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Wednesday, May 20, 2020

'कोरोना के डर के बीच गर्भवती पत्नी को लेकर यहां वहां दौड़ता रहा, वे कई महिलाओं को दूर से ही भगा रहे थे'

कोरोना वायरस (Coronavirus) के संक्रमण काल में ऐसा लगता है जैसे सब रुक गया है. वे सभी जरूरी सेवाएं तक रुक गई हैं जिन्हें सरकार (Government) की ओर से चलते रहने की परमिशन (Permission) थी. हालत कुछ ऐसी है कि गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोग, बच्चे और बुजुर्ग हॉस्पिटलों में अपना इलाज (Treatment) तक नहीं करवा पा रहे हैं. एक इंजेक्शन (Injection) तक लगवाने के लिए किलोमीटर तक जाना पड़ रहा है. ओला-ऊबर (Ola-Uber) जैसी टैक्सियां चल नहीं रही हैं. ऐसे में जिनके पास अपना वाहन नहीं है, वह आम इंसान कहां जाए और कैसे अपना इलाज करवाए. ऐसी ही गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है गर्भवती महिलाओं (Pregnant Women) को. जिन क्लीनिकों में इलाज चल रहे थे, वे लॉकडाउन (Lockdown) के चलते बंद हैं. कोई डर से बंद हैं और कोई प्रिकॉशन (Precaution) के चलते. राजा अपनी पत्नी मीना कोटवाल को लेकर दो महीने से अधिक समय से काफी परेशान हैं. उनकी पत्नी का नौंवा महीना चल रहा है और यह खबर लिखते समय वह हॉस्पिटल में डिलीवरी के लिए एडमिट हुई हैं. राजा ने जो मुझे बताया, वह रौंगटे खड़े करने वाला था....

Meena Kotwal Covid 19 article by pooja prasad
मीना कोतवाल


क्लीनिक बंद हो गया और आज तक नहीं खुला
मेरी पत्नी गर्भवती हैं. इस समय उनका नौवां महीना चल रहा है. उन्हें कभी भी लेबर पेन हो सकता है. पहले महीने से ही हम लोग घर के पास में मनचंदा क्लीनिक से दिखवा रहे थे. 7 महीने तक तो देखा लेकिन 22 मार्च के बाद अचानक सबकुछ बंद हो गया. एसेंशियल सर्विस खुली रहने का निर्देश सरकार की ओर से था लेकिन यह क्लीनिक भी तभी से बंद हो गया और आज तक नहीं खुला. डॉक्टर से फोन पर बात होती रही लेकिन प्रेग्नेंसी में बिना देखे और जांच किए कैसे आखिरी के महीनों में इलाज चलाते... इस बीच एंटी-डी का इंजेक्शन भी लगना था और अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट कलेक्ट तक नहीं कर पाए.

पत्नी को एंटी-डी इंजेक्शन लगवाना था
हालांकि डॉक्टर की इस सारी चीजों में मैं कोई खास गलती नहीं मानता क्योंकि वह बुजुर्ग महिला हैं और सरकारी नियम कायदों के चलते ज्यादा प्रिकॉशन ले रही हैं. संभवत: इसी वजह से वह क्लीनिक नहीं खोल रही हैं. वह अच्छी गाइनोकॉलिजिस्ट हैं. आसपास की सभी गर्भवती महिलाएं वहां आती थीं. मेरी पत्नी का ब्लड ग्रुप ओ नेगेटिव है तो उन्हें एंटी-डी इंजेक्शन लगवाना था. यह इतना जरूरी है कि यदि यह नहीं लगवाया तो सेकंड टाइम कंसीव करने के दौरान मिसकैरेज की आशंका ज्यादा हो जाती है. ऐसे में जब क्लिनिक बंद था तो डॉक्टर की सलाह पर हम विनया भवन मैटिरनिटी हॉस्पिटल गए. यहां से हमने वह इंजेक्शन लगवाया. इस सबमें काफी भागदौड़ करनी पड़ रही थी.

डॉक्टर से फोन पर ही संपर्क में रह पाए
पत्नी को लेकर पैदल यहां वहां भागना पड़ रहा था और वह भी आखिरी समय में जब किसी भी वक्त डॉक्टरी असिस्टेंस की जरूरत पड़ सकती है. लॉकडाउन के इस पूरे टाइम में हम डॉक्टर से फोन पर ही संपर्क में रह पाए. इस बीच उन्होंने कैल्शियम और आयरन की गोलियां खाने की सलाह दी. हमें सरकारी हॉस्पिटल ले जाने में भी कोरोना के चलते डर लग रहा था. सवा आठ महीने पूरे होने के बाद हमने दूसरे हॉस्पिटल में दिखाने की सोची क्योंकि समय बीतता जा रहा था. लोधी रोड पर स्थित चरक पालिका मैटरिनिटी हॉस्पिटल में भी काफी बुरा व्यवहार रहा. इन्होंने इमरेंजसी में भी मेरी पत्नी को नहीं देखा जबकि मेरी पत्नी दर्द से कराह रही थी. बार बार कहते रहे कि आप लोग बड़े हॉस्पिटल जाइए...

ओपीडी में काफी भीड़ थी और सब आपस में सटे खड़े थे
फिर पंडित मदन मोहन मालवीय हॉस्पिटल में जाना हमने चुना. मनचंदा क्लीनिक से एक ओर मेरी पड़ोसन इलाज करवा रही थीं, इन्हें भी हम साथ लेकर मालवीय हॉस्पिटल गए. आज से करीब दो हफ्ते पहले जब हम यहां पहुंचे तो यहां पर सोशल डिस्टेंसिंग एकदम फॉलो नहीं हो रहा था. महिलाओं की लंबी लाइन थी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. ओपीडी में काफी भीड़ थी और सब आपस में सटे खड़े हुए थे. सुरक्षाकर्मी ने बताया कि यहां कोविड के केसेस आ रहे हैं. भीड़ अधिक होने की वजह से लोग आसपास सटकर खड़े होने को मजबूर थे. हमने किसी तरह कोना खोजा और अलग अलग बैठ गए. दोपहर बाद जब हमारा नंबर आया तो डॉक्टर ने हमें न तो ढंग से चेक किया और न ही सही से बात की.

डॉक्टरों ने बुरा व्यवहार किया
आठवां महीना जिस महिला का लगा था, जो हमारे साथ गई थीं, उन्हें दूर दूर से देखा और बस बोला कि अभी तुम्हारा टाइम नहीं है और एक महीने बाद आना. काफी बुरा व्यवहार किया हमारे साथ.  दूसरे लोगों को भी डांट रहे थे और बीमार और जरूरतमंद लोगों के साथ ऐसा गंदा व्यवहार किया जा रहा था. एक गर्भवती महिला के पेट में दर्द था और उन्हें यहां के डॉक्टरों ने बाकायदा भगा दिया. हमारे पास मौजूद डॉक्युमेंट्स भी जल्दी जल्दी देखे और दवाएं लिख दी गईं. कुछ टेस्ट बोले जिन्हें करवाकर जब हम अगली बार गए तो जिस डॉक्टर ने देखा, वह बोलीं कि यहां न आइए.

मालवीय नगर मेट्रो के पास रेनबो हॉस्पिटल
दो तीन लोग एक बेड पर हैं. बच्चे का इम्युन सिस्टम वीक हो जाएगा. अगर आप अफोर्ड कर सकते हैं तो अच्छा तो यह होगा कि आप किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में डिलीवरी करवाएं. हमें सलाह सफरदरजंग हॉस्पिटल की भी दी गई लेकिन हम इसलिए नहीं गए क्योंकि वहां कोरोना के केसेस बहुत अधिक थे. हमने सुना था कि वहां बेड भी परमानेंट बेसिस पर मिलता नहीं है. अब हम मालवीय नगर मेट्रो के पास रेनबो हॉस्पिटल में दिखा रहे हैं. यहां डिलिवरी ही होती है और बच्चों का ही इलाज होता है. अब हम यहीं दिखा रहे हैं और आगे का पूरा प्रोसेस यहीं करवाएंगे. क्योंकि, यहां सफाई भी है और लग रहा है कि सब ठीक रहेगा.

(19 मई को Hindi News18 (network 18) में पब्लिश मेरा आर्टिकल)

Wednesday, May 13, 2020

कविता: उफ्फ ये औरतें...

Pooja Prasad Poems

बहुत प्यार आता है हर उस औरत पर
जो आवाज ऊंची कर
डबल विनम्रता से
शुद्ध मर्दों के घेरे में
घुसेड़ने की कोशिश करती है
बस अपनी थोड़ी सी बात
बस अपनी थोड़ी सी चिंता
बस अपनी थोड़ी सी जानकारी

प्यार तो उस पर भी आता है
जो चुनती है खामोशी
रखती है सिर ऊंचा
और नाक ज़रा ज्यादा ही पैनी
मगर रहती है चुप
करती है केवल खुद पर विश्वास
और करती है खारिज स्साला सारे ढकोसले
दरअसल कभी पढ़ा था उसने
'मेरी पीठ पर सिर्फ मेरा ही हाथ है....'

औरतों की दुनिया की बातें जब होती हैं
मर्दों की दुनिया मचल मचल उठती है
जैसे कोई फेवरिट डिश
सामने आ पटकी हो
जैसे कोई बचपन की शरारत
बुढ़ापे में जीनी शुरू कर दी हो
बदलता तो वक्त है
बदलते नहीं हैं लोग
जहां होते हैं दलदल
वहां रहते ही हैं दलदल
साल दर साल
दशक दर दशक

मैं इंतजार करती हूं
जल्द से जल्द पीढ़ियां बदलने का
जल्द से जल्द जरूरत हो खतम
इन औरतों से एकस्ट्रा प्यार जताने की
जल्द से जल्द जरूरत हो खतम
ऐसी खामोशी और ऐसी डबल विनम्रता की.

Tuesday, May 12, 2020

कुंभ से लेकर कोरोना काल तक जनसेवा में जुटी हुईं PCS ऋतु सुहास (Ritu Suhas)

कोरोना काल (covid19) कोई आसान समय नहीं है. दुनिया के किसी भी शख्स के लिए यह अनिश्चितकालीन युद्ध का एक दौर है. और, इस बार यह युद्ध है भी तो एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ, जो अदृश्य है. इस युद्ध में यूं तो हर कोई निजी स्तर पर योद्धा है, लेकिन कुछ योद्धा ऐसे हैं जो अपने खुद की जान और स्वास्थ्य की परवाह किए बगैर जनता की सेवा में लगे हुए हैं. जरूरी सेवाओं में लगे हुए देश के सरकारी और गैरसरकारी अफसरों को हमारा सैल्यूट है. हम पिछले कुछ दिनों से आपको 10 मई को होने वाले मदर्स डे के मौके पर ऐसी मांओं से अवगत करवा रहे हैं जो लगातार जनता के बीच रहकर जनहित के कार्य कर रही हैं. परिवार, बच्चों और खुद को प्रायॉरिटी लिस्ट में जनसेवा के बाद रखना वाकई दिलेरी का काम है. आइए आज हम आपको मिलवाएं 2004 बैच की पीसीएस अधिकारी ऋतु सुहास (Ritu Suhas) जो लखनऊ डेवलपमेंट अथॉरिटी में सेक्रेट्री के पद पर कार्यरत हैं और दो बच्चों की मां भी हैं.

covid 19 ritu suhas article by pooja prasad


लखनऊ में सैनिटाइजेशन से लेकर लंच बनवाने, पैक करवाने और बंटवाने का बीड़ा उठाए हुए हैं ऋतु. कहती हैं, कोरोना क्राइसिस में काम ज्यादा है लेकिन यही तो समय है जब पब्लिक की हमसे उम्मीदें ज्यादा होती हैं और हमें अपना काम और अच्छे से करना होता है. बाकी वर्क प्रोफाइल ऐसा है कि कभी प्रशासनिक कार्य करना है तो कभी लॉ एनफोर्समेंट का. कहती हैं, पिछले महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद में म्यूनिसिपिल डिपार्टमेंट में पोस्टेड थीं तो करोड़ों लोगों के लिए हाइजीन की व्यवस्था करना काफी मुश्किल काम था लेकिन हमने ये किया और अच्छे से कर पाए.

बता दें कि ऋतु सुहास पिछले साल की मिसेज 2019 भी रह चुकी हैं. सुहास की पहली पोस्टिंग मथुरा में एसडीएम के पद पर हुई थी. इसके बाद वे जौनपुर, आगरा, सोनभद्र जैसी कई जगहों पर तैनात रहीं. अपने कार्यकाल में उन्होंने पद पर रहते हुए गर्भवती महिलाओं के लिए मोबाइल ऐप्लिकेशनन 'प्रेग्नेंसी का दर्पण', बच्चों के लिए मोबाइल ऐप 'कुपोषण का दर्पण' और शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों के लिए 'बूथ दोस्त' नामक ऐप भी बनाईं जिन्हें बाद में सरकार ने ही इसे टेक ओवर कर लिया था.

covid 19 ritu suhas article by pooja prasad


पुरुषों पर सिर्फ कमाने का प्रेशर, औरतों करती हैं मल्टीटास्किंग

मां का रोल इस बड़े जिम्मेदार पद पर रहते हुए कैसे कर पाती हैं, पर बोलीं, भारतीय महिलाएं मल्टीटास्किंग करती हैं और वाकई वे सैल्यूट के काबिल हैं क्योंकि वे हमेशा ही सुपरवीमन के तौर पर काम करती देखी गई हैं. हम देखते हैं कि इस समाज और देश में कभी भी पुरुषों पर इस तरह का कोई खास प्रेशर नहीं रहा और आज भी नहीं है. उन पर केवल कमाने का प्रेशर है. औरतें चूंकि कई तरह के प्रेशर एक साथ हैंडल करती ही हैं तो वह टाइम मैनेजमेंट भी पुरुषों के मुकाबले बहुत बेहतर तरीके से कर पाती हैं. सुहास कहती हैं कि आप देखिए न कि कैसे औरतें घर में ही ब्यूटीपॉर्लर भी खोले हुए हैं और बच्चों को भी पालती हैं, परिवार और घर के सारे काम भी करती हैं.

वर्किंग मांओं के लिए निजी अनुभव से कुछ सुझाव...

सुहास कहती हैं कि न सिर्फ वह बल्कि हम औरतें अपनी प्रॉयरिटी के हिसाब से काम करती हैं. टाइम वेस्ट नहीं करती हैं जैसे कि मैं खुद टीवी नहीं देखती. बच्चों को टाइम देती हैं. वह कहती हैं कि बच्चों को क्वालिटी टाइम देना चाहिए. कोशिश करें कि जैसे ही मौका मिले, खेलें उनके साथ. अपने निजी अनुभव और तौर तरीके शेयर करते हुए सुहास बताती हैं, सोने से पहले रोज एक गाना सुनाती हूं मैं अपने बच्चों को आजकल... वे बहुत एन्जॉय करते हैं इसे. बच्चों को बेडटाइम पर साथ देना चाहिए. आपको खुद भी अच्छा महसूस होगा.

covid 19 ritu suhas article by pooja prasad
रितु सुहास


कहती हैं कि मेरे दो बच्चे हैं. पहले सोचती थी कि एक बच्चा ही पैदा करूंगी ताकि जॉब के साथ- साथ उसे अच्छे से बेहतर विकास के मौके और परवरिश दे पाऊं. लेकिन फिर मुझे लगा कि वह एकदम अकेला न रह जाए कहीं... उसके साथ बहन या भाई होगा तो उसके पास एक साथ होगा. इसलिए दूसरे बेबी का प्लान किया. बच्चे को पैदा करना बड़ा काम नहीं, उसे ढंग से पालना बड़ी जिम्मेदारी है.


Friday, May 8, 2020

कोरोना वॉरियर (corona warrier): उत्तर प्रदेश के हापुड़ की डीएम अदिति सिंह हैं पावरहाउस!

कोरोना का संक्रमण काल (Coronavirus Outbrek) पूरी कायनात पर भारी है. ऐसे में वे कोरोना वॉरियर्स (Corona Warriors) सैल्यूट के साथ हमारे शुक्रिया के हकदार हैं जो अपने घर, अपना स्वास्थ्य और अपना चैन दांव पर लगाए इंसानी सेवा में जुटे हुए हैं. उसमें भी दीगर योगदान उन महिलाओं का है, जो न सिर्फ वर्किंग हैं बल्कि आज के इस माहौल में तिगुनी गति से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रही हैं. ऐसी महिलाएं अपने परिवार, अपने बच्चे और खुद को कितनी मुश्किल से 'मैनेज' करती होंगी, यह सोचकर ही सिहरन होती है! सरकारी प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मेडिकल लाइन की महिलाएं, सफाई कर्मचारियों से लेकर अन्य सभी जरूरी सेवाओं में कार्यरत ये औरतें सुपरवीमन नहीं, सुपरह्यूमन हैं.

IAS officer aditi singh hapur dm
aditi singh hapur


मदर्स डे स्पेशल (Mother's Day Special) सीरीज में हम आपके लिए आज लाए हैं ऐसी ही एक मां के मन की बात, जो एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में हैं और एक छोटी सी बच्ची की मां भी हैं. यूपी के हापुड़ में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (डीएम) के पद पर कार्यरत अदिति सिंह अपने आप में एक पावरहाउस हैं. पिछले ही महीने हापुड़ की ओर कूच करने वाले दिल्ली से चले लोगों के एक विशाल समूह को वक्त रहते अदिति सिंह की ही टीम ने आइडेंटिफाई किया और क्वारंटाइन किया. केस न बढ़ें. इसके लिए तुरत-फुरत कार्रवाई करके हॉटस्पॉट चिन्हित किए गए और जरुरतानुसार लोगों को होमक्वारंटाइन भी किया गया. अफवाहों को रोकने से लेकर लोगों को जागरूक मुहैया कराने तक का काम करवाया गया.

मूल रूप से बस्ती की रहने वाली अदिति सिंह 2009 बैच की आईएएस अधिकारी ( IAS Officer Aditi Singh, Batch-2009) हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी की गोल्ड मेडलिस्ट अदिति कहती हैं कि घर और काम के घंटों के बीच तालमेल बिठाना असल चुनौती है. लेकिन, इस चुनौती को वह दिन-ब-दिन बेहतर तरीके से हैंडल कर पा रही हैं. कहती हैं, उनकी एक बेटी है और वह शुरू से ही मां के काम को लेकर एक गजब तरीके से अंडरस्टैंडिग थी. धीरे धीरे उसने मेरी प्रफेशनल कमिटमेंट्स के साथ तालमेल बिठा लिया और ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसके चलते मेरे अपने कार्य के प्रति समर्पण में कोई दिक्कत आई हो.

हालांकि चैलेंजेस तो होते ही हैं. हर उस मां के, जो बच्चा घर में पीछे छोड़कर आती है. ऐसे में परिवार का एक सपोर्ट सिस्टम ही महिलाओं के लिए मजबूत ढाल बनता है. जब अदिति से इस सपोर्ट सिस्टम की मौजूदगी या गैर मौजूदगी के बारे में पूछा तो वह बोलीं, मेरी मां का सपोर्ट मेरे लिए बहुत मायने रखता है. उन्होंने हर तरह से मुझे सपोर्ट किया और जहां -जहां जरूरत पड़ी, वहां डांटकर सही भी किया. अदिति बताती हैं कि उनकी मां हमेशा चाहती थीं कि उनकी बेटी आईएएस अफसर बनकर समाज सेवा करे. अदित कहती हैं कि सबसे बड़ा अफसोस यही होता है कि वह अपनी बेटी की पढ़ाई-लिखाई के लिए खुद से उतना समय नहीं दे पातीं, जितना कि उनकी मां उनके लिए दिया करती थीं. हालांकि बच्ची की खुशियों, उसकी जरूरतों और उसके स्वास्थ्य से जुड़े किसी भी मोर्चे पर वह खुद अडिग रहती हैं और कोई समझौता नहीं करतीं हैं.

जब मैंने पूछा कि समाज और पुरुषों (घर के पुरुष और बाहर के, दोनों) से क्या उम्मीद करती हैं कि एक मां के लिए वह किस प्रकार सपोर्टिव हो सकते हैं, तो उन्होंने कहा, किसी भी बच्ची के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि उसके माता पिता का बिलीफ सिस्टम क्या है. यानी, क्या वह बेटी को भी बेटे के बराबर ही आगे बढ़ने और समझने-समझाने के समान मौके मुहैया करवाते हैं या नहीं. बात सिर्फ यही नहीं होती कि बच्ची को मानसिक तौर पर मजबूत बनाया जाए और अपने पैरों पर खड़े होने का मौका दिया जाए, बल्कि यह भी जरूरी है कि बेटों को यह सिखाया जाए कि वह घर, बाहर, स्कूल-कॉलेज में भी महिलाओं के साथ सम्मान से पेश आएं. अदिति ने लड़कों की परवरिश की री-कंडीशनिंग पर जोर दिया.


IAS officer aditi singh hapur dm


मदर्स डे भले ही एक बहाना भर हो एक सफल करियर वीमन और एक मां से बातचीत करने का लेकिन उनसे प्रेरणा लेना अन्य महिलाओं के लिए लाभदायक ही साबित होगा. जब हमने पूछा कि नौकरीपेशा या बिजनेस कर रही मांओं के लिए कोई संदेश देना चाहेंगी, तो उन्होंने कहा- जो रास्ता आपने चुना है, हो सकता है शुरू में वह कठिनाइयों से भरा हो लेकिन कभी गिव-अप न करें. अपने खुद के स्वास्थ्य और जरूरत को अनदेखा करना भी कतई सही नहीं होता. इसलिए अपना ध्यान रखें. आप ठीक होंगी, स्वस्थ्य होंगी, तभी आप अपना काम सही से कर पाएंगी और परिवार की देख-रेख भी अच्छे से कर पाएंगी. ​


(6 मई को News18 Hindi में प्रकाशित मेरा आर्टिकल)

Tuesday, April 28, 2020

सालों से चौराहे पर काल से टक्कर लेती एक मां 62 साल की डोरिस फ्रांसिस (Dorris Francis)

जिंदगी इम्तहान लेती है... और जब वह परीक्षा लेती है तब हमारे पास इस परीक्षा में न बैठने का विकल्प ही नहीं होता. नतीजा, हम तय नहीं करते लेकिन नतीजे के बाद जो रास्ता हमें अख्तियार करना होता है, वह हम ही तय करते हैं. किस रास्ते पर चलना है और कब तक चलना है, दुखद नतीजे के सामने हथियार डालने हैं या फिर दूसरों के लिए मिसाल बनना है, यह हम ही तय करते हैं. आज से 10 साल पहले डोरिस फ्रांसिस ने जिन्दगी की एक बाजी हारी भले ही लेकिन उसके बाद ऐसी मिसाल बन पड़ीं कि दूसरों की सांसों को बचाने का जिम्मा ले लिया. डोरिस फ्रांसिस वह जाना- माना नाम हैं जिन्होंने रोड ऐक्सिडेंट में बेटी खोई, कैंसर से लड़ाई लड़ी मगर अपने मिशन को जारी रखा.


An article by pooja prasad


NH9 पर ट्रैफिक संभालतीं डोरिस फ्रांसिस खोड़ा की रहने वाली हैं. अब तो उनकी पहचान ट्रैफिक कंट्रोलर के रूप में बन चुकी है. पहले लोग बात नहीं सुनते थे, मगर अब सम्मान देते हैं. 61 बरस की हो चुकी हैं डोरिस, पर जज्बा ऐसा कि कोई युवा भी इनके सामने खुद को बुजुर्ग महसूस करे. पर खास बात यह कि वे ट्रैफिक की विभागीय कर्मचारी नहीं हैं. जो कर रही हैं स्वतः स्फूर्त और पूरी तरह से अवैतनिक है! बस, यहीं पर सवाल मन में उठता है कि ऐसा क्यों? इस सवाल का जवाब तलाशने में एक हादसे की बेहद मार्मिक कहानी सामने आती है.

2009 के नवंबर का महीना था वह. डोरिस की 21 बरस की बेटी निकी फेफड़े की बीमारी से जूझ रही थी. वह कहती हैं- उसे एक हॉस्पिटल से दूसरे हॉस्पिटल ले जाना था. हम सब ऑटो में बैठे थे. इसी दौरान गाजियाबाद से आ रही वैगनआर ने हमारी ऑटो को टक्कर मार दी. हम तीनों बुरी तरह जख्मी हो गए. लोगों ने हमें अस्पताल पहुंचाया. वहां से तीनों को अलग-अलग हॉस्पिटल में रेफर किया गया. बेटी गिरी तो फेफड़े फट गए थे. ऑटो चालक भी घायल हुआ. मुझे जब तीन दिन बाद होश आया तो फटाफट उस हॉस्पिटल के लिए भागी जहां बेटी ऐडमिट थी... जुलाई 2010 में बेटी ने मौत के सामने हथियार डाल दिया. चौराहे पर हुए एक्सिडेंट ने घर उजाड़ दिया था. ऐसा लगता था कि हम चौराहे पर आ चुके हैं. निराशा-क्षोभ, उदासी-दुख सब हम पर हावी होते जा रहे थे. तभी हम पति-पत्नी ने निर्णय किया कि अब हम इस चौराहे पर किसी को ऐसी दुर्घटना से मरने नहीं देंगे. हम दोनों ऐक्टिव हुए. दोनों ने समय बांटा और यहां ट्रैफिक नियंत्रित करने लगे. 2016 में कैंसर हो गया... मैं यही सोचती कि इस चौराहे पर अब ऐक्सिडेंट्स को कौन रोकेगा... तब मीडिया ने मदद की. एक कैंपेन चलाया. लोगों से मदद मिलनी शुरू हो गई. सीएम अखिलेश यादव की ओर से भी मदद मिली. दिल्ली पुलिस और यूपी पुलिसवालों ने मदद मिली. इलाज हुआ और आज ठीक हूं. उसी चौराहे पर मुस्तैदी से खड़ी हूं. एक ही धुन है...बस, औरों की जान बचानी है. अपनी परवाह नहीं.

कितना वक्त देती हैं इस सेवा के लिए, पूछने पर डोरिस कहती हैं- अभी सुबह 7 बजे गई थी 11 बजे लौटी हूं. सड़क दुर्घटनाएं कम हों इसके लिए क्या चाहती हैं आप? इस सवाल पर डोरिस कहती हैं - सरकार से गुजारिश है कि दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए गंभीर कदम उठाए सरकार. ट्रैफिक पुलिस और जागरूक हो. वह कई बार, बड़े बड़े अधिकारियों को रॉन्ग साइड से निकाल देती है, पर अक्सर आम आदमी फंसा रह जाता है. बीमार पेशेंट्स तक को नहीं बख्शते ये लोग.

An article by Pooja Prasad


डोरिस फ्रांसिस की शिकायत है, ‘हमने देखा कि चालान (Challan) गरीब आदमी पर मार है. अमीरों की बड़ी गाड़ियों को कोई नहीं रोकता-टोकता. 10 हजार की बाइक वाला मार खा रहा है. बात तो तब है जब ऑडी-मर्सिडीज वालों को भी पकड़ा जाए और चालान काटा जाए.'

पुराने दिनों को याद करते हुए वह कहती हैं कि जब हमने यह काम शुरू किया तब पब्लिक, नेता ने परेशान किया. उनका हमसे कहना था, 'ये सरकार का काम है... ये पुलिसवालों का काम है. मेरे बेटे को पिटवाया. लोगों ने मुझे पागल भी कहा लेकिन परवरदिगार का शुक्रिया कि आज लोग तहजीब से बात करते हैं. सिग्नल लाइट से ज्यादा मेरे हाथ के इशारे का इतंजार करते हैं. जब दो दिन नहीं दिखती तो लोग पूछते हैं कि क्या हुआ... लोग पानी पूछते हैं और पिलाते हैं. वे समझते हैं कि भलाई के लिए कर रहूं हूं ये काम मैं...'

अपने बचपन की ओर झांकते हुए कहती हैं वह कि पिता आर्मी में थे और जम्मू में पोस्टेड थे. लेकिन हालत ऐसे भी हो गए कि हम बच्चों को खाने के लाले पड़ गए. लोगों के घरों में पानी भरकर, झाड़ू पोंछा लगाकर चार पैसे कमाए. न सिर्फ अपना और भाई बहनों का पेट भरा बल्कि उन्हें पढ़ाया लिखाया भी. वह कहती हैं- कोठियों में मेड का काम किया और भाई बहनों को पढ़ाया-लिखाया. मैं पढ़ नहीं सकी... यहीं मैं मार खा गई.. लेकिन ईश्वर ने ऐसा दिमाग दिया कि मैंने बहुत कुछ सीखा... गाड़ी जब रूल तोड़कर भागती है तो नंबर नोट करती हूं.. आज पढ़ सकती हूं, लिख सकती हूं...

(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर पब्लिश्ड मेरा आर्टिकल)

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...