Monday, July 28, 2008

अपनों का अपनों से युद्ध


समय आ गया है जब आतंकवाद के मनोविज्ञान को समझा जाए। आतंकवादियों की चालों को नाकामयाब करते हुए ही यह काम करना होगा। आतंकवाद से लड़ने के लिए केवल हथियार उठाने की और चलाने की जरूरत है, ऐसा भर नहीं है। और, यह हमें सर्वप्रथम मान लेना चाहिए और समझ लेना चाहिए।

सोंचें तो आतंकवाद की जड़ें कहां हैं? आतंकवाद को मुस्लिम आतंकवाद से अलग करके भी देखना होगा क्योंकि यह तो तय है कि आतंकवाद केवल इस्लाम मानने वालों का हथियार नहीं है। मुस्लिम आतंकवाद पुकार कर आतंकवाद को किसी एक धर्म या वर्ग या समुदाय विशेष के गांठ नहीं बांधा जा सकता। यह ऐसी इतिश्री करना होगा, जिसे अंतत: हमें ही भुगतना होगा।

नक्सलवाद क्या आतंकवाद का रूप नहीं! क्या देश के पूर्वोत्तर में असम, नगालैंड और मेघालय में जारी हिसंक अलगाववाद आतंकवाद ही नहीं! आतंकवाद से निपटना है तो एक साथ कई मोचोZं पर लड़ना होगा। व्यक्तिगत स्तर भीण्ण्ण्ण्ण्सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक स्तर पर भी। क्या आतंकवाद अपराध का घोरतम स्वरूप है? क्या अपराध सामाजिक समस्या नहीं? क्या आतंकवाद भी सामाजिक समस्या नहीं?

काफी हैरानी है कि इस बाबत सोचा विचारा नहीं जा रहा है। इस पर काम नहीं किया जा रहा है। आतंकवाद दोनों ओर से मारता है। इसके `अनुयायियों` को भी यह कम नहीं सताता होगा। इसके पीिड़तों को तो सताता ही है। फिर ...उपाय?

Friday, July 11, 2008

तमाशे की एक नई हद?


वासना के जुनून में मारा गया आरुषि तलवार को? बदला लेने के लिए आरुषि का कत्ल किया गया? घरेलू नौकर हेमराज ने मारा उसे? पिता राजेश तलवार ने अवैध संबंधों में बाधा बनने पर मारा आरुषि को? आरुषि का चरित्र ही खराब था...? आदि इत्यादि।

एक नई कहानी (?) कल रात से इलेक्ट्रानिक और आज सुबह से प्रिंट मीडिया में छाई पड़ी है। मीडिया वाले `ऐलान` कर रहे हैं कि मामला सुलट गया है, हत्या तो हुई ही, रेप भी हुआ था, सब नौकरों का किया धरा था, अडो़स पड़ोस के नौकरों के साथ मिल कर इस कत्ल को अंजाम दिया गया। एक चैनल के पास तो बाकायदा वह टेप है जो सीबीआई से किसी तरह उसने हासिल कर लिया है। यह टेप उन सवाल- जवाबो का ब्यौरा है जो नाकोZ टेस्ट के दौरान राजकुमार से पूछे गए। एकता कपूर के घटिया नाटकों की तरह नित नए खुलासे हो रहे हैं। एक गंभीर अपराध पर नौटंकी हो रही है। इस नौटंकी का सूत्रधार बन कर उभर रहा है मीडिया। इसमें मजा कौन ले रहा है, यह तो मेरी अल्पबुिद्ध में आता नहीं। मगर, कच्चा माल पुलिस मुहैया करवाती रही और अब सीबीआई के कथित सूत्र करवा रहे हैं।


अभी तक इस बाबत किसी सीबीआई प्रवक्ता का बयान नहीं आया है मगर हर ओर `कातिल का खुलासा` होने की खबरें आने लगी हैं। क्या यह एक नया तमाशा है? आरुषि के मर्डर केस में रेप शब्द भी जुड़ चुका है। किसी तिलिस्मी कहानी या सीग्रेड फिल्मों की तरह इस सारे मामले को डील किया जा रहा है मीडिया द्वारा। संवदेना को भुनाने की प्रक्रिया अपने आप में संवदेनहीनता की पराकाष्ठा है। न जाने किस आधार पर पिता राजेश तलवार को बेटी आरुषि का हत्यारा करार दिया गया। संदेहों को विश्वास में बदल दिया गया और ऐसा माहौल बनाया गया कि लगा संपूर्ण समाज रसातल में जा रहाहै...बचोरे।

ऐसा नहीं कि मीडिया अपनी भूमिका गंभीरता से कभी भी नहीं निभाता है। मगर क्राइम और देह की बात आते ही, उसका बावलापन और उतावलापन उसके विवेक पर हावी हो जाता है। अपने होने के औचित्य को ताक पर रखते हुए वह सनसनी ही जीता है, सनसनी ही पीता है और सनसनी ही परोसता है। बिना कुछ सोचे समझे आरुषि के चरित्र को ही हीनता की श्रेणी में रख दिया गया। चौदह साल की बेटी को पापा के अवैध संबंधों का साक्षी करार दे दिया गया। पिता कितना भी जलील या निर्दयी क्यों न हो, कुछ खास समुदायों या प्रांतों को छोड़ दें तो उसके बेटी की हत्या करने की बात भी आराम से गले के नीचे नहीं उतरती। मगर, इस मामले में भौचक्के अंदाज में गलप की जाती रही। लोगों द्वारा भी, टीवी चैनलों द्वारा भी और अपने आप को सनसनी से दूर मान कर रिअल पत्रकारिता करने का दंभ भरने वाले प्रिंंट मीडिया के भी।

मगर इस सबमें असल मुद्दा हमेशा की तरह गायब! आरुषि कांड की सच्चाई पता नहीं कब आएगी, मगर जो माहौल बन चुका है और जिस तरह के दबाव बन रहे हैं, डर है कहीं सच भीतर ही दफन न हो जाए। कहीं ऐसा न हो कि जो सामने आए, वह सच का मुखौटा पहने झूठ हो।.........

एक घंटी घनघनाती सी


क्या वाकई मोबाइल फोन कोई `लकड़बग्धा` है जो हमारे आपके जीवन में चुपचाप घुस आया है?

हाल की दो खबरें बताती हूं। पहली और एकदम हालिया खबर के अनुसार, केरल के एक स्कूल में एक छात्रा को मोबाइल चैक करने के नाम पर क्लास में निर्वस्त्र कर दिया गया था। अब राज्य सरकार सभी स्कूलों में मोबाइल प्रयोग 'कानूनन' प्रतिबंधित करने वाली है। दूसरी खबर के मुताबिक, बर्लिन में सरकारी एजेंसी ने करीब 7 सालों में 50 सर्वे करवा यह घोषित किया कि मोबाइल कोई शारीरिक नुकसान नहीं पहुंचाता है। उसके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभावी साबित होने के सभी दावे निराधार हैं और बेबुनियाद हैं।

दूसरी खबर से इतर, हम सब अक्सर मोबाइल की किरणों के शरीर पर कई तरह के दुष्प्रभावों के बारे में पढ़ते हैं, सुनते हैं। ऐसे में बर्लिन में जारी यह रिपोर्ट खुशखबरी दे सकती थी मगर नहीं दे पाई। इसलिए नहीं दे पाई क्योंकि रिपोर्ट के बाद ही यह कहा जाने लगा (इसमें कितनी सच्चाई है, नहीं जानती) कि जर्मनी सरकार के सर्वे को मोबाइल सेवाप्रदाता कंपनियों ने वित्तपोषित किया है। यदि ऐसा है तो जाहिर है नतीजे पार्शियल होने की संभावना कई गुना बढ़ जाती है।

जब मैं आईएएनएस में कार्यरत थी तब मोबाइल के सामजिक और मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव पर एक स्टोरी की थी।
कई लोगों से और विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञों के अलावा इस संदर्भ में डॉक्टरों से भी बात हुई। सभी ने अति को हानिकारक बताया। सभी की बातों का निचोड़ था कि मोबाइल के आने से जीवन में कई परिवर्तन हुए हैं। इनमें सकारात्मक कम हैं नकारात्मक अधिक।

खैर। यहां सवाल विज्ञान के वरदान या अभिशाप होने का नहीं है। बल्कि, एक तकनीक के अति, विभिन्न और भौंचक्क कर देने वाले उपयोग का है। क्या वाकई स्कूलों (ऑफिसों या कहीं और स्थान विशेष पर) मोबाइल फोन के प्रयोग को बैन कर देना चाहिए? क्या मोबाइल की आवश्यकता को ले कर बच्चों और उनके अभिभावकों के तकोZं में कोई दम है? क्या प्रतिबंध ही एकमात्र उपाय है? ....

मुझे लगता है कि किसी चलन या परंपरा या आदत से यदि सामूहिक हानि हो रही हो, तो पहले समीक्षा की जानी चाहिए कि असल वजह वह परंपरा या चलन विशेष ही है या कुछ और। कहीं हम असल समस्या से अनभिज्ञ तो नहींण्ण्ण्ण्। इसके बाद इस बाबत सरकार समेत व्यक्तिगत व पारिवारिक स्तर पर कदम उठाया जाना जरूरी होगा। मेरा मानना है कि इस बाबत सरकार या प्रशासन को कड़ाई से लागू करने वाले 'जायज' नियम बनाने चाहिए। हम लोगों को भी जरूरी गाइडलाइन स्वयं तैयार करनी होगी जिस पर हम अमल भी करें।

Thursday, July 10, 2008

दिल्ली मेरी दिल्ली


सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी गौरतलब है। कोर्ट ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में बाहरी लोगों के बोझ से चरमराने पर सरकार को संज्ञान लेने के लिए कहा है। अदालत की इस टिप्पणी पर कुछ लोग खुश हैं जबकि कुछ बेहद नाराज भी।

कोर्ट ने कहा है कि यह सही है कि किसी भी व्यक्ति को देश में कहींं भी बसने का अधिकार है मगर इस बाबत यह ध्यान रखने की भी जरूरत है कि संसाधनों पर बोझ न बढ़े और मूलभूल सरंचना न चरमराए। कोर्ट ने अपनी बात स्पष्ट और बेहद स्पष्ट शब्दों में कही है। जाहिर है कोर्ट किसी के भी आवागमन से ले कर बसने के अधिकार को बाधित नहीं करता बल्कि इस अधिकार को थोड़ा और ध्यान रखता है। कोर्ट की टिप्पणी लोगों के `ढंग` से रहने के अधिकार को भी सुनिश्चित करने की जरूरत पर बल देती है।

यहां यह स्पष्ट होना जरूरी है कि यहां बिहारियों या यूपी वालों को खेदड़ने की बात अदालत ने नहीं कही है और किसी जाति, प्रदेश या समुदाय के आधार पर दिल्ली को भीड़मुक्त करने की बात भी नहीं कही है। संसाधनों पर बढ़ते बोझ और चरमराती व्यवस्था को चलायमान रखने की जरूरत पर संजीदगी से अपनी बात कही है। अब यह सरकार पर है कि वह इस बाबत दिए गए निर्देशों को कैसी और कितनी गंभीरता से लेती है।

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...