बात है अधूरी सी
रात है स्याह गहरी सी
पीछे कुछ छूटता नहीं
साथ कुछ भी चलता नहीं
खामोशी है पैनी सी
उंगलियों को कुरेदती सी
बेचैनी सागर की लहरों सी
खुद को पत्थरों से ठोकती सी
अजीब सी बेकरारी है
नहीं, प्रेम नहीं,
कोई और ही सी महामारी है
रोशनी है कहीं-कहीं कौंधती सी
आस पास को चीरती भेदती सी
और मैं सिमटती सी
तलाशती हूं ``क्या हूं मैं अब?``
रात है स्याह गहरी सी
पीछे कुछ छूटता नहीं
साथ कुछ भी चलता नहीं
खामोशी है पैनी सी
उंगलियों को कुरेदती सी
बेचैनी सागर की लहरों सी
खुद को पत्थरों से ठोकती सी
अजीब सी बेकरारी है
नहीं, प्रेम नहीं,
कोई और ही सी महामारी है
रोशनी है कहीं-कहीं कौंधती सी
आस पास को चीरती भेदती सी
और मैं सिमटती सी
तलाशती हूं ``क्या हूं मैं अब?``
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