Tuesday, March 11, 2014

'औरत ही औरत की दुश्मन होती है'

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A scene from Movie: A Separation
 

पोंछा लगाते हुए गीता अक्सर आंसू पोंछ रही होती थी। मैं पूछती तो अपनी सास को गाली देते हुए कहती, करमजली मरती भी नहीं... जीना दूभर कर रखा है.. बेटे पर चलती नहीं.. मेरे को पीटती है... मेरी बेटी को पीटती है.. किसी दिन धक्का दे दूंगी उसे मैं... दीदी मेरे खसम के सामने मुंह नहीं खोलती बेटा है न उसका.. पिए पड़ा रहता है पर चूं नहीं करती.. दीदी ये औरत जात ही औरत की दुश्मन होती है...

उसके आंसुओं का टपकना बहने में बदल जाता। मैं कुछ नहीं कह पाती थी। मां उसे संभालने का मोर्चा संभालतीं। औरत ही औरत की दुश्मन होती है.. यह बचपन से सुनती आ रही हूं। किशोरावस्था में गरमी की दोपहरियों में चुपके से गृहशोभा पढ़ती तो उसकी कहानियों में अक्सर यह जुमला लिखा होता। दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक टॉप कॉलेज में पढ़ाई के दौरान जब एक महिला प्रफेसर प्रमोशन की रेस में दूसरी महिला से बाजी मार ले गई, तब भी यही जुमला सुना। ऑफिसेस में भी कई बार यही सुना। बस स्टॉप और फूड कॉर्नर्स पर तफरी करते समूहों के बीच भी दो औरतों के बीच की दुश्मनी के लिए यही सुना। यहां तक कि आमिर खान ने जब रीना को तलाक देकर किरण राव से शादी करने का फैसला लिया तब भी यही सुना!

क्या वाकई औरत ही औरत की दुश्मन होती है? अगर आप भी इस सवाल के जवाब में मुस्कुराते हुए मन ही मन हां का बटन दबा रहे हैं तो जनाब जागिए। तस्वीर का जो रुख दिखाया जा रहा है और सालों साल प्रचारित किया गया है, असल में उसमें सचाई है ही नहीं। 

पितृसत्तात्मक शक्तियों ने बहुत बारीकी से समाज का ताना-बाना बुना है। इस बुनावट में इस बात का खास ख्याल रखा गया है कि लकड़ियों को कभी गठ्ठर में तब्दील न होने दिया जाए। वे गठ्ठर बन गईं तो भारी हो जाएंगी, संभालना। उनमें अपार शक्ति आ जाएगी, वह हक की मांग करने लगेंगी। इसलिए उन्हें बिखरी सूखी लकड़ियां ही बनी रहने दो। ऐसी ही कोशिशों के तहत धार्मिक दायरे बनाए गए, क्योंकि भाईचारा समाज के राजनीतिक आकाओं के लिए हानिकारक है। दलित जातियों के खेमे बनाए गए, ताकि कुछ मुठ्ठी भर समूहों (कथित तौर पर ऊंची जातियों) का वर्चस्व कायम रहे। और, ऐसी ही कोशिश के तहत महिलाओं को एक दूसरे के खिलाफ प्रचारित और तमाम तरीकों से एस्टेब्लिश किया जाने लगा, ताकि वे पुरुषों की उन ज्यादतियों पर ध्यान ही न दे सकें जिनके खिलाफ उन्हें लामबंद होना है। वे आपस में ही लड़-भिड़ मरें। वे एक दूसरे में अपना दुश्मन देखती-ढूंढती फिरें...

गौर से सोचिए, औरत औरत की दुश्मन है, यह कितना हास्यास्पद स्टेटमेंट है!! एक ही जेंडर के दो या दो से अधिक शख्स आखिर एक दूसरे के दुश्मन हो कैसे सकते हैं! उनकी शारीरिक बनावट एक जैसी है। उनकी मानसिक और मनोवैज्ञानिक सरंचना लगभग एक जैसी है। गर्भाधान, पीएमएस, पीरियड्स और हॉरमोनल बदलावों से उपजीं तकलीफों को वे सभी अपनी-अपनी उम्र में झेलती हैं। उनके डर एक से हैं.. कभी रेप का, कभी छेड़छाड़ का, कभी गंदी नजरों का, कभी नौकरी जाने का, कभी जीवनसाथी से सेपरेशन का, कभी घर की मेड के एकाएक छोड़ जाने का, कभी आर्थिक मोर्चे पर लुट-पिट जाने का, कभी छल लिए जाने का..यहां तक कि कभी ब्रा की स्ट्रेप के दिख जाने का भी। साझे दुख, साझी तकलीफें और साझी सी भावनाएं पालने वालीं महिलाएं एक दूसरे की दुश्मन कब से होने लगीं! होती ही नहीं। शुद्धरूप में देखें तो वह एक दूसरे की दुश्मन हो ही नहीं सकतीं।

सच तो यह है कि दुश्मनी एक ऐसी चीज है जो जेंडर, वर्ग, जाति, रंग भेद से ऊपर है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप औरत हैं या पुरुष और आपको जिससे दुश्मनी निभानी है, वह स्त्री है या पुरुष। हमारे लाभ के रास्ते में आने वाला हरेक शख्स हमारा दुश्मन है। उदाहरण के तौर पर कहूं तो, यदि स्टेक पर मेरी मेहनत लगी हो तो प्रमोशन मनमोहन को मिले या सुनीता को, क्या फर्क पड़ता है? यदि मुझे लगता है कि मैं प्रमोशन डिजर्व करती हूं तो मनमोहन की जगह कविता होगी, तो भी मैं वही चाहूंगी जो मैं मनमोहन के केस में चाहती। यदि दो पुरुष मेरे प्रतियोगी हों तो भी मैं उन्हें हराना ही चाहूंगी। क्योंकि, यहां बात एंड रिजल्ट की है, यानी इस बात की है कि मुझे चाहिए क्या? कुल मिलाकर बात हितों के टकराव की है। ऐसा ही घर परिवार में महिलाओं के आपसी झगड़ों में है।

घर में ननद और भाभी के बीच के टकराव को भी इसी स्टेटमेंट से 'जस्टिफाई' किया जाता रहा है। जबकि, सचाई यह है कि घर में दिनभर जब ननद और भाभी रह रही हैं तो जो टकराव होंगे और खींचातानी होगी, वह घर में ज्यादातर समय साथ रहने वाले दो या दो से अधिक शख्सों के बीच ही होगी। फिर चाहे वह भाई/पति को लेकर हो या किचन में प्रेशर कुकर की सीटी को लेकर। साथ ही, महिलाएं भावुक होती है। उनका मनोविज्ञान कुछ इस तरह का रचा हुआ है कि वह भावनात्मक जुड़ाव को बहुत आसानी से श्रग-ऑफ नहीं कर पातीं (अपवादों को कृपया यहां छोड़ दें)। ऐसे में बेटे के पत्नी की ओर झुकाव, को वे संभाल नहीं पातीं। इस संभाल की जिम्मेदारी वैसे तो बेटे को लेनी चाहिए लेकिन अमूमन पुरुष या तो ये जानते नहीं कि कैसे हैंडल करें या वे इस सब में पड़ना नहीं चाहते। आखिर समाज ने कभी किसी पुरुष को इस तरह के बैलेंस बनाने की कोशिश करने के लिए ट्रेन ही नहीं होने दिया। उसे घर का राजा बाबू बनाकर रखा गया और इसलिए वह किसी पचड़े में पड़ता नहीं। वह सास-बहू के झगड़े से परेशान हो जाता है तो दो पैग गटका लेता है। या पत्नी को लेकर अलग हो जाता है। हैरानी की बात यह है कि जब वह अपने माता-पिता से अलग होता है तब भी इसकी वजह उसकी पत्नी ही बता दी जाती है। यानी, एक पुरुष की घर के इनिशली चिरकुट झगड़े को संभाल न पाने की असफलता को चुपके से कालीन के नीचे खिसका दिया जाता है और वैंप बन कर उभार दी जाती है स्त्री (उस पुरुष की पत्नी)। यह कहते हुए कि मां को बेटे से अलग कर दिया क्योंकि... महिला ही महिला की दुश्मन होती है।

पिछले दिनों एक महाशय सोशल नेटवर्किंग साइट पर गरिया रहे थे कि कन्या भ्रूण हत्या में महिलाएं ज्यादा जिम्मेदार हैं, पुरुषों के बनिस्पत। उनका तर्क था कि महिलाएं ही कहती हैं उन्हें बेटा चाहिए। वे क्यों खुद ही जाकर हॉस्पिटल के बिस्तर पर लेट जाती हैं कि बेटी नहीं चाहिए, गिरा दो। इन महाशय पर तरस आया। लेकिन, इस लेख को पढ़ रहे कई लोग यह सोचते होंगे कि यह सही बात है। जबकि, सच यह है कि 2 या 3 बेटी जन चुकी महिला के शरीर का जब धड़कता हुआ एक हिस्सा अबॉर्शन के जरिए उसके शरीर से बाहर बहाया जा रहा होता है, तब उसकी आत्मा मर रही होती है। केवल नर्सिंग होम में बेंच पर बैठे ससुराल पक्ष के वे लोग मुस्कुरा रहे होते हैं जो इस अबॉर्शन के पीछे होते हैं। दिन रात के ताने और गालियां सुनने वाली एक औरत तमाम दिखे-अनदिखे दबावों के चलते ही यह फैसला लेती है।

क्या आपने टीवी की मशहूर सीरीज sex and the city देखी है? उसमें औरतों के बीच दोस्तियां किस तरह परवान चढ़ती हैं, यह देखिए। ऑस्कर से नवाजी जा चुकी A separation देखिए, कैसे घर की गर्भवती मेड के प्रति 'धक्के' का आरोप झेल रहे अपने पिता पर एक बेटी भावनात्मक दबाव डालती है कि वह खुदा को हाजिर नाजिर मानकर पुलिस के सामने सच स्वीकारे। डूबे उदास दिनों में, संघर्षों के दिनों में कितने ही पलों में दो लड़कियां-दो औरतें एक दूसरे से बहनापा निभाती हैं, प्रिय मर्दो यह सीखो।

मैंने कभी यह नहीं सुना कि दो भाइयों के बीच होने वाले संपत्ति विवाद के लिए कभी यह कहा गया हो कि पुरुष ही पुरुष का दुश्मन होता है। लगभग हर घर में पैतृक संपत्ति को लेकर विवाद होता ही है। तनातनी होती ही है। लेकिन इस विवाद और तनातनी (जो कई बार हत्या तक में बदल जाती है) को प्रॉपर्टी विवाद कह दिया जाता है। क्यों जनाब? एक बड़ा सच यह है कि विवाद और झगड़ा किसी वस्तु, भाव, संबंध या परिस्थितियों के चलते होता है, फिर वह चाहे दो औरतों के बीच हो या फिर दो पुरुषों के बीच। लेकिन, हम आंखें मूंद लेते हैं। सवाल नहीं करते। बने बनाए जुमलों को सदियों उछाले चलते हैं बिना यह सोचे कि इससे पीढ़ियों का नुकसान हो रहा है।

एक दूसरे की खुशियां आंखों में आंसू भरकर बांटती और एक दूसरे के दुखों पर आंसू बहातीं औरतों में मूल रूप से तो बहनापा ही होता है। ये दुश्मनी की बात तो महज कोहरा है। इसके पार जाकर देखिए।

Monday, March 10, 2014

Happy Journey Ahead

जब हम लिखना तय करते हैं तब हम, दरअसल, उड़ना तय करते हैं.

लिखने के लिए मुझे कभी तय नहीं करना पड़ना पड़ा. कोई प्लानिंग नहीं करनी पड़ी. लेकिन आज मैं तय कर रही हूं.

यह तय करना इसलिए पड़ रहा है कि मुझे एक बार फिर से उन आभासी आंखों से बातें करनी हैं, जिनसे मैं इस प्लैटफॉर्म पर लंबे समय से मुखातिब नहीं हूं.

तो ये जो नया नया सा तय कर रही हूं उसकी जरूरत इसलिए आन पड़ी कि मंजिलों तक पहुंचते रास्तों को तय करने में जो सड़क वाला रास्ता मैं पैदल तय कर रही थी, उसमें काफी मशगूल रही. पता ही नहीं चला कि यह जो सॉलिलक्वि होता है, ये जो वर्चुअल वर्ल्ड पर वर्चुअल सा बना रहना होता है, वह कब पीछे छूटता गया..

खैर, लब्बोलुआब यह है कि अब हम साथ हैं. :)

ये साथ बना रहे इसकी नियमित कोशिश रहेगी. ट्विटर के 140 अक्षरों के जमाने में पुराने ब्लॉग पर वापसी मुझे उम्मीद है, अच्छी रहेगी.

हैपी जर्नी अहेड
और, जैसा इस देश के ट्रक कहते हैं- फिर मिलेंगे
आज से अपना वादा रहा, हम मिलेंगे हर एक मोड़ पर

Sunday, March 2, 2014

ऐ लड़की, अपनी जात की औकात में रह

तुम जनरल कैटिगरी की एक सीट खराब कर रही हो... समझ क्यों नहीं आता तुम्हें... कोटे से क्यों नहीं भरा... कोटे वालों के बाद में होते हैं ऐडमिशन... हाऊ मैनी टाइम्स शुड आई रिपीट!!!... गो.. जस्ट गो..
बट मैम मेरा नाम मैरिट लिस्ट में है... मैं क्या करूंगी कोटे में जाकर... मैम मैंने कंपीट किया है.. मैं इस लिस्ट में हूं...

गो.. जस्ट गो..

एक दिन... और दूसरा दिन... दो दिन ऐसे ही बीत गए। गो.. जस्ट गो..।

Copyright: PoojaPrasad
मैं बताती रही कि मेरे अंक फर्स्ट रिलीज लिस्ट के मुताबिक हैं और मुझे रिजर्वेशन के तहत ऐडमिशन लेने की जरूरत नहीं है। मैं काबिल हूं और रिजर्वेशन उन लोगों के लिए हैं जो साधनों के अभाव में बेहतर शिक्षा व शैक्षणिक माहौल न पा सके और बेहतर मार्क्स नहीं ला पाए। मैं तो किसी तरह से भी रिजर्वेशन की हकदार नहीं! लेकिन वह नहीं मानीं। उन्होंने मुझे फर्स्ट लिस्ट में आने के बावजूद आम मैरिट लिस्ट के तहत ऐडमिशन नहीं दिया। क्लास रूम में घंटों बेंच पर बैठी रहती। उनकी एक नजर पड़ने और बुला लिए जाने का इंतजार करते हुए मैंने दो दिन काटे। गर्ल्स कॉलेज था सो पापा कॉलेज के बाहर घंटों मेरा इंतजार करते।

जब पहले दिन पहली बार मैम की झिड़की सुनकर आंसू बहाती हुई गेट के बाहर आई थी तो उन्होंने ही कहा- इसमें रोने का क्या है.. और वह खिलखिला दिए। उनकी खिलाखिलाहट ने विटामिन का सा काम किया कि- कास्ट बेस्ड बायसनेस पर रोने का क्या है! क्यों रोना! ऐसी-तैसी...

वह बोले- जा अंदर जाकर कोशिश करती रह। मैं कोशिश करती रही। झिड़कियां खाती रही। इंतजार करती रही। और वापस आती रही। मेरा वापस आना, मेरा हार जाना नहीं था। हां, मेरा फिर फिर वापस जाना, उनका फिर फिर हार जाना था। जितनी बार वह मेरा चेहरा देखतीं, कभी तरस खातीं, कभी अंग्रेजी में समझाने की कोशिश करतीं कि एससी-एसटी कोटे के तहत मेरा ऐडमिशन आराम से हो जाएगा, फिर मैंने क्यों जनरल कैटिगरी में ऐडमिशन लेने की जिद की हुई है।

फिर मैंने एक चाल चली। सोचा, सेकंड लिस्ट रिलीज होगी, तब आ जाऊंगी। इन्हें कौन सा याद रहेगा कि यह लड़की पहले भी आई थी। हो सकता है तब इस स्ट्रीम में ऐडमिशन की कार्यवाही से जुड़ा कोई और व्यक्ति बैठा हो और इनसे पाला पड़े ही नहीं। मैं मन ही मन अपने इस प्लान पर खुश थी।

'देखती हूं कैसे आम कैटिगरी में ऐडमिशन नहीं देंगे... मुझे करना क्या है कोटे-शोटे के चक्कर में पड़कर.. फर्स्ट क्लास मार्क्स आए हैं.. आगे कौन सा कोटे-शोटे का फायदा लेना है मैंने, हुअंअ.. पत्रकार बनना है, कौन सी सरकारी नौकरी करनी है.. माई फुट.. मैं तो लेके रहूंगी ऐडमिशन'

सेंकड लिस्ट आई। जिस रूम में प्रॉसिजर चल रहा था, वह वही पुराना रुम था जहां फर्स्ट लिस्ट वालों के ऐडमिशन हुए थे। मन में धक-धक हुई। ओह गॉड.. कहीं फिर से संगीता (नाम परवर्तित) मैम न हों..

मेरा नंबर आते ही वह बोल पड़ीं- तुम फिर आ गईं। गर्ल, वाय डोंट यू अंडरस्टैंड? अबकी बार वह बहस में भी नहीं पड़ीं। मेरे किसी सवाल, किसी चिरौरी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं। मेरी सारी प्लानिंग चौपट। वह मुझे पहचान चुकी थीं और मैं उन्हें पहचान चुकी थी।

यह एक मशहूर नैशनल यूनिवर्सिटी के वन ऑफ द बेस्ट कॉलेज के फर्स्ट ईयर ऐडमिशन प्रॉसिजर की कहानी है। मैं यह दृश्य कभी नहीं भूलती। जब भी रिजर्वेशन के खिलाफ लोगों को लामबंद होते देखती हूं, वे दिन याद आ जाते हैं।

वे दिन इसलिए याद नहीं आते कि मैं रिजर्वेशन के समर्थन में हूं। मुझे वह दर्द याद आता है कि किसी भी काबिल इंसान को महज इसलिए ऐडमिशन न दिया जाना क्योंकि वह फलां जाति का है, उस इंसान को कैसे भीतर तक तोड़ता होगा। मैंने जाटव जाति में पैदा होने के चलते यह भोगा है (अन्य मौकों पर भी), हो सकता है इस लेख को पढ़ रहे कई लोगों ने इस जाति में पैदा न होने के चलते यह जलालत भोगी हो...

उन मैडम का नाम यहां इसलिए नहीं दे रही हूं क्योंकि वह फर्स्ट और सेकंड ईयर में एक विषय विशेष में मेरी गुरु रहीं। (भले ही एक सबक मैंने भी उन्हें दिया ही।) पूरे दो साल नजरें चुराती रहीं। मुझे बुरा लगता। लेकिन कौन जाने, वह मेरे से नजर चुराती थीं या खुद से।

जनार्दन द्विवेदी ने उस दिन जाति आधारित आरक्षण को खत्म करने की बात कही और इस पर राजनीति होने लगी। इस बीच दलित ऐक्टिविस्ट चंद्रभान प्रसाद ने कहा था- मैं समझता हूं तीन पीढ़ियों तक यदि कोई आरक्षण का लाभ लेता है, तो इसके बाद उसे आरक्षण का लाभ लेना खुद ही बंद कर देना चाहिए। टीवी पर एक कार्यक्रम में बहस के दौरान एक अन्य ऐक्टिविस्ट ने कहा- आरक्षण लागू ही इसलिए किया गया कि इससे कुछ सालों बाद आरक्षण की जरूरत बंद हो जाए।

मैं सहमत हूं इन विद्वानों की बातों से पर ऊंची जाति के उन विद्वानों को कौन समझाएगा जो आरक्षण की ओर धकेलती हैं। उन हकीकतों का क्या जिन्हें आम लोग अपने जीवन में कोटे में होने या न होने के चलते झेलते हैं? वे भेदभाव जो गरीब कायस्थ भोगता है, वे भेदभाव जो साधन संपन्न दलित को भोगना पड़ता है। दशक भर बाद यह सच्ची कहानी मैंने आपको सुनाई है, उन अनगिनत कहानियों का क्या जो कभी सामने नहीं आती होंगी लेकिन भोगी जाती होंगी?

(नवभारत टाइम्स में शनिवार 1 मार्च 2014 को छपा मेरा यह लेख)

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...