Thursday, June 12, 2008

प्राथमिकताएं

ब्लॉग कैसे एक निजी डायरी अधिक है और एक सार्वजनिक चिट्ठा कम, यह ब्लॉगर्स के प्रोफाइल देखकर अहसास हो जाता है। दिल्ली या मुंबई जैसे शहरों में आ बसे लोग अपनी जड़ों को कितना शिद्दत से मान देते हैं और उन्हें त्वचा की तरह खुद पर लपेटे हुए आगे बढ़ते हैं, यह तब तब अहसास होता है जब जब ब्लॉगर्स के प्रोफाइल देखती हूं। अनुराग अन्वेषी के प्रोफाइल में लिखा है मन अब भी घूम रहा है झारखंड की गलियों में। अविनाश के ब्लॉग dillii दरभंगा छोटी लाइन में अक्सर पोस्ट ऐसी होती हैं जिन पर उनके कस्बे की छाप दिख जाती है। लोग उनसे अक्सर टिप्पणियों के माध्यम से सिफाारिश भी करते हैं कि भई आपकी फलां पोस्ट में कहीं भी दरभंगा का जिक्र नहीं, जिक्र डाला करिए। प्रियदर्शन कहते हैं, रांची में जन्म और पढ़ाई भी। जीवन के बेहतरीन वर्ष वहीं गुजारे।

ऐसे लिस्ट तो बहुत लंबी हो जाएगी। मगर, हम और आप जानते ही हैं कि कितना लाजिमी सा है प्रोफाइल में अपने कस्बे, शहर या गलियों का जिक्र होना, विशेषकर उन परिस्थितियों में जब आप नॉन-डेहलाइट हों। चंद पंक्तियों में अपने बारे में मुक्त हो कुछ कहने का अवसर मिलता है तो सबसे पहले हम स्याही उठाते हैं उस मिट्टी से जहां पैदा हुए, जहां बचपन बीता, जहां मूलभूत रिश्तों की पैदाइश हुई। कथित अपने बारे में सार्वजनिक डाक्युमेंट रिज्यूम में भी लिखा जाता है जहां औपचारिकता ही आवश्यक तौर पर हावी रहती है। मगर, ब्लॉग नें निजी डायरी की तरह मन में उमड़ते घुमड़ते कुछ कुछ या बहुत कुछ को चस्पां देने की स्वतंत्रता दी है, जो इंटरनेटीय वरदान है।

मेरे मित्रों और जानकारों में अधिकांश दिल्ली से बाहर से हैं। कुछेक को छोड़ दें तो अक्सर वे अपने शहर या माहौल का जिक्र नहीं करते। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि इस शहर में हरेक नए कदम से वे अपने शहर में डाले जाने वाले कदमों से उनकी तुलना/मिलान करते होंगे।

मैं दिल्ली में हूं। यहां की मिट्टी से बेहद प्यार है। यहां के रौनकों से भी और खामोशियों से भी। प्रदूषित हवा से भी है और उस कथित प्रोफेशनलिज्म से भी जिसकी बुराई तो सब करते हैं मगर होते उसी का हिस्सा हैं। मैं दिल्ली में ही पैदा हुई। यहीं पली। यहीं शिक्षा दीक्षा हुई। कुछेक मौके मिले देश के अन्य हिस्सों में जाने के। गई और समेट लाई अनुभवों को साथ। मगर, वापस दिल्ली में ही आई और रूटीन में रच बस गई। ऐसे में अक्सर सोचती हूं कैसा लगता है अपना बहुत कुछ, कुछ वर्षों या हमेशा के लिए पीछे छोड़ कर आना और किसी ऐसे शहर का हो जाना जहां आना गाहे बगाहे मजबूरी थी। कितना तड़पाता होगा दिवाली पर छुट्टी न मिलना और 'इस मुंए पराए शहर' में खामोश रंगीनियों को त्यौहार की रात महसूस करना। बीमार होने पर मां की याद आना जो कि पास नही होती। कैसी बेबसी का अहसास होता होगा जब मन करे पापा-पापा चिल्लाना मगर सामने हों केवल सफेदी से पुती दीवारें। इन अहसासों को जीने का मन कतई नहीं है मगर काश ऐसा हो कि हर शहर इतना एनरिच अवश्य हो कि महत्वाकांक्षा के अलावा कोई ओर मजबूरी किसी मुएं पराए शहर की ओर रवाना करने की बाध्यता न बने।

2 comments:

travel30 said...

Ekdum sach aur kya khoob likha hai aapne.. mitti ki mahak kabhi ja sakti hai bhala.. jab maine blogging ki shuruwaat ki 1 ya 2 post ke baad hi likh daala allahabad ke barein mein I really love Allahabad a lot...

Chhindwara chhavi said...

...... मगर काश
ऐसा हो कि हर शहर इतना एनरिच अवश्य हो कि महत्वाकांक्षा के अलावा कोई ओर मजबूरी किसी मुएं पराए शहर की ओर रवाना करने की बाध्यता न बने।

BAHUT KHOOB ... ACHCHHA LIKHA HAI.
MUJHE BHEE BAAR-BAAR...
HAZAAR BAAR YAAD AATA HAI.
CHHINDWARA

RAMKRISHNA DONGRE
https://dongretrishna.blogspot.com

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