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Wednesday, May 13, 2020

कविता: उफ्फ ये औरतें...

Pooja Prasad Poems

बहुत प्यार आता है हर उस औरत पर
जो आवाज ऊंची कर
डबल विनम्रता से
शुद्ध मर्दों के घेरे में
घुसेड़ने की कोशिश करती है
बस अपनी थोड़ी सी बात
बस अपनी थोड़ी सी चिंता
बस अपनी थोड़ी सी जानकारी

प्यार तो उस पर भी आता है
जो चुनती है खामोशी
रखती है सिर ऊंचा
और नाक ज़रा ज्यादा ही पैनी
मगर रहती है चुप
करती है केवल खुद पर विश्वास
और करती है खारिज स्साला सारे ढकोसले
दरअसल कभी पढ़ा था उसने
'मेरी पीठ पर सिर्फ मेरा ही हाथ है....'

औरतों की दुनिया की बातें जब होती हैं
मर्दों की दुनिया मचल मचल उठती है
जैसे कोई फेवरिट डिश
सामने आ पटकी हो
जैसे कोई बचपन की शरारत
बुढ़ापे में जीनी शुरू कर दी हो
बदलता तो वक्त है
बदलते नहीं हैं लोग
जहां होते हैं दलदल
वहां रहते ही हैं दलदल
साल दर साल
दशक दर दशक

मैं इंतजार करती हूं
जल्द से जल्द पीढ़ियां बदलने का
जल्द से जल्द जरूरत हो खतम
इन औरतों से एकस्ट्रा प्यार जताने की
जल्द से जल्द जरूरत हो खतम
ऐसी खामोशी और ऐसी डबल विनम्रता की.

Monday, April 27, 2020

मरीजों का इलाज करने से जूतों का इलाज करने तक का शाज़िया कैसर (shazia qaiser) का सफर

'पापा को लगा कि जब यही सब करना था तो इतनी पढ़ाई-लिखाई क्यों की. शोरूम खोल लो... कोई और डीसेंट काम कर लो... ये जूते चप्पल का काम क्यों करोगी?' मायके वालों को लग रहा था कि नाम खराब हो जाएगा. उन्हें लग रहा था, सफेद कोट में एसी में काम करने वाले लोग जब 'जूते-चप्पल ठीक' करेंगे तब कितना बुरा लगेगा. ये सब काम वैसे भी मर्दों को शोभा देते हैं. फुटवियर सेक्शन वैसे भी पुरुषप्रधान सेक्टर है.


Shazia Qaiser (Show Laundrey)


शाजिया कैसर (Shazia Qaiser). फिजियोथेरेपी में ग्रेजुएशन. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) से लेकर यूनिसेफ (UNICEF) तक के लिए काम. प्राइवेट प्रैक्टिस और फिर गवर्नमेंट जॉब का अनुभव भी. फैमिली बैकग्राउंड- सिविल सर्विस वाला. दूर-दूर तक परिवार में न किसी ने बिजनेस किया और न ही शॉप चलाई. अब ऐसे में जब ठीक-ठाक काम धंधे को छोड़कर कोई ऐसा काम करने निकले जिसका न नाम सुना हो और न ही मार्केट, तो अपनों को एकबारगी अजीब लगना ही था. फिर महिलाओं को बिजनस के लिए आमतौर पर हतोत्साहित ही किया जाता है, नौकरी भी 21वीं सदी में कहीं जाकर कुछ वर्गों में सामान्य ली जाने लगी है. शाजिया कैसर को तो धुन सवार हो गई थी.

कभी मैगजीन में पढ़ा था, शू क्लीनिंग सर्विस के बारे में. तब फिजियोथेरेपी की पढ़ाई कर रही थी लेकिन दिमाग में आइडिया अटक गया. हालांकि नौकरी और शादी की जद्दोजहद में यह सपना कहीं दफन-सा हो गया था. फिर घर-गृहस्थी और बाल-बच्चे के लालन-पालन में कब समय निकल जाता, पता ही नहीं चलता था. जब बच्चा बड़ा होने लगा तो उसे खुद को अकेलापन लगने लगा. सोचा, कोई बिजनस कर लूं. मन तो था ही और बार-बार जेहन में वह आइडिया भी गूंज रहा था जिसे करने की सालों साल पहले तमन्ना जगी थी.

जूतों की देखभाल या यूं कहें जूतों का हॉस्पिटल जैसा कुछ काम ज्यादातर लोगों को एकबारगी तो समझ ही नहीं आता था. जिन्हें समझ आ जाता, वे कहते यह बेकार का आइडिया है. जिन्हें आइडिया ठीक लगता उन्हें शहर का माहौल औऱ मिजाज ऐसा नहीं लगता था कि ऐसा काम किया जाए. लोग कहते - पटना में इसके लिए एक ग्राहक नहीं मिलेगा. किसी को लगता - फिजियोथेरेपिस्ट जैसा सम्मानजनक काम करके, अब ऐसा काम करोगी... अजीब है. जब अपने मुंह सिकोड़ते हैं न, तो अजीब लगता है, लेकिन संभवत: यहीं हमें हमारा पैशन सहारा देता है.

पैरेंटल फैमिली ने सपोर्ट नहीं किया था. मगर, फिर उन्हें यह कहकर भरोसा दिलाया कि सफल नहीं हुई तो सब छोड़कर वापस नौकरी पर आ जाऊंगी लेकिन एक मौका तो तो लेने दो. ससुराल पक्ष के लोगों ने कहा कि पति अगर राजी है तो हमें दिक्कत नहीं. पति कहते थे कि बिजनेस तुम नहीं कर पाओगी लेकिन पत्नी की इच्छा का मान रखा और 'एक कोशिश' के लिए उन्होंने हामी भर दी.

2014 की उस दोपहर 'रिवाइवल शू लॉन्ड्री प्राइवेट लिमिटेड' (Revival shoe laundry pvt ltd) नाम से कंपनी शुरू की. 1 लाख रुपये से शुरू किया और आज लगभग 25 लाख सालाना की अर्निंग है. जब शुरू किया था तो बस तीन लोग थे- रिसेप्शनिस्ट, मोची और वह खुद. अब 15 लोग हैं.

रास्ते में जो रोड़े आए...

36 साल की शाज़िया से हमने जब पूछा कि यहां कौन जूते ठीक करवाने के लिए स्पेशल सर्विस लेता है? यह तो भारत में चलन ही नहीं है. तब वह बोलीं - फोन और टीवी को लेकर तो सर्विस सेंटर होता है लेकिन मंहगे से मंहगे जूतों के लिए कोई सर्विस सेंटर नहीं है. रीटेलरों से संपर्क किया और कहा कि कस्टमर्स और अपने खुद के प्रॉडक्ट से जुड़ी समस्या के लिए हमें काम दें. शाज़िया बताती हैं, 'शुरू में ऐसे जूते देते थे जो पूरी तरह से टूटे फूटे हों और सड़क पर फेंक दिए गए हों... हालांकि हमने वह भी ठीक करके दिया. ऐसी कुछ घटनाओं के बाद उनका हम पर विश्वास बना... हमें काम देने लगे और हम मेहनत करके उन्हें अच्छे से लौटाते.' कहती हैं शाज़िया. 'अब सोसायटीज़ में जाकर अपने बिजनस का प्रचार करते हैं ताकि लोगों को पता चले कि इस तरह का आपका काम भी होता है. पिक एंड ड्रॉप फैसिलिटी हम देते हैं.'

शाज़िया कहती हैं, 'मुझे कुछ भी पता नहीं होगा.. ऐसा वे सोचते थे... बाद में उन्हें मेरी बातों और मेरे काम से यकीन हुआ. कस्मटर से उन्हें फीडबैक जब मिला तब उन्हें मुझ पर भरोसा बना. लोगों को भी सर्विस लेने के बाद 'अडिक्शन' हो गया... आखिर क्लीन शूज पहनने की आदत हो गई.' अब काम मिलता है और अच्छे से मिलता है. यह सही है कि उनकी ग्रोथ दिन दूनी, रात चौगुनी नहीं है. अन्य कुछ बिजनेसेस के मुकाबले उनकी ग्रोथ स्लो है लेकिन ग्राफ का ऊपर की ओर जाना जारी है और यह काफी संतोषजनक है. आखिर मन का करना और ठीक-ठाक कर पाना... यह संतोषजनक तो है ही.

शाज़िया कहती हैं कि बहुत उतार-चढ़ाव आए लेकिन कभी ऐसी निराशा नहीं हुई कि वापस अपनी फिजियोथेरेपी वाली फील्ड में जाऊं. अब एक ठीक-ठाक मॉडल डेवलप हो गया है और टीम भी बन रही है. ऐसे में कोई मतलब ही नहीं कि वासप मुडूं... फुल फ्लेज्ड इस पर काम करूं, और करती रहूं... बस यही कोशिश है.

अपना खुद का कारोबार शुरू करने वाली औरतों के लिए आपका कोई मेसेज या टिप्स?


शाज़िया कहती हैं - आप जिस भी आइडिया पर काम करना चाहती हों जो भी बिजनेस करना चाहती हों तो पहले मार्केट सर्वे कर लें. पूरी प्लानिंग कर लें. यानी, 'फंडामेंटल ऑफ दैट बिजनेस' आप समझ लेती हैं तो आपको अपनी राह चलना और सफलता प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है. इसलिए जो भी काम करना है, उसे लेकर होमवर्क कर लें. ताकि जिस बिजनस को आप करना चाहती हैं उसे लेकर कम से कम दिक्कतें आएं.


(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर पब्लिश्ड मेरा आर्टिकल)

Tuesday, March 11, 2014

'औरत ही औरत की दुश्मन होती है'

a-separation.jpg
A scene from Movie: A Separation
 

पोंछा लगाते हुए गीता अक्सर आंसू पोंछ रही होती थी। मैं पूछती तो अपनी सास को गाली देते हुए कहती, करमजली मरती भी नहीं... जीना दूभर कर रखा है.. बेटे पर चलती नहीं.. मेरे को पीटती है... मेरी बेटी को पीटती है.. किसी दिन धक्का दे दूंगी उसे मैं... दीदी मेरे खसम के सामने मुंह नहीं खोलती बेटा है न उसका.. पिए पड़ा रहता है पर चूं नहीं करती.. दीदी ये औरत जात ही औरत की दुश्मन होती है...

उसके आंसुओं का टपकना बहने में बदल जाता। मैं कुछ नहीं कह पाती थी। मां उसे संभालने का मोर्चा संभालतीं। औरत ही औरत की दुश्मन होती है.. यह बचपन से सुनती आ रही हूं। किशोरावस्था में गरमी की दोपहरियों में चुपके से गृहशोभा पढ़ती तो उसकी कहानियों में अक्सर यह जुमला लिखा होता। दिल्ली यूनिवर्सिटी के एक टॉप कॉलेज में पढ़ाई के दौरान जब एक महिला प्रफेसर प्रमोशन की रेस में दूसरी महिला से बाजी मार ले गई, तब भी यही जुमला सुना। ऑफिसेस में भी कई बार यही सुना। बस स्टॉप और फूड कॉर्नर्स पर तफरी करते समूहों के बीच भी दो औरतों के बीच की दुश्मनी के लिए यही सुना। यहां तक कि आमिर खान ने जब रीना को तलाक देकर किरण राव से शादी करने का फैसला लिया तब भी यही सुना!

क्या वाकई औरत ही औरत की दुश्मन होती है? अगर आप भी इस सवाल के जवाब में मुस्कुराते हुए मन ही मन हां का बटन दबा रहे हैं तो जनाब जागिए। तस्वीर का जो रुख दिखाया जा रहा है और सालों साल प्रचारित किया गया है, असल में उसमें सचाई है ही नहीं। 

पितृसत्तात्मक शक्तियों ने बहुत बारीकी से समाज का ताना-बाना बुना है। इस बुनावट में इस बात का खास ख्याल रखा गया है कि लकड़ियों को कभी गठ्ठर में तब्दील न होने दिया जाए। वे गठ्ठर बन गईं तो भारी हो जाएंगी, संभालना। उनमें अपार शक्ति आ जाएगी, वह हक की मांग करने लगेंगी। इसलिए उन्हें बिखरी सूखी लकड़ियां ही बनी रहने दो। ऐसी ही कोशिशों के तहत धार्मिक दायरे बनाए गए, क्योंकि भाईचारा समाज के राजनीतिक आकाओं के लिए हानिकारक है। दलित जातियों के खेमे बनाए गए, ताकि कुछ मुठ्ठी भर समूहों (कथित तौर पर ऊंची जातियों) का वर्चस्व कायम रहे। और, ऐसी ही कोशिश के तहत महिलाओं को एक दूसरे के खिलाफ प्रचारित और तमाम तरीकों से एस्टेब्लिश किया जाने लगा, ताकि वे पुरुषों की उन ज्यादतियों पर ध्यान ही न दे सकें जिनके खिलाफ उन्हें लामबंद होना है। वे आपस में ही लड़-भिड़ मरें। वे एक दूसरे में अपना दुश्मन देखती-ढूंढती फिरें...

गौर से सोचिए, औरत औरत की दुश्मन है, यह कितना हास्यास्पद स्टेटमेंट है!! एक ही जेंडर के दो या दो से अधिक शख्स आखिर एक दूसरे के दुश्मन हो कैसे सकते हैं! उनकी शारीरिक बनावट एक जैसी है। उनकी मानसिक और मनोवैज्ञानिक सरंचना लगभग एक जैसी है। गर्भाधान, पीएमएस, पीरियड्स और हॉरमोनल बदलावों से उपजीं तकलीफों को वे सभी अपनी-अपनी उम्र में झेलती हैं। उनके डर एक से हैं.. कभी रेप का, कभी छेड़छाड़ का, कभी गंदी नजरों का, कभी नौकरी जाने का, कभी जीवनसाथी से सेपरेशन का, कभी घर की मेड के एकाएक छोड़ जाने का, कभी आर्थिक मोर्चे पर लुट-पिट जाने का, कभी छल लिए जाने का..यहां तक कि कभी ब्रा की स्ट्रेप के दिख जाने का भी। साझे दुख, साझी तकलीफें और साझी सी भावनाएं पालने वालीं महिलाएं एक दूसरे की दुश्मन कब से होने लगीं! होती ही नहीं। शुद्धरूप में देखें तो वह एक दूसरे की दुश्मन हो ही नहीं सकतीं।

सच तो यह है कि दुश्मनी एक ऐसी चीज है जो जेंडर, वर्ग, जाति, रंग भेद से ऊपर है। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप औरत हैं या पुरुष और आपको जिससे दुश्मनी निभानी है, वह स्त्री है या पुरुष। हमारे लाभ के रास्ते में आने वाला हरेक शख्स हमारा दुश्मन है। उदाहरण के तौर पर कहूं तो, यदि स्टेक पर मेरी मेहनत लगी हो तो प्रमोशन मनमोहन को मिले या सुनीता को, क्या फर्क पड़ता है? यदि मुझे लगता है कि मैं प्रमोशन डिजर्व करती हूं तो मनमोहन की जगह कविता होगी, तो भी मैं वही चाहूंगी जो मैं मनमोहन के केस में चाहती। यदि दो पुरुष मेरे प्रतियोगी हों तो भी मैं उन्हें हराना ही चाहूंगी। क्योंकि, यहां बात एंड रिजल्ट की है, यानी इस बात की है कि मुझे चाहिए क्या? कुल मिलाकर बात हितों के टकराव की है। ऐसा ही घर परिवार में महिलाओं के आपसी झगड़ों में है।

घर में ननद और भाभी के बीच के टकराव को भी इसी स्टेटमेंट से 'जस्टिफाई' किया जाता रहा है। जबकि, सचाई यह है कि घर में दिनभर जब ननद और भाभी रह रही हैं तो जो टकराव होंगे और खींचातानी होगी, वह घर में ज्यादातर समय साथ रहने वाले दो या दो से अधिक शख्सों के बीच ही होगी। फिर चाहे वह भाई/पति को लेकर हो या किचन में प्रेशर कुकर की सीटी को लेकर। साथ ही, महिलाएं भावुक होती है। उनका मनोविज्ञान कुछ इस तरह का रचा हुआ है कि वह भावनात्मक जुड़ाव को बहुत आसानी से श्रग-ऑफ नहीं कर पातीं (अपवादों को कृपया यहां छोड़ दें)। ऐसे में बेटे के पत्नी की ओर झुकाव, को वे संभाल नहीं पातीं। इस संभाल की जिम्मेदारी वैसे तो बेटे को लेनी चाहिए लेकिन अमूमन पुरुष या तो ये जानते नहीं कि कैसे हैंडल करें या वे इस सब में पड़ना नहीं चाहते। आखिर समाज ने कभी किसी पुरुष को इस तरह के बैलेंस बनाने की कोशिश करने के लिए ट्रेन ही नहीं होने दिया। उसे घर का राजा बाबू बनाकर रखा गया और इसलिए वह किसी पचड़े में पड़ता नहीं। वह सास-बहू के झगड़े से परेशान हो जाता है तो दो पैग गटका लेता है। या पत्नी को लेकर अलग हो जाता है। हैरानी की बात यह है कि जब वह अपने माता-पिता से अलग होता है तब भी इसकी वजह उसकी पत्नी ही बता दी जाती है। यानी, एक पुरुष की घर के इनिशली चिरकुट झगड़े को संभाल न पाने की असफलता को चुपके से कालीन के नीचे खिसका दिया जाता है और वैंप बन कर उभार दी जाती है स्त्री (उस पुरुष की पत्नी)। यह कहते हुए कि मां को बेटे से अलग कर दिया क्योंकि... महिला ही महिला की दुश्मन होती है।

पिछले दिनों एक महाशय सोशल नेटवर्किंग साइट पर गरिया रहे थे कि कन्या भ्रूण हत्या में महिलाएं ज्यादा जिम्मेदार हैं, पुरुषों के बनिस्पत। उनका तर्क था कि महिलाएं ही कहती हैं उन्हें बेटा चाहिए। वे क्यों खुद ही जाकर हॉस्पिटल के बिस्तर पर लेट जाती हैं कि बेटी नहीं चाहिए, गिरा दो। इन महाशय पर तरस आया। लेकिन, इस लेख को पढ़ रहे कई लोग यह सोचते होंगे कि यह सही बात है। जबकि, सच यह है कि 2 या 3 बेटी जन चुकी महिला के शरीर का जब धड़कता हुआ एक हिस्सा अबॉर्शन के जरिए उसके शरीर से बाहर बहाया जा रहा होता है, तब उसकी आत्मा मर रही होती है। केवल नर्सिंग होम में बेंच पर बैठे ससुराल पक्ष के वे लोग मुस्कुरा रहे होते हैं जो इस अबॉर्शन के पीछे होते हैं। दिन रात के ताने और गालियां सुनने वाली एक औरत तमाम दिखे-अनदिखे दबावों के चलते ही यह फैसला लेती है।

क्या आपने टीवी की मशहूर सीरीज sex and the city देखी है? उसमें औरतों के बीच दोस्तियां किस तरह परवान चढ़ती हैं, यह देखिए। ऑस्कर से नवाजी जा चुकी A separation देखिए, कैसे घर की गर्भवती मेड के प्रति 'धक्के' का आरोप झेल रहे अपने पिता पर एक बेटी भावनात्मक दबाव डालती है कि वह खुदा को हाजिर नाजिर मानकर पुलिस के सामने सच स्वीकारे। डूबे उदास दिनों में, संघर्षों के दिनों में कितने ही पलों में दो लड़कियां-दो औरतें एक दूसरे से बहनापा निभाती हैं, प्रिय मर्दो यह सीखो।

मैंने कभी यह नहीं सुना कि दो भाइयों के बीच होने वाले संपत्ति विवाद के लिए कभी यह कहा गया हो कि पुरुष ही पुरुष का दुश्मन होता है। लगभग हर घर में पैतृक संपत्ति को लेकर विवाद होता ही है। तनातनी होती ही है। लेकिन इस विवाद और तनातनी (जो कई बार हत्या तक में बदल जाती है) को प्रॉपर्टी विवाद कह दिया जाता है। क्यों जनाब? एक बड़ा सच यह है कि विवाद और झगड़ा किसी वस्तु, भाव, संबंध या परिस्थितियों के चलते होता है, फिर वह चाहे दो औरतों के बीच हो या फिर दो पुरुषों के बीच। लेकिन, हम आंखें मूंद लेते हैं। सवाल नहीं करते। बने बनाए जुमलों को सदियों उछाले चलते हैं बिना यह सोचे कि इससे पीढ़ियों का नुकसान हो रहा है।

एक दूसरे की खुशियां आंखों में आंसू भरकर बांटती और एक दूसरे के दुखों पर आंसू बहातीं औरतों में मूल रूप से तो बहनापा ही होता है। ये दुश्मनी की बात तो महज कोहरा है। इसके पार जाकर देखिए।

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...