह उतना सफल। जिसका मुखौटा सौंदर्य जितना बेहतरीन, वह उतना ही असफल।

'अ' जब शाम को घऱ पहुंचता है तब डोरबेल बजाते बजाते इस मुखौटा सौंदर्य को हौले हौले खींच कर उतार देता है और दरवाजा खुलने तक इसे डोरबैल के बगल में कील के सहारे दीवार से चिपके हुए गणेशजी के कोनों पर टांग देता है। दरवाजा खुलने से ले कर घर में उस शाम का पहला कदम रखने तक वह पोस्टमॉर्टम हो चुका होता है। सब असल। सब रीअल। 'अ' को अपनी खूबसूरत आधुनिक और उसके प्रति निर्लिप्त बीवी से बात करने की इच्छा नहीं होती। उसे बेटे पर प्यार आता है पर जैसे ही वह उसे छोटे वाले के कान खींचते देखता है तो उसे कोफ्त हो उठती है अपनी इस क्रिएशन पर। मां के सामने सुबह होने से पहले वह पड़ने वाला नहीं है,सो इस ओर से जीवन में शाम भर का सुकून है।

पर बच्चे बड़े हो रहे हैं, पर बीवी आजकल दो टाइम जिम जा रही है, बिना किसी सॉलिड वजह के ...और... मां आजकल बड़े भाई के ज्यादा गुणगान करती है बीवी ने बताया था.. ज्यादा आसक्त हो गईं तो हिस्सेदारी में..ओ नो..यह वह कैसे होने दे सकता है..। 'अ' को ऐसे किसी भी डर को हकीकत में न बदल देने की मजबूरी लिए सोफे से उठना पड़ता है।

अब उसे कुछ न कुछ करना ही होगा। वही पुरानी तरकीब आजमानी होगी। इसी तरकीब के सहारे आज वह इस टुच्चे लोगों की फील्ड में इस मुकाम तक पहुंचा है। यह तरकीब काफी हद तक वैसी होगी जैसी वह गणेशजी पर टांग आया है। हां। वैसी सी ही।

'अ' बेडरूम में आ गया है। आदमकद आईने के बगल में बीवी ने नई खपंचें सी लगवाई हैं जिन पर वह अपना परफ्यूम आदि रखती है। यहां 'अ' का परफ्यूम भी रखा है। परफ्यूम की दोनों शीशियों के बीच से 'अ' ने कुछ उठा लिया है। यह 'अ' का दूसरा और आखिरी मुखौटा सौंदर्य है, ऐसा 'अ' का मानना है। 'अ' अब थोड़ा बेहतर महूसस कर रहा है। 'अ' अब हर जंग जीत जाएगा। 'अ' अब रिश्तों की दुनिया में हर टुच्चे-अच्छे को मात देते हुए 'विनर' ही बनेगा, और कुछ नहीं।

रामबाण मिल गया है!

Thursday, September 17, 2009

ईश्वर, कुदरत, आस्था


ईश्वर के होने न होने को ले कर चली जिस बहस की शुरूआत प्रणब प्रियदर्शी जी ने की थी, उसे आगे बढ़ाया है संजय ग्रोवर ने। यह टिप्पणी कमेंट के तौर पर आई थी जिसे ज्यों का त्यों यहां पोस्ट कर रही हूं।

संजय जी, स्वाभाविक तौर पर यह देखा जा सकता है कि नास्तिकों को आस्तिकों की और आस्तिकों को नास्तिकों के तर्क अजीबोगरीब लगते हैं। दोनों को ही एक दूसरे की दुनिया अजूबी और आधारहीन तर्कों से भरी लगती है।



पूजाजी, बुरा मत मानिएगा, मुझे ईश्वर को मानने वालों के तर्क हमेशा ही अजीबो-गरीब लगते हैं। और उनके पीछे फिलाॅस्फी ( ) भी ऐसी ही है जो उन्हें अजीबो-गरीब ही बना सकती है। एक शेर में यह मानसिकता बखूबी व्यक्त हो गयी है -

जिंदगी जीने को दी, जी मैंने,
किस्मत में लिखा था पी, तो पी मैंने,
मैं न पीता तो तेरा लिखा ग़जत हो जाता-
तेरे लिखे को निभाया, क्या ख़ता की मैंने !

अब हम शायर महोदय से विनम्रतापूर्वक पूछें कि आपको पता कैसे लगा कि आपकी किस्मत में यही लिखा था। अगर आप न पीते तो यही समझते रहते कि आपकी किस्मत में न पीना लिखा था। क्योंकि ऐसी कोई किताब तो कहीं किसी फलक पर रखी नहीं है कि जिसे हम पहले से पढ़ लें और जान लें और घटना के बाद संतुष्टिपूव्रक मान सकें कि हां, यही लिखा था, यही हुआ। भाग्य और भगवान के नाम पर चलने वाली यह ऐसी बारीक चालाकी है जिसके तहत जो भी हो जाए, बाद में आराम से कहा जा सकता है कि हां, यही लिखा था। आखिर कोई कहां पर जाकर जांचेगा कि यह लिखा था या नहीं !? अब कुछ उन तर्कों पर आया जाए जिनके सहारे ‘भगवान’ को ‘सिद्ध’ किया जाता है। ये तर्क कम, तानाशाह मनमानियां ज़्यादा लगती हैं। इन्हीं को उलटकर भगवान का न होना भी ‘सिद्ध’ किया जा सकता है। देखें:-

1. चूंकि लाल फूल लाल ही रहता है, इसका मतलब भगवान नहीं है।

2. चूंकि दुनिया इतने सालों से अपनेआप ठीक-ठाक चल रही है इसलिए भगवान की कोई ज़रुरत ही नहीं है यानिकि वो नहीं है।

3. चूंकि दुनिया में इतना ज़ुल्म, अत्याचार, अन्याय और असमानता है जो कि भगवान के रहते संभव ही नहीं था अतः भगवान नहीं है।

4. भगवान को मानने वालों की भी न मानने वालों की तरह मृत्यु हो जाती है, मतलब भगवान नहीं है।

5. च्ूंकि अपनेआप सही वक्त पर दिन और रात हो जाते हैं इसलिए भगवान नहीं है। आदि-आदि....

अब यह तर्क है कि ज़बरदस्ती कि आप चाहे कुदरत कहो पर है तो वो ईश्वर......
धर्म और तर्क एक ही चीज़ है.......

कैसे पूजाजी !? इसे और विस्तार दूंगा। तब तक आप यह पोस्ट और प्रतिक्रियाएं पढ़ें:-
http://samwaadghar.blogspot.com/2009/06/blog-post_16.html

Friday, September 4, 2009

नास्तिक मित्र को आस्तिक मित्र के 7 जवाब



वैसे तो प्रेम और आस्था निजी मामला है। विशेषतौर पर तब जब वह ईश्वर से/पर हो। लेकिन, मित्र प्रणव प्रियदर्शी जी ने बस बात- २ पोस्ट को ले कर घोर आस्तिकों (मुख्य रूप से मुझे) को आड़े हाथों लिया है। उनकी पोस्ट किसके नाम पर जलाएं दिए ऐसी प्रतिक्रिया है जो तर्कपूर्ण होते हुए भी मुझे बार बार तर्कहीन लगी।

उनकी पोस्ट पर मैं अपनी बात प्वाइंट्स में रखना चाहूंगी-

आपने अनुराग अन्वेषी जी की प्रतिक्रिया का जिक्र किया है जिसमें वह कहते हैं-

और अफसोस है कि मिनट भर का करतब दिखाने वाले ईश्वर (वैसे अबतक उसका कोई करतब देखा नहीं हूं, सिर्फ सुनता आया हूं दूसरों के मुंह से) के नाम पर ही दीये जलाए जाते हैं। आइए, आस्था और भरोसे के साथ हम इनसान बने रहने की कसम खाते हुए दिये जलाएं। -

तो मुझे ये बताइए, क्या पूरी सृष्टि अपने आप में ईश्वर का कोई करतब नहीं। असंख्य जीव जंतु पेड़ पौधे क्या सब कुछ एक करतब नहीं है?...और अगर यह करतब मैं और आप नहीं कर रहे हैं तो कौन कर रहा है? क्या वह कुदरत कर रही है? क्य़ा कुदरत का दूसरा नाम परमात्मा नहीं है! ( आप चाहें तो मत कहिए परमात्मा, कुदरत ही कह लीजिए, नाम में क्या रखा है) फिर इंसान बने रहने की कसम जिस आस्था के साथ हम खा रहे हैं, वह क्या ईश्वर पर आस्था नहीं है। आप कहेंगे ईश्वर पर नहीं वह खुद पर आस्था है। तो भई, मेरे अंदर आपके अंदर जो इंसानियत नाम का तत्व है, सत्व है, वह ईश्वर ही तो है। आप इसे इंसानियत कह लें, कुदरत कह लें या मैं उसे ईश्वर कह लूं...

दूसरा प्वाइंट-

आपने कहा- भरपूर रौशनी वाले उम्मीद के दीये के लिए उसे एक काल्पनिक ही सही, पर ईश्वर चाहिए। ऐसा ईश्वर जिसे इंसानी समाज का सशर्त नही, पूर्ण समर्पण चाहिए होता है। उसे यानी ईश्वर को इंसान का ऐसा मन -मस्तिष्क चाहिए जो सवाल न करता हो, तर्क न करता हो, संदेह न करता हो। जो बस इस बात को अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकार कर चुका हो कि ईश्वर जो करता है (और सब कुछ ईश्वर ही करता है ) वह अच्छा ही करता है।-

ये कौन सा 'घटिया चालबाज और कपटी' ईश्वर है जो व्यक्ति का ऐसा मन मस्तिष्क मांगे जो सवाल न करता हो, तर्क न करता हो, संदेह न करता हो! ये तो बेवकूफों की फौज खड़ी करने वाली बात हुई ! ईश्वर ने मुझे विवेक दिया है। बुद्वि दी है। तर्क शक्ति दी है। आस्था दी है। भरोसा दिया है। जब यह सब खुद परमात्मा ने दिया है तो वह इनके बिना मुझे कैसे अपने पास आने के लिए कह सकता है? ( आप कहेंगे कि यह सब ईश्वर ने नहीं दिया ये तो मैने खुद अर्जित किया है तो भई जो मैने इतनी मुश्किलों के साथ अर्जित किया है, उसके बिना जो मुझे स्वीकारे या बुलाए, मैं उसके प्रति कैसे समर्पित रह सकती हूं ? ) वह ईश्वर नहीं जो कहे कि मुझे अंध समर्पण चाहिए। ईश्वर ने दिमाग दिया है ताकि इसकी कसौटी पर कस कर , तमाम सवाल कर, हर शंका का समाधान करके, ईश्वर को 'स्वीकारा' जाए। जी हां, ईश्वर तो है। वो तो है ही। आप और मैं नहीं मानेंगे उसके होने को, तो भी वह तो है ही। क्योंकि, हमारे होने से वह नहीं है। उसके होने से हम हैं। इसलिए, हम उसे 'मानते' या 'नहीं मानते' नहीं है। बल्कि, उसे स्वीकारते हैं या अस्वीकारते हैं। जैसे सामने रखी रोटी है, तो है ही। अब या तो हाथ में ले कर मैं उसे स्वीकार लूं, या फिर अस्वीकार दूं हाथ से दूर सरका कर। हमारे छिटकाने से रोटी का क्या जाता है! उसका अस्तित्व मिटता थोड़े ही है।..

और कौन कहता है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है! जो यह कहते हैं वह असल में ईश्वर के साथ संबंध कायम ही नहीं कर पाए हैं। (और अफसोस कि मैजोरिटी इन्ही की है) दरअसल, थोड़ा सा सोचिए तो सही। गीता में कर्म की थ्योरी को सर्वोपरि रखा गया है। अच्छे कर्म का मीठा सा फल। बुरे कर्म का दुखदाई फल। किसी की मौत, किसी का एक्सिडेंट, किसी का तलाक, किसी की नौकरी छूटना आदि अच्छा तो होता नहीं है। किसी तरह से भी अच्छा नहीं होता। इसलिए जो होता है अच्छे के लिए होता है, थ्योरी ही गड़बड़ है। दरअसल,जो होता है कर्मों के फल के रूप में होता है। इसलिए ही होता है। वह अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। वरना ऐसा क्यों है कि एक ही मां के दो बेटे (एक सी परवरिश वाले) एक डॉन बनता है दूसरा पुलिस इंस्पेक्टर।

तीसरी बात-

आपने कहा- संदेश साफ़ है यह पूरी दुनिया ईश्वर की है, पत्ता भी खड़क रहा है तो उसकी मर्जी से खड़क रहा है।–

यह सचाई है। और, इस सचाई में कहीं भी अंध विश्वास नहीं है प्रणव जी। वरना ऐस ा क्यों होता है कि सूखा पत्ता ही खड़कता है और हरा पत्ता नहीं? क्यों गुलाब का रंग लाल है और गुलाबी भी पर नीला नहीं? किसने आपको संवेदनाएं दे दीं और किसी और को नहीं भी दीं? क्यों किया यह भेदभाव और क्यों सभी बच्चे पैदा होते ही एक से नहीं हैं? कौन है जो बॉयोलॉजी की सरंचना गड़ता है और कैमिस्ट्री के सूत्र तैयार करता है ? आप कहेंगे कि पानी ईश्वर का कोई वरदान नहीं ये तो पृथ्वी पर पाया जाना वाला पदार्थ है, जो असल में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना है और H2O नाम है इसका। तो बताइए, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन सही क्वांटिटी में मिलेंगे यह किसने तय किया...? सृष्टि की रचना के जिन नियमों को फिजिक्स, कैमसि्टी ने ढूंढ निकाला, वह किसने बनाए..? किसने तय किया कि समुद्र हमेशा लबालब रहेगा पर छलकेगा नहीं..etc.

चौथी बात-

आपने कहा- तो अब अगर आप उससे असंतुष्ट हैं तो यह या तो आपकी नासमझी है या फ़िर ईश्वर में आपके भरोसे की कमी। दोनों ही स्थितियों में दोष आपका है। -

ईश्वर से मैं तो महाअंतुष्ट हूं। मेरी तुकबंदी पढ़ें। ईश्वर से अंतुष्ट होना नासमझी नहीं है। कम से कम मेरा ऐसा मानना है। क्या आपको लगता है ईश्वर से अंतुष्ट होना नासमझी है, यदि हां तो मैं हैरान हूं aapki इस बात पर .... । और, ईश्वर से असंतुष्ट होना भरोसे की कमी कतई नहीं। भरोसा जहां होता है वहां क्या सवाल नहीं होते! क्या हम अपने रिश्ते भी ऐसे ही जीते हैं? क्या हम अपना हर काम सवालों के जवाब के तौर पर ही नहीं करते? और सिर्फ इसलिए कि भई ईश्वर तो सामजिक रिश्तों इंसानी रिश्तों से परे की चीज है, मैं उस से सवाल कैसे कर सकता हूं..यह सोच तो ईश्वर को दूर ले जाएगी हमसे. उसने ही बुद्वि दी है तो वह कहीं प्रयोग हो न हो कम से कम इंसान और ईश्वर के रिश्ते में तो हो ही....। और ईश्वर कोई तानाशाह नहीं जिससे सवाल जवाब आपत्ति शिकायत गिला न रखा जाए या न किया जाए...।

पांचवी बात-

भूल कर भी किसी बात पर सवाल मत करो, न ही संदेह करो। और उसके आदेश की अवज्ञा? ऐसा तो सोचो भी मत।-

ईश्वर कोई कानून नहीं है जो हमारे लिए बनाया गया है। इसलिए, मैं इस कानून को मानूं या अवज्ञा करूं, ये तो कोई बात नहीं। मैं नहीं जानती कि ईश्वर का कानून क्या है? कहां लिखा है किसके कान में फूंक गया है ईश्वर,.. मैं नहीं जानती। यदि आपको पता हो तो बताएं (कृपया पंडों की पोथियां मुझे यह कह कर न पकड़ाएं कि लोग कहते हैं इनमें ईश्वर ने अपना कानून लिखा है). वह कानून नहीं, आचार संहिताएं हो सकती हैं या फिर हो सकती हैं उच्च कोटि का साहित्य। इससे ज्यादा और कुछ नहीं।


छठी बात-

आपने कहा- हमारी यह मान्यता तो स्पष्ट हो ही जाती है कि ईश्वरीय व्यवस्था को पूर्णतया समर्पित, कमजोर बल्कि मानसिक और भावनात्मक तौर पर गुलाम इंसान ही भाते हैं।-

कोई भी व्यवस्था कमजोर लोगों के बलबूते नहीं चलती। पूर्णतया समर्पित, कमजोर बल्कि मानसिक और भावनात्मक तौर पर गुलाम इंसान के भरोसे तो भई बैलगाड़ी भी नहीं चलेगी! ईश्वर की 'सत्ता' चल रही है तो इसीलिए क्योंकि इसे पूर्णतया समर्पित, मजबूत (मानसिक और भावनात्मक तौर पर) इंसान ने स्वीकारा है। अगर ऐसा नहीं होता तो ईश्वर तो कब का 'ईश्वर' को प्यारा हो गया होता..!

सातंवी और अंतिम बात-

आपने कहा- -बस यही दोनों विकल्प हैं और इन्हीं दो में से कोई एक हमें चुनना है। धर्म और आस्था ने पहले से बता रखा है कि उसे कैसा इंसान चाहिए। तर्क ने भी पहले से बता रखा है कि वह कैसा इंसानी समाज चाहता है।-

यहां आपने दोनों चीजों को अळग कर दिया। धर्म और तर्क अलग नहीं हैं। धर्म ही कहता है कि तर्क करो। धर्म और आस्था ने जैसा इंसान चाहा है असल में वह वैसा ही इंसान है जैसा तर्क ने चाहा है। आप दोनों को अलग कैसे कर सकते हैं। तर्क भी ईश्वर का दिया (जीवन जीने का) हथियार है और आस्था भी। फर्क सिर्फ यह है कि (जो कि झगडे की मूल जड़ है ) कि अक्सर थक हार कर लोग खोखली उम्मीद (जिसे निराशा में हम लोग आस्था या विश्वास कह कर पुकारते हैं) को आगे रख देते हैं। तर्क को पलंग के नीचे सरका देते हैं, झूठी थाली सा। जबकि, तर्क के बाद जो आस्था पैदा होती है, वह ही स्थाई होती है। (धर्म से मेरा अभिप्राय कट्टर (आरएसएसवादी) व्याख्या से न लिया जाए कृपया..। ) जिन दो रास्तों की आप बात कर रहे हैं वे वाकई में एक ही रास्ते हैं। इंसानियत के साथ जीना धर्म के साथ जीना ही है। और, धर्म के साथ जीना यानी ईश्वर के साथ जीना है। इंसानियत जो मेरे आपके अंदर है। यानी, ईश्वर जो मेरे आपके अंदर है...।

इसलिए, यही कहा जा सकता है कि इंसानियत और ईश्वर का रास्ता एक ही है।

उम्मीद है मैं अपनी बात सही ढ़ंग से रख पाई हूं। ( फोटो साभार- गूगल)

Wednesday, September 2, 2009

बस बात- ३



life is just a hand away
death, too, is a hand away
in between
the happiness and despair-
I reside...

fake is what soul wore today
shadow is what I appear today
my face does not show in the mirror
have u seen it stolen somewhere..?

let me sink in the blues of life
let me try to hold the truth
let me be the human
let me feel the pain I created

I don’t want any mentor
any guide any philosopher
don’t expect don’t fulfill too
If it is life
let it be..
If it is path to death
let it be..
I want to feel it
how deathful life could be

let me be in between
the happiness and despair-
because, life is just a hand away
death, too, is a hand away

let life choose me
let death reject me..
till then
let me be in between
the happiness and despair.

Monday, August 17, 2009

आइए झांके गिरेबान में


फिल्म 'कमीने' पर कुछ भी नपे तुले सही सही शब्दों में कह पाना मुश्किल है। नो डाउट, फिल्म नॉट ईज़ी टू अंडरस्टैंड है। डिफिकल्ट है और सावधानी से देखने की चीज है। क्योंकि, यह ऐसे किसी भी फॉर्म्युले पर आधारित नहीं, जो बॉलिवुड में पहले भी आजमाया जा चुका है। इसलिए इसके किसी भी पिछले सीन से अगले सीन का 'आभास' आप नहीं ले सकते।

कलाकारों की बात करें तो शाहिद कपूर की अदाकारी मैच्योर हो चली है। शाहिद के समकालीन कथित स्टार्स शाहिद के कद के सामने छोटे होने लगे हैं। प्रियंका कहीं से भी फिल्म की हीरोइन- टाइप नहीं लगी हैं। यही प्रियंका चोपड़ा की सफलता है। वह वही लगी हैं जो किरदार वह निभा रही हैं। वह अच्छी एक्टिंग कर रही हैं ऐसा लगा ही नहीं, क्योंकि प्रियंका की ग्लैमरस (?)इमेज फिल्म को देखते में आंखों के सामने घूमती ही नहीं। बस वही किरदार हावी रहता है जो वह निभा रही हैं।

भोपे के रोल में अमोल गुप्ते की अदाकारी गजब है और... सार में कह दें तो हर किरदार की अदाकारी कॉम्पेक्ट है, बेहतरीन है। नुक्ताचीनी समीक्षक कर सकेंगे, अपन को तो बस भा गई है विशाल भारद्वाज की यह फिल्म। तेनजिंग नीमा, चंदन रॉय सान्याल और शिव सुब्रमण्यम ने अपने किरदार बेहतरीन तो निभाए ही हैं, यह भी संदेश दिया है कि नंबर वन टू थ्री की दौड़ से अलग 'एक्टर्स' की एक दुनिया है जहां अब रत्नों की संख्या बढ़ती जा रही है।

गुलजार का टाइटल सॉन्ग फिल्म के हर गीत पर भारी है। कभी हम कमीने निकले, कभी दूसरे कमीने...।

अगर आप यह फिल्म देखने के बारे में सोच रहे हैं तो एक राय आपको, कि इसे शुरू से अंत तक देखिए। इंटरमिशन में उठिए या फिर अपने माउस से पॉज़ बटन दबा कर उठिए। मेरी समझ में इस फिल्म को देखते समय आया मामूली इंटरप्शन भी फिल्म का मजा खराब कर देगा और तब अगले कुछ चंद लम्हों में आप महाबोर होने लगेंगे।

Saturday, August 15, 2009

पूछताछ


"नहीं..मैं शाकाहारी हूं
नहीं ऐसे ही हूं..
कोई खास वजह नहीं..
वैसे अंडे से मुझे खास परहेज नहीं

नहीं मैं ड्रग्स नहीं लेता
पर मैं शराब का शौकीन हूं
शराब अमरीकी हो तो ज्यादा भाती है..
नहीं अफगान मैं कभी गया नहीं..

दिवाली.. हां एक त्योहार है
पर मेरा खास प्रिय नहीं..
क्योंकि शोर शराबा मुझे पसंद नहीं
क्रिसमस नहीं मनाया कभी
मौका नहीं मिला कभी
नहीं क्रिसमस से मुझे कोई परहेज नहीं
क्यों हो आखिर?!....
दरअसल, वजह सिर्फ यह है
कि ईसाई मेरे इर्द गिर्द नहीं, बस इसलिए...

हां ईद तो मैं मनाता हूं।
मेरा प्रिय त्योहार है।
नहीं दिवाली खास प्रिय नहीं..
क्योंकि शोर शराबा नहीं झेल पाता मैं...
बस और कोई वजह नहीं
क्यों हो आखिर?!......
ईद अपेक्षाकृत शांत त्योहार है
नहीं ईद तो मैं मनाता हूं...
मेरा प्रिय त्योहार है..
बचपन से ही मनाता हूं

हां पासपोर्ट है मेरे पास
हां वोटरआईडी भी

स्कूलिंग मेरी अलीगढ़ से हुई
नहीं मदरसे से नहीं..
जामिया मिलिया इस्लामिया से ग्रेजुएशन की
नहीं उर्दू तो घर पर ही सीखी थी
अब्बा ने सिखाई थी
हां अब भी पढ़ लेता हूं..
पर...
नहीं जामिया नगर नहीं रहा कभी
पुराने दोस्तों से.. हां संपर्क में हूं
नहीं बस संपर्क में हूं..
नहीं बस ऐसे ही हूं..
नहीं वो साथ काम नहीं करते..
नहीं हम आगे साथ पढ़े नहीं..
नहीं वो घर पर नहीं आते जाते..
कुछ आते हैं
नहीं ऐसे ही आते हैं..
हम फेसबुक पर हैं
हां इसी नाम से हूं
नहीं छद्म नाम से नहीं हूं..
वो भी नहीं हैं
हां मेरे ही समुदाय से हैं
एक सिख भी है
सभी समुदाय से हैं
नहीं अपनी पहचान के साथ ही हैं...
वो करीबी दोस्त नहीं...
नहीं बाकियों के ज्यादा करीब हूं..
ऐसे ही

सर, एक बात बताऊं..
मेरी बेटी का नाम प्रताप दुबे की माता जी ने रखा है..

नहीं कभी यूनियन में नहीं रहा
हां यह तब मेरा रोलनंबर था...

वो तो मैं लाया नहीं..
सर..
कल जमा कर दूं?
ठीक है आप साथ चलिए..
ठीक है मैं कल आऊंगा..
नहीं.. भागूंगा कहां?
भागूंगा क्यों!?
भागूंगा नहीं, जरूर आऊंगा

सर, ये लीजिए..
यह मेडिकल सार्टिफिकेट है
मेरी दो आंखें हैं
मेरे दो कान हैं
और मैं इंसान हूं

मेरा नाम खान है
मैं मुसलमान हूं.."

(स्वतंत्रता दिवस पर मिली ये खबर बहुत बुरी है)
फोटो साभार- गूगल

Tuesday, August 11, 2009

अब धैर्य नहीं

उम्मीद, एक फुदकती चिड़िया

कौन साला इंतजार करे

कि वक्त आएगा और सब सुधर जाएगा
एक दिन वह बिना पिए घर जरुर आएगा
अपने सोते हुए बच्चों के सिर पर स्नेह से हाथ फिरा पाएगा
कहेगा, खाने को दो भूख लगी है
बिना उल्टी किए बिस्तर पर पसरेगा
और जूते उतार कर टीवी ऑन कर पाएगा
कि वक्त आएगा और सब सुधर जाएगा।

एक दिन नई वाली पड़ोसन भूल जाएगी पूछना
कि कौन कास्ट हो
वो आएगी, बैठेगी, और बतियाएगी
चीनी की कटोरी लेते में
यह नहीं भांपना चाहेगी
कि कौन कास्ट हो
वह जान जाएगी कौन कास्ट हूं
और फिर चीनी ले जाएगी
कि एक दिन चीनी की मिठास मेरी कास्ट पर भारी पड़ जाएगी

पर कौन साला इंतजार करे.................

Monday, August 10, 2009

बस बात- 2

आइए उम्मीद जगाएं

ईश्वर के नाम पर जलाएं कुछ दिए,
और इन दियों से असंख्य देहरी टिमटिमाने की आस बनाएं..
आइए उम्मीद जगाएं।
1 मिनट के करतब पर जो 10 हजार ले जाए, उसे थपथपाएं (!)
हजारों नट और सपेरे कहां गुमनाम हुए, क्यों न सवाल उठाएं
बस जो छा जाए, क्यों उसे ही सलाम बजाएं।
रिअल्टी शो की दुनिया में
न्याय नाम के हत्यारे को
क्यों न फांसी पर चढ़ाएं।

आइए कुछ मौतों की दुआएं मनाएं।

Friday, July 31, 2009

'मेरे सच' से किसी को मिर्ची लगती है तो लगे

दिक्कत समझ नहीं आ रही है। किसी के सच से किसी ऐसे इंसान को क्या दिक्कत हो सकती है
जिसका उस व्यक्ति और उस बोले गए सच से कोई लेना देना ही न हो ?

गांधी जी ने कहा था- सच खांडे की धार पर चलने के समान है। अगर ऐसा है , तो है। जिसको चलना है , वह चले। जिसे चलने में दिक्कत हो , वह न चले। या दिक्कत के बावजूद चले , यह भी उसकी मर्जी है। पैसे के लिए सच बोले या रुतबे के लिए सच बोले। ग्लैमर के लिए सच बोले या बदनाम हो कर नाम कमाने के लिए सच बोले। झूठ बोलना लालच हो सकता है , सच बोलना भी लालच होता है ? अगर ऐसा होता है , तो भी सच का सामने आना जरूरी है। इसके पीछे अगर बदनीयत है तो यह नीयत की खराबी हो सकती है , पर इससे सच का सामने आना रुकना नहीं चाहिए।

रिश्तों को दांव पर लगा कर सच बोले , अपनी साख को दांव पर लगा कर सच बोले या अपनी नौकरी और अपना करिअर दांव पर लगा कर सच बोले , क्या बोलने वाले व्यक्ति (जो कि छोटा बच्चा नहीं है) पर उसके बोले गए शब्दों की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए ? अगर होनी चाहिए तो फिर जो सच बोल रहा है , उसे उसके हाल पर छोड़ देने की जिम्मेदारी हमारी भी बनती है। खासतौर से जिस सच से मेरा कोई लेना-देना न हो , मुझे उस सच से क्यों दिक्कत हो ? वैसे आदर्श स्थिति तो यह होगी कि जिस सच से मुझे दिक्कत हो , मैं उसका भी सामना करूं। पर यदि मैं इस आदर्श स्थिति का सामना नहीं करना चाहती हूं तो भी कम से कम यह तो बनता ही है कि जिस सच से मेरा दूर दूर तक कोई नाता न हो , न ही होने वाला हो , मैं उस सच पर लगाम लगाने के यथासंभव उपाय न तलाशूं। टीवी पर आने वाले रिऐलिटी सो ‘ सच का सामना ’ को बैन करने की कोशिश के पीछे क्या लॉजिक है...यह समझ से परे है।

तर्क हैं कि ' यह ' भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। इससे रिश्तों में दरार आ रही है। इसमें निजी जीवन से जुड़े अंतरंग सवाल पूछे जा रहे हैं। आदि इत्यादि। अपनी पति के रहते किसी और से संबंध बनाने की इच्छा रखना यदि संस्कृति के खिलाफ नहीं है, तो इसे स्वीकार करना संस्कृति के खिलाफ कैसे हो गया ? और अगर यह इच्छा रखना संस्कृति के खिलाफ है , तो इस इच्छा के खिलाफ तो मैंने अब तक कोई आवाज नहीं सुनी। और , क्या अब हम और आप इच्छाओं को भी कोड ऑफ कंडक्ट के दायरे में लाएंगे ? शो में शामिल एक व्यक्ति से पूछा गया कि क्या आप जोरू के गुलाम है , समाज के आकाओं को इस पर भी आपत्ति हो गई। क्या हमारे समाज में कई बार कई पुरुषों को जोरू का गुलाम नहीं कहा जाता ? तो इसे टीवी पर स्वीकारने में क्या दिक्कत हो गई ? क्या यह वाकई संस्कृति की दुहाई का मामला है या इसके पीछे पितृसत्तात्मक सोच के धागे बारीकी और चतुराई से बुने गए हैं ?

' सच का सामना ' विवादों में है। पहले विनोद कांबली और सचिन तेंडुलकर की दोस्ती के टूटने या दरकने को ले कर था, अब हमारे प्रिय पूज्यनीय नेताओं को लगता है कि यह सीरियल बंद हो जाना चाहिए। राज्य सभा के सदस्यों का कहना है कि इस शो में भाग लेने वालों से उनके परिजनों की मौजूदगी में अश्लील सवाल पूछे जाते हैं, जो गलत है। सदस्यों ने एक स्वर से इस शो को फौरन बंद कराने की मांग की। लगे हाथों भारतीय समाज की छवि धूमिल करने वाले ' सास भी कभी बहू थी ' और ' बालिका वधू ' जैसे सीरियलों के प्रसारण पर भी रोक लगाने की मांग कर दी गई।

तालिबानी मांगों के इस जुनून में यह भी नहीं देखा गया कि जिस 'बालिका वधू' पर रोक लगाने की मांग वे कर रह हैं , वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा सीरियल है। सीरियल में प्रड्यूसर की ओर से किए गए ‘ कमर्शल समझौतों के बावजूद ’ सीरियल अपना मेसिज साफ साफ देता है। बाल विवाह का विरोध और विधवा पुनर्विवाह जैसे मसले इसमें गंभीरता से उठाए गए हैं। क्या इसे बैन करवाने की बात करना बेमानी नहीं है ?

सच का सामना का विरोध इसलिए भी किया जा रहा है क्योंकि इसमें अच्छी खासी रकम के लिए पर सच बोले जा रहे हैं। अब ये नेता बेचारे तो रकम के लिए ही झूठ बोलते आए हैं , इन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा है कि कोई यूं अपने परिवार की संसद में दुनिया भर के सामने पैसे के लिए सच भी बोल सकता है। दरअसल, बात यहां यह नहीं है कि किसी एक सच से मां, बेटी के सामने शर्मिंदा हो जाएगी , या पति का पत्नी से भरोसा उठ जाएगा , या किसी का राम जैसा पाक साफ चरित्र अचानक ही कृष्ण जैसे चरित्र के तौर पर सामने आ जाएगा या कोई बरसों पुरानी दोस्ती टूट जाएगी। कोई भी व्यक्ति (जो बहुत ही गरीब न हो या फिर उसे तुरंत लाखों रुपये की जरुरत न हो) केवल (केवल और केवल) मोटी रकम के लिए अपने सारे रिश्ते नाते , अपना करिअर दांव पर नहीं लगाएगा।

इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि शो में शामिल होने वाला व्यक्ति अपने परिवार के साथ वहां बैठता है यानी जिन रिश्तों को वह कथित तौर पर दांव पर लगा रहा है , उन लोगों का सपोर्ट उसके साथ है। हो सकता है , शो के अगले एपिसोड्स में सच बोलने के लिए बैठे व्यक्ति ने जीवन में कभी कोई छोटा या बड़ा गैर कानूनी काम किया हो , और इस सीरियल के हामीनामे के बाद उस पर एफआईआर ही दर्ज हो जाए। ऐसे में जो कुछ भी होगा , यह जिम्मेदारी उसकी अपनी होगी। उसका अपराध सामने आना समाज के लिए हितकर ही होगा। तो हमारे नेता लोग किस बात से डर रहे हैं ?

क्या आपत्ति करने वाले लोगों को इस बात से तकलीफ हो रही है कि भई कोई सच के नाम पर पैसा बना कर ले जा रहा है ? और वह भी ऐसे सचों का पुलिंदा खोलकर जिनमें से कई सच हमारे अपने भी हैं और हम उन्हें खोलने की हिम्मत नहीं रखते। क्या नेताओं को डर है कि कल को उनका पॉलीग्राफिक टेस्ट करवा कर उन्हें जनता की अदालत में खड़ा होने के लिए कहा जा सकता है ?

सच चाहे पैसे के नाम पर कबूला जाए तो भी उसका सामने आना गलत या बुरा नहीं है। हां , सच बोलना है या नहीं , यह अपनी अपनी मर्जी की बात हो सकती है। पर किसी के सच से जिन लोगों का कोई हित या अहित न जुड़ा हो , उन्हें इसके सामने आने या न आने से कोई दिक्कत क्यों हो! मेरा निजी तौर पर मानना है कि सच स्वीकारना इन-टॉक्सिकेशन है। कुछ बड़े सच अनकंफर्टेबल जरूर करते हैं पर फिर अपने कर्मों की स्वीकार्यता हर किसी के बस की बात भी नहीं। इसके लिए हिम्मत की जरूरत है।

मेरा मानना है कि सच हिम्मती की अदा है। अगर यह आपकी भी अदा है (या होती) तो इस बात की बेहद कम गुंजाइश थी कि इस पर रोक लगाने की बात की जाती। क्या यह सच नहीं है कि जहां सच से दूरी है , वहीं इसकी खिलाफत है ? आप मानें या न मानें , अपने भीतर इस सवाल का सच्चा जवाब चाहें तो छुपा लें सकते हैं , क्योंकि यहां सच बोलने के पैसे भी नहीं मिलेंगे।

Thursday, July 9, 2009

कलाकार से स्टार बनने तक

फिल्म न्यू यॉर्क देखिए।

जॉन अब्राहम की जिस्म के बाद की अच्छी एक्टिंग के कुछ दृश्यों के लिए नहीं। कटरीना कैफ की एक्टिंग की कोशिश के लिए भी नहीं। इरफान की मजेदार एक्टिंग के लिए भी नहीं।

फिल्म देखिए एक किरदार के लिए जिसका नाम है नवाबुद्दीन। यह किरदार जिसने निभाया है, मुझे उसका नाम नहीं मालूम। वह तीन दृश्यों में है। पहले दृश्य में क्लोज अप कैमरा सीक्वेंस में वह एफबीआई द्रारा उसके साथ की गई ज्यादतियों के बारे में कटरीना कैफ को बता रहा है। केवल चेहरा। काला चमकता और हर शब्द के हर अक्षर के साथ कांपता चेहरा। कांपते होंठों से बेहतरीन डॉयलॉग डिलीवरी वाकई नवाबुद्दीन के अभिनय की कारीगरी है। कुछ पलों में ही इस करेक्टर ने अपनी छाप छोड़ दीहै। दूसरे दृश्य में वह कटरीना के साथ कार में है जहां उसने अच्छा अभिनय किया है। तीसरे दृश्य में ब्रिटिश पुलिस ऑफिसर की हत्या के बाद आत्महत्या का दृश्य भी चंद पलों का ही है।

न्यू यॉर्क देख कर ऐसा महसूस होता है कि अक्सर स्टार कलाकार नहीं बन पाता। हर कलाकार भी स्टार नहीं बन पाता। पर, कभी कभी कोई कलाकार हर स्टार पर भारी पड़ता है। इस फिल्म में वह कलाकार है नवाबुद्दीन का अभिनय करने वाला अभिनेता।

Thursday, June 25, 2009

खेल खेल में





खेल खेल में अजब खेल कर जाता है आदमी,
खेल खेल में खेल बन जाता है आदमी।

खेल खेल में खेल सिर्फ खेला नहीं जाता,
खेल की किसी बात को झेला नहीं जाता।

खेल में जिंदगी खेलनुमा हो जाती है,
खेल में भूल कभी खाली नहीं जाती है।

खेल में खिलाड़ी छुपे हुए होते हैं,
खेल में दांव शतरंज से चालबाज होते हैं।

खेल वही असल है, जिसका कोई नाम नहीं होता।
इसलिए इस खेल में खुद को खो देता है आदमी।

आज जो खेल कर दांव जीत जाता है,
कल वही खिलाड़ी औंधे मुंह की खाता है।

यहां नहीं कभी खेल का अंत होता,
आदमी मर जाता है, पर खेल चलता जाता है।

खेल में खिलाड़ी का चेहरा नहीं होता,
यहां कोई टीम, कोई मोहरा नहीं होता।

यहां बस आदमी बस आदमी से खेलता है,
यहां कोई रेफरी कोई कोच नहीं होता।

खेल में इंसान और हैवान सब एक हैं,
खेल में मुखौटे कुछेक नहीं, अनेक हैं।

खेल से तंग आकर, खेल फिर खेलता है आदमी।
खेल में फिर खुद ही खेल बनता है आदमी।

खेल एक नाटक है, खेल एक सच्चाई भी।
खेल की हर शाम पर किताब लिखता है आदमी।

खेल में जो हारा हो, लाओ कोई आदमी।
खेल में जो हारता है, जीता नहीं आदमी।

खेल की अवधि, उम्र जितनी लंबी है।
इसलिए, मौत से पहले हारता नहीं आदमी।

लाओ कोई जिंदा शख्स, जो खेल कर हारा हो,
खेल जब तक चालू है, बस खिलाड़ी है हर आदमी।

Thursday, May 14, 2009

इतिश्री

...इस बीच श्रीलंका सरकार ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की अपील ठुकारते हुए तमिल विद्रोहियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई रोकने से इनकार कर दिया है..

यह खबर अभी अभी पढ़ी बीबीसीहिंदी पर। तो श्रीलंका सरकार ने विद्रोहियों के खिलाफ ताबड़तोड़ गोलीबारी का सिलसिला न रोकने का फैसला लिया है। सीधे कटु शब्दों में कहें तो सरकार ने हत्याओं का सिलसिला जारी रखने का फैसला लिया है। हत्याएं किनकी...? जो मर रहे हैं वे कौन हैं? जो आम लोग सरकार के नियंत्रण वाले एरिया में आने की कोशिश कर रहे थे, उनमें से भी कई या अधिकांश मारे गए। जो बचे उन्हें तमिल विद्रोही मार रहे हैं। लिट्टे के निशाने पर सरकार है और सरकार के निशाने पर लिट्टे। इन दोनों के बीच वे लोग हैं जो बस जीना चाहते हैं। दरअसल मैंने देखा है कि जो जीना भर चाहते हैं वे ही जी नहीं पाते हैं। जो मारने की तमन्नाएं और आरजूएं अपने इर्द गिर्द लपेटे सांय सांय पसरते चलते हैं वे ही जी पाते हैं। बस जीना भर चाह लेने वाले लोग हर देश हर काल में मरते ही हैं, अक्सर कुत्ते की मौत। श्रीलंका में किसका किसके खिलाफ संघर्ष है ये? क्या श्रीलंका सरकार यह मान कर बैठी है कि एक बार लिट्टे का 'सिर कुचल दिया जाएगा' तो वे दोबार सिर नहीं उठाएंगे? क्या यह खुद को दिया गया एक छलावा नहीं होता? क्या दबा कर आग को वाकई बुझाया जा सकता है? दबी चिंगारी मौका पड़ते ही जलजला नहीं लाएगी, कौन कह सकता है? फिर समाधान क्या है? यह अनवरत हिंसा...तो कतई नहीं।

सरकार नामक संस्था का हथियार उठाना क्या हमेशा सही होता है? सरकार के खिलाफ विद्रोह क्या हमेशा गलत होता है? क्या हिंसा कभी भी सही ठहराई जा सकती है? क्या हिंसा कोई समाधान है? जो मर रहे हैं, मेरे कुछ नहीं लगते। आपके भी नहीं लगते। पर क्या इतने भर से चुप रह जाना न्यायसंगत हो जाता है...? पर एक अच्छे इंसान की तरह मरने वालों(लिट्टे और सरकारी सेना के इंसानों) की आत्मा के लिए शांति मांग कर चलिए इतिश्री कर ली जाए...। सुबह काम पर जाना है।

Tuesday, May 5, 2009

बस बात-1





ईश्वर

तुम से अब प्यार नहीं रहा
और इसलिए तुमसे लाज शरम भी नहीं बची
डर तो तुमसे कभी लगा ही नहीं
पर अब तुमसे रिश्ता टूट सा रहा है

लग रहा है
तुम वाकई सर्वोपरि हो

इतने सर्वोपरि कि तुम तक संवेदनाएं पहुंचती ही नहीं
कि तुम आकाश नहीं हो जहां विज्ञान पहुंचे
न ही भाव हो कि पहुंचे किसी कवि की कल्पना
या किसी की आस्था

न ही कोई आवाज पहुंचे
न ही कोई आभास पहुंचे तुम तक

इतना दूर हो
इतने मायावी
कि तुम्हारा न होना जीवन में
ज्यादा फर्क पैदा नहीं करेगा...

यही समझ कर अब
तुमसे प्यार नहीं रहा
और इसलिए तुमसे लाज शरम भी नहीं बची
डर तो तुमसे कभी लगा ही नहीं
पर अब तुमसे रिश्ता टूट सा रहा है

अब तुम मेरे दायरे में नहीं रहे
और कौन जानें तुम्हारे दायरे के नियमकानून क्या हैं
और इन तमाम शक शुबहाओं के साथ
ईश्वर
तुम से अब प्यार नहीं रहा

और इसीलिए ईश्वर अब मैं सिर्फ मैं हो गई हूं

शायद एक व्यक्ति का मैं हो जाना सचमुच जरूरी है...
खड़े हो सकने के लिए कुछ आस्थाओं का टूट जाना जरूरी है।

Saturday, January 31, 2009

साक्षी



कविता मां के ब्लॉग से ली है। पंक्तियां कैसी सच्चाई बोल जाती हैं! मां का ब्लॉग यादों और अनुभवों का ऐसा पुलिंदा है जिसे कागज दर कागज अनुराग अन्वेषी ब्लॉग पर चढ़ा रहे हैं। ...एक अजन्मे सुख के लिए मरना नादानी है...


जिस अग्नि को साक्षी मान कर
शपथ लेते हैं लोग,
उस पर ठंडी राख की परतें
जम जाती हैं।
मन की गलियों में
भटकती हैं तृष्णाएं।
मगर इस अंधी दौड़ में
कोई पुरस्कार नहीं।

उम्र की ढलती चट्टान पर
सुनहरे केशों की माला
टूटती है।
आंखों का सन्नाटा
पर्वोल्लास का सुख
नहीं पहुंचाता।
मगर एक अजन्मे सुख के लिए
मरना नादानी है,
जिंदगी भंवर में उतरती
नाव की कहानी है।

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...