दिक्कत समझ नहीं आ रही है। किसी के सच से किसी ऐसे इंसान को क्या दिक्कत हो सकती है
जिसका उस व्यक्ति और उस बोले गए सच से कोई लेना देना ही न हो ?
गांधी जी ने कहा था- सच खांडे की धार पर चलने के समान है। अगर ऐसा है , तो है। जिसको चलना है , वह चले। जिसे चलने में दिक्कत हो , वह न चले। या दिक्कत के बावजूद चले , यह भी उसकी मर्जी है। पैसे के लिए सच बोले या रुतबे के लिए सच बोले। ग्लैमर के लिए सच बोले या बदनाम हो कर नाम कमाने के लिए सच बोले। झूठ बोलना लालच हो सकता है , सच बोलना भी लालच होता है ? अगर ऐसा होता है , तो भी सच का सामने आना जरूरी है। इसके पीछे अगर बदनीयत है तो यह नीयत की खराबी हो सकती है , पर इससे सच का सामने आना रुकना नहीं चाहिए।
रिश्तों को दांव पर लगा कर सच बोले , अपनी साख को दांव पर लगा कर सच बोले या अपनी नौकरी और अपना करिअर दांव पर लगा कर सच बोले , क्या बोलने वाले व्यक्ति (जो कि छोटा बच्चा नहीं है) पर उसके बोले गए शब्दों की जिम्मेदारी नहीं होनी चाहिए ? अगर होनी चाहिए तो फिर जो सच बोल रहा है , उसे उसके हाल पर छोड़ देने की जिम्मेदारी हमारी भी बनती है। खासतौर से जिस सच से मेरा कोई लेना-देना न हो , मुझे उस सच से क्यों दिक्कत हो ? वैसे आदर्श स्थिति तो यह होगी कि जिस सच से मुझे दिक्कत हो , मैं उसका भी सामना करूं। पर यदि मैं इस आदर्श स्थिति का सामना नहीं करना चाहती हूं तो भी कम से कम यह तो बनता ही है कि जिस सच से मेरा दूर दूर तक कोई नाता न हो , न ही होने वाला हो , मैं उस सच पर लगाम लगाने के यथासंभव उपाय न तलाशूं। टीवी पर आने वाले रिऐलिटी सो ‘ सच का सामना ’ को बैन करने की कोशिश के पीछे क्या लॉजिक है...यह समझ से परे है।
तर्क हैं कि ' यह ' भारतीय संस्कृति के खिलाफ है। इससे रिश्तों में दरार आ रही है। इसमें निजी जीवन से जुड़े अंतरंग सवाल पूछे जा रहे हैं। आदि इत्यादि। अपनी पति के रहते किसी और से संबंध बनाने की इच्छा रखना यदि संस्कृति के खिलाफ नहीं है, तो इसे स्वीकार करना संस्कृति के खिलाफ कैसे हो गया ? और अगर यह इच्छा रखना संस्कृति के खिलाफ है , तो इस इच्छा के खिलाफ तो मैंने अब तक कोई आवाज नहीं सुनी। और , क्या अब हम और आप इच्छाओं को भी कोड ऑफ कंडक्ट के दायरे में लाएंगे ? शो में शामिल एक व्यक्ति से पूछा गया कि क्या आप जोरू के गुलाम है , समाज के आकाओं को इस पर भी आपत्ति हो गई। क्या हमारे समाज में कई बार कई पुरुषों को जोरू का गुलाम नहीं कहा जाता ? तो इसे टीवी पर स्वीकारने में क्या दिक्कत हो गई ? क्या यह वाकई संस्कृति की दुहाई का मामला है या इसके पीछे पितृसत्तात्मक सोच के धागे बारीकी और चतुराई से बुने गए हैं ?
' सच का सामना ' विवादों में है। पहले विनोद कांबली और सचिन तेंडुलकर की दोस्ती के टूटने या दरकने को ले कर था, अब हमारे प्रिय पूज्यनीय नेताओं को लगता है कि यह सीरियल बंद हो जाना चाहिए। राज्य सभा के सदस्यों का कहना है कि इस शो में भाग लेने वालों से उनके परिजनों की मौजूदगी में अश्लील सवाल पूछे जाते हैं, जो गलत है। सदस्यों ने एक स्वर से इस शो को फौरन बंद कराने की मांग की। लगे हाथों भारतीय समाज की छवि धूमिल करने वाले ' सास भी कभी बहू थी ' और ' बालिका वधू ' जैसे सीरियलों के प्रसारण पर भी रोक लगाने की मांग कर दी गई।
तालिबानी मांगों के इस जुनून में यह भी नहीं देखा गया कि जिस 'बालिका वधू' पर रोक लगाने की मांग वे कर रह हैं , वह सामाजिक सरोकारों से जुड़ा सीरियल है। सीरियल में प्रड्यूसर की ओर से किए गए ‘ कमर्शल समझौतों के बावजूद ’ सीरियल अपना मेसिज साफ साफ देता है। बाल विवाह का विरोध और विधवा पुनर्विवाह जैसे मसले इसमें गंभीरता से उठाए गए हैं। क्या इसे बैन करवाने की बात करना बेमानी नहीं है ?
सच का सामना का विरोध इसलिए भी किया जा रहा है क्योंकि इसमें अच्छी खासी रकम के लिए पर सच बोले जा रहे हैं। अब ये नेता बेचारे तो रकम के लिए ही झूठ बोलते आए हैं , इन्हें यह समझ ही नहीं आ रहा है कि कोई यूं अपने परिवार की संसद में दुनिया भर के सामने पैसे के लिए सच भी बोल सकता है। दरअसल, बात यहां यह नहीं है कि किसी एक सच से मां, बेटी के सामने शर्मिंदा हो जाएगी , या पति का पत्नी से भरोसा उठ जाएगा , या किसी का राम जैसा पाक साफ चरित्र अचानक ही कृष्ण जैसे चरित्र के तौर पर सामने आ जाएगा या कोई बरसों पुरानी दोस्ती टूट जाएगी। कोई भी व्यक्ति (जो बहुत ही गरीब न हो या फिर उसे तुरंत लाखों रुपये की जरुरत न हो) केवल (केवल और केवल) मोटी रकम के लिए अपने सारे रिश्ते नाते , अपना करिअर दांव पर नहीं लगाएगा।
इस बात को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि शो में शामिल होने वाला व्यक्ति अपने परिवार के साथ वहां बैठता है यानी जिन रिश्तों को वह कथित तौर पर दांव पर लगा रहा है , उन लोगों का सपोर्ट उसके साथ है। हो सकता है , शो के अगले एपिसोड्स में सच बोलने के लिए बैठे व्यक्ति ने जीवन में कभी कोई छोटा या बड़ा गैर कानूनी काम किया हो , और इस सीरियल के हामीनामे के बाद उस पर एफआईआर ही दर्ज हो जाए। ऐसे में जो कुछ भी होगा , यह जिम्मेदारी उसकी अपनी होगी। उसका अपराध सामने आना समाज के लिए हितकर ही होगा। तो हमारे नेता लोग किस बात से डर रहे हैं ?
क्या आपत्ति करने वाले लोगों को इस बात से तकलीफ हो रही है कि भई कोई सच के नाम पर पैसा बना कर ले जा रहा है ? और वह भी ऐसे सचों का पुलिंदा खोलकर जिनमें से कई सच हमारे अपने भी हैं और हम उन्हें खोलने की हिम्मत नहीं रखते। क्या नेताओं को डर है कि कल को उनका पॉलीग्राफिक टेस्ट करवा कर उन्हें जनता की अदालत में खड़ा होने के लिए कहा जा सकता है ?
सच चाहे पैसे के नाम पर कबूला जाए तो भी उसका सामने आना गलत या बुरा नहीं है। हां , सच बोलना है या नहीं , यह अपनी अपनी मर्जी की बात हो सकती है। पर किसी के सच से जिन लोगों का कोई हित या अहित न जुड़ा हो , उन्हें इसके सामने आने या न आने से कोई दिक्कत क्यों हो! मेरा निजी तौर पर मानना है कि सच स्वीकारना इन-टॉक्सिकेशन है। कुछ बड़े सच अनकंफर्टेबल जरूर करते हैं पर फिर अपने कर्मों की स्वीकार्यता हर किसी के बस की बात भी नहीं। इसके लिए हिम्मत की जरूरत है।
मेरा मानना है कि सच हिम्मती की अदा है। अगर यह आपकी भी अदा है (या होती) तो इस बात की बेहद कम गुंजाइश थी कि इस पर रोक लगाने की बात की जाती। क्या यह सच नहीं है कि जहां सच से दूरी है , वहीं इसकी खिलाफत है ? आप मानें या न मानें , अपने भीतर इस सवाल का सच्चा जवाब चाहें तो छुपा लें सकते हैं , क्योंकि यहां सच बोलने के पैसे भी नहीं मिलेंगे।
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Friday, July 31, 2009
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