Tuesday, October 7, 2008

जो ज़रूरी




आंसू मोती कैसे?
आंसू कीमती क्योंकर?

कहती है मां
संभाल कर रखो इनको
विदाई पे काम आएंगे।
कह कर मुस्कुराती हैं वो
और रूला जाती हैं वों।

पर आंसू मोती कैसे?
आंसू कीमती क्योंकर?
यह समझ नहीं पाती मैं।

लगते नहीं अच्छे ये बहते हुए
अंदर रखो या सोख जाओ इन्हें
यूं बहाते नहीं इन्हें
बुरा होता है ये
-लोग कहते हैं

पर भीतर क्यों पालूं इन्हें
क्यों सहेजूं इन्हें
आंसू मोती कैसे?
अब भी नहीं समझी मैं।

सबसे खूबसूरत फूलों के चुभते कांटों जैसे
आते बाहर चाीखते से
करते हल्का मन को
बचाते देवता होने से

इनके होने और जब हों, तो बहने पे
क्यों लगाऊं लगाम?
आंसू मोती क्यों मानूं मैं?
नहीं समझ पा रही हूं मैं।

आंसू की कीमत उन्हें सहेजने में कहां!
उनके बह चुकने पे है
सारी मान्यताएं और शिक्षाएं अधूरी
बकवास ही हैं इस बाबत

आंसू नहीं मोती
न ही कीमती कहो इन्हें
कीमती तो खुशी है और संतोष भी
इसे पालो
सहेजो इसे

पर आंसू तो
एक प्रकृति प्रदत्त उपहार
इंसान को इंसान बनाए रखने के लिए...

8 comments:

Unknown said...

अरे वाह क्या बात है । भाव अभिव्यक्ति मन पंसद लगी। कितना कुछ कहा है इन मोतियों को या "आंसू" कहूँ इसे। कविता आपकी अतिसुन्दर है । मन हस्तप्रभ है। शुक्रिया जी ।

manvinder bhimber said...

आंसू नहीं मोती
न ही कीमती कहो इन्हें
कीमती तो खुशी है और संतोष भी
इसे पालो
सहेजो इसे

पर आंसू तो
एक प्रकृति प्रदत्त उपहार
इंसान को इंसान बनाए रखने के लिए...
bahut sunder

pranava priyadarshee said...

jaari rakhiye, likhana bhee aur dikhaana bhee, aapke shabdon men khun to bahaana bhee aur lutaan bhee.
sachmuch khoobsoorat bhaav hain, aur abhivyakti bhee.
pranava

Nikhil said...

plz visit
www.hindyugm.com

मयंक said...

आपको एक पिछली पोस्ट में दी गई कविता का पूर्ण संस्करण दे रहा हूँ ........ कविता जहाँ तक ज्ञात हुआ एक रेड इंडियन गीत का अनुवाद है .... एक वेबसाइट पर प्राप्त हुई .... अनुदित करने वाली कवियित्री हैं शायद अनामिका ..... यह एक अब तक प्राप्त जानकारी है .... किसी को और ज्यादा मालूम हो तो ज़रूर बताये .....पंक्तिया नायाब हैं .......

मरने की फुर्सत
(एक रेड इण्डियन लोकगीत के आधार पर पल्लवित)

ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह बरस की उमर से
उनको ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर!
वेथलेहम और यरूजलम के बीच
कठिन सफर में उनके
हो जाते कई तो बलात्कार
और उनके दुधमुँहे बच्चे
चालीस दिन और चालीस रातें
जब काटते सडक पर,
भूख से बिलबिलाकर मरते
एक-एक कर
ईसा को फुर्सत नहीं मिलती
सूली पर चढ जाने की भी।
मरने की फुर्सत भी
कहाँ मिली सीता को
लव-कुश के
तीरों के
लक्ष्य भेद तक?

neelima garg said...

nice poems...

neelima garg said...

nice poems...

Abhi said...

आंसू तो
एक प्रकृति प्रदत्त उपहार
इंसान को इंसान बनाए रखने के लिए...
Khub likha hai aapne. aapki pichli post bhi nayab thi. swagat apni virasat ko samarpit mere blogpar bhi.

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