Saturday, November 28, 2009

वाकई, सेवा देती है मेवा

copyright protected
अब लगने लगा है कि सेवा (सर्विस टू पीपल) स्वार्थ का खूबसूरत चेहरा है। पर है असल में स्वार्थ ही। सेवा करके मन संतुष्ट होता है और खुशी मिलती है। जैसे कुछ पा लिया हो। जैसे मन में कुछ हल्का हो गया हो। जैसे कुछ है जो साध लिया हो। जैसे स्वंय से कोई वार्तालाप कंपलीट हो गया हो...।

जो लोग सेवा को स्वार्थ नहीं मानना चाहते हैं, वे बताएं कि वे क्यों करते है सेवा?

सेवा संतुष्टि सी नहीं देती तो क्या देती है? कोई तो वजह होती होगी कि सुह्रदय लोग (टाटा अंबानी या अन्य अमीर कारोबारी नहीं) कभी कभार मंदिर के बाहर बैठे गरीबों को भोजन करवाते हैं। या, बुजुर्ग माता पिता का साथ तमाम दिक्कतों और विरोधाभासों को झेलते हुए देते हैं। या, नब्बे की उम्र पार गई विधवा बुआ को परिवार वालों के लाख चिक चिक करने के बाद भी उनकी अंतिम सांस चुकने तक साथ रखते हैं। या, कि बिना किसी बताए अनाथ बच्चों के आश्रम में अपना जन्मदिन बिताते हैं। अनजान लोगों के लिए कुछ करना। कभी कभी अपने दर्द और तकलीफों को भूल कर दूसरे के दुख दर्द को समझना और दूर करने का अपने स्तर पर प्रयास करना। और भी कई उदाहरण होंगे, फिलहाल तुरंत ध्यान में नहीं आ रहे।

क्या यह गलत नहीं है कि सेवा को निस्वार्थ सेवा की टर्म से पुकारा जाए...?

सेवा से मेरा मतलब एनजीओ में नौकरी करने से नहीं है। सेवा, जहां से आपको मोनिटरी या कोई और विजिबल फायदा न हो रहा हो...।

Wednesday, November 4, 2009

एक अमीबा

शब्दों के पैरों से घुंघरू बंधे हैं
कभी कभी कानों में शोर सा भरते हैं
ढांप लो हथेलियों से
कान को अगर कभी
तो चमड़ी पे तेज की थाप से बजते हैं
और कभी चमड़ी को
नोंच लो खुरच भी लो
तेज रोशनी बनके शब्द
आंखों में उतरते हैं

क्या करोगे नजर जब शब्द से ढकी होगी
क्या करोगे पांव जब शब्द से अटे होंगे
क्या करोगे सांस जब शब्द से सनी होगी
क्या करोगे शब्द जब मौन बन चीखेंगे..

चुनना तो है कि
कैसे शब्द को पचाना है
न पचे तो अपच सी
कर देते हैं घुंघर से शब्द
फिर कभी एक दिन मीरा के श्याम बन
नैया के खिवैया भी बनते हैं
यही शब्द
पर यकीन हो चला
शोर गजब ढाते हैं
आसमान गिरा रे गिरा
फिर फिर गरियाते हैं
शब्दों के पैरों से घुंघरू बंधे हैं
कभी कभी कानों में शोर सा भरते हैं

पीले नीले सफेद और भूरे लाल से
रंगीन कोई इंद्रधनुष है
सरगम की कल्पना..या फिर?
कौन जाने क्या बला है
पर यकीन तो हो चला है
बार बार धरती से खिसकते हैं यही शब्द

रहें तो रहें, या न रहें
बसें तो बसें, या न बसें
बजें तो बजें, या न बजें
या सदा बने ही रहें
पर कभी निजात दें
और कभी बता भी दें
क्या है अमीबा सा जो
खुद पे इतराते हैं
शब्दों के पैरों से 'सुनहरे' घुंघरू बंधे हैं...

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...