
समय आ गया है जब आतंकवाद के मनोविज्ञान को समझा जाए। आतंकवादियों की चालों को नाकामयाब करते हुए ही यह काम करना होगा। आतंकवाद से लड़ने के लिए केवल हथियार उठाने की और चलाने की जरूरत है, ऐसा भर नहीं है। और, यह हमें सर्वप्रथम मान लेना चाहिए और समझ लेना चाहिए।
सोंचें तो आतंकवाद की जड़ें कहां हैं? आतंकवाद को मुस्लिम आतंकवाद से अलग करके भी देखना होगा क्योंकि यह तो तय है कि आतंकवाद केवल इस्लाम मानने वालों का हथियार नहीं है। मुस्लिम आतंकवाद पुकार कर आतंकवाद को किसी एक धर्म या वर्ग या समुदाय विशेष के गांठ नहीं बांधा जा सकता। यह ऐसी इतिश्री करना होगा, जिसे अंतत: हमें ही भुगतना होगा।
नक्सलवाद क्या आतंकवाद का रूप नहीं! क्या देश के पूर्वोत्तर में असम, नगालैंड और मेघालय में जारी हिसंक अलगाववाद आतंकवाद ही नहीं! आतंकवाद से निपटना है तो एक साथ कई मोचोZं पर लड़ना होगा। व्यक्तिगत स्तर भीण्ण्ण्ण्ण्सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्तर पर भी। क्या आतंकवाद अपराध का घोरतम स्वरूप है? क्या अपराध सामाजिक समस्या नहीं? क्या आतंकवाद भी सामाजिक समस्या नहीं?
काफी हैरानी है कि इस बाबत सोचा विचारा नहीं जा रहा है। इस पर काम नहीं किया जा रहा है। आतंकवाद दोनों ओर से मारता है। इसके `अनुयायियों` को भी यह कम नहीं सताता होगा। इसके पीिड़तों को तो सताता ही है। फिर ...उपाय?
1 comment:
अच्छा विश्लेषण!
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