तीसरी मंजिल के हमारे कमरे की खिड़की तीसरी मंजिल के उनके आखिरी कमरे की ओर खुलती थी. उनके कमरे में हमारी खिड़की न चाहते हुए भी झांकने की कोशिश करती रहती थी. क्योंकि, दिन भर उसके पाट खुले रहते और कभी पर्दा लगता और हटता रहता. हमारी खिड़की हम बच्चों की तरह ही अक्सर गतिमान रहती. मगर उनकी खिड़की अक्सर मोटे पर्दे से ढकी रहती. खिड़की के कोनों से एक किरण भी कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती थी क्योंकि मोटा दरी जैसा पर्दा कोनों में ठूंसकर फंसाया रहता था. जब-जब वह पर्दा हटता तो मैले शीशों वाली खिड़की पर चटकनी लगी होती. हम बच्चे आंखें मिचमिचाकर अंदर देखने की कोशिश करते रहते लेकिन दिखता कुछ नहीं.
हम अंदर क्यों देखना चाहते थे? सवाल लाजिमी है. दरअसल, उस घर से कभी- कभी रोने की आवाज आती. खिड़की के पास सटा जैसे कोई रो रहा हो. रोना हल्का नहीं होता था, कभी- कभी चीख- चीखकर रोने की आवाज आती. जैसे कोई पीट रहा हो या फिर कोई जिद में रोता है न, वैसे. वहां जो परिवार रहता था उनकी बेटी उसी स्कूल में पढ़ती थी जिसमें हम पढ़ रहे थे. उनका बेटा मेरे भाई की जान पहचान वाला था. क्योंकि भाई ने ही एक दिन धीमी आवाज में मेरी ममी को बताया था कि पायल की ममी 'पागल' हैं और उनको कभी-कभी दौरे पड़ते हैं. अड़ोस-पड़ोस की इस परिवार को लेकर कानाफूसी से यह बात पक्की हो गई. यह भी कहा गया कि पायल और राजेश अपनी ममी के चलते शर्म खाते हैं और इस मारे किसी से ज्यादा मिलते जुलते नहीं हैं. मैंने अपनी ममी को दो-तीन बार इस परिवार का जिक्र चलने पर पापा से कहते पाया कि इलाज क्यों नहीं करवाते ये लोग ढंग से. ममी की आवाज में गुस्सा सा होता. बेचैनी सी होती. इस परिवार का जिक्र इसलिए भी चल निकलता था क्य़ोंकि पड़ोस से खबरें छन कर आ रही थीं कि पायल शायद स्कूल छोड़ दे.
पायल ने अंतत: स्कूल छोड़ दिया था. वह कई दिन नहीं दिखी. बालकनी में कपड़े सुखाते उतारते, और झाड़ू लगाते हुए वह लोगों को नहीं दिखी. हमने सुना कि वह दूसरे धर्म के किसी लड़के साथ भाग गई है. बाद में पता चला कि वह भागी नहीं थी, रिश्तेदार के घर गई हुई थी. रिश्तेदार के घर! और लोग कह रहे थे कि वह भाग गई है! इस बीच उनके कमरे का पर्दा हटा रहा. शायद वह ममी को साथ लेकर रिश्तेदार के घर गई थी. अब हमें एक बंद अलमारी दिख जाती थी. खिड़की आधी खुली और आधी बंद रहती थी. तेज हवा में खटाखट बजने लगती थी. रात में जब खिड़की बजती थी तो बहुत डर लगता था. क्योंकि, ऐसा लगता था कि वहां बैठा कोई रो रहा है. मुझे ऐसा लगता वहां पायल की ममी बैठी हैं. इस भ्रम ने मेरी कई रातें हराम कीं. क्या वह 'पागल' थीं? पागल तो चिल्लाते रहते हैं न. हाथ- पांव मारते हैं. चीजें तोड़ते हैं. फिर पायल की ममी ने कभी कमरे की खिड़की खुद क्यों नहीं जो...र से धक्का मारकर खोली थी? वह रोती थीं लेकिन लड़ती- चिल्लाती क्यों नहीं थीं. मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था. मगर अड़ोस-पड़ोस की आंटियों और ममी ने देखा था. ममी ने बताया था कि वह कभी-कभी बालकनी में नहाकर धूप में सिर के बाल सुखाने बैठ जाती थीं. ऐसे ही कभी तौलिया उठाने आ जाती थीं. किसने कब कहा, यह तो याद नहीं लेकिन बीच- बीच में यह सुना हुआ याद है कि 'वह अब ठीक हैं', 'उन्हें फिर दौरे पड़ने लगे हैं.' आदि इत्यादि.
फिर एक दिन, कई महीने बाद, मैंने ममी से पूछा, पायल औरी शिफ्ट हो गए हैं क्या. ममी ने कहा था, यहीं तो हैं. मैंने इसलिए पूछा था क्योंकि कई दिनों तक वह खिड़की खुली रही. पर्दा भी भूरा काला नहीं था, किसी और रंग का साफ सुथरा था. और अब पूरा हटा रहता था. कोनों में गिट्टक लगी रहती और इसलिए हवा चलने पर अब शीशे वाले पाट बजते नहीं थे. पता नहीं मुझे कैसे पतादेश चला, लेकिन कुल यह पता चला कि 'पायल की ममी गुजर गई हैं.' 'वह बीमार भी रहने लगी थीं और 'पागल' तो थी हीं.' 'पायल छोटी बच्ची कहां तक पागल औरत की देखभाल करती.'
10 तारीख को मेंटल हेल्थ डे है. अक्टूबर का कैलेंडर देखते हुए मुझे पायल याद आ रही है. उसकी ममी भी याद आ रही है. मेरे मन में आज वही बेचैनी है जो उस वक्त मेरी मां की आवाज में थी. 'इलाज क्यों नही करवाते ये लोग ढंग से... '.
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर हमारा रवैया अगर स्वस्थ्य होता, यदि उनका इलाज करवा लिया गया होता, तो पायल को न स्कूल छोड़ना पड़ता, न मां को खोना पड़ता... पायल और राजेश के मैंने यहां नाम बदल दिए हैं. मगर नाम बदल देने से हालात नहीं सुधरते. हालात सुधरते हैं, कदम उठाने से. कदम, बेहतरी की दिशा में.. उठाने से.
फिर मैंने कई दिन बाद पायल को बालकनी में देखा था, वह हाथ में चाय का कप लिए आसमान की ओर कहीं दूर क्षितिज में देख रही थी. ऐसा कई बार हुआ. वह ऐसे कई बार दिखी. जौन एलिया का यह शेर मुझे आज इस दृश्य का ध्यान करके याद आ रहा है- यूं जो तकता है आसमान को तू, कोई रहता है आसमान में क्या?
मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चाहिए अवेयरनेस, डराते हैं आंकड़े
4 अक्टूबर से लेकर 10 अक्टूबर तक देश में नेशनल मेंटल हेल्थ वीक मनाया जा रहा है. इस बार की थीम है 'प्रिवेन्शन ऑफ सुइसाइड्स' यानी आत्महत्या की रोकथाम. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) की रिपोर्ट के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने छापा है कि 15 से 29 साल के आयुवर्ग में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है. हर 40वें सेकंड में एक खुदकुशी होती है.हर साल करीब 8 लाख आत्महत्याएं दर्ज होती हैं. अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो खुदकुशी करने वाला हर तीसरा शख्स भारत से होता है. यह कितना दिल दहला देने वाला है!
डॉक्टर्स कहते हैं, शरीर बीमार होता है तो दवाएं लेते हैं. दिमाग खराब (परेशान) होता है तो चुप्पी ओड़ लेते हैं. खुद को समझाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं. कुछ कोशिश करते हैं लेकिन नहीं संभलता तो उसे उसके हाल पर छोड़ देते हैं. किसी प्रफेशनल मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाते. इसका नतीजा यह होता है कि मानसिक तकलीफ कब मानस और मस्तिष्क को अपने कब्जे में ले लेती है पता ही नहीं चलता. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरी दुनिया की कुल आबादी का 12 फीसदी हिस्सा मानसिक गड़बड़ियों से जूझ रहा है. यानी, 450 मिलियन लोग. यानी, चार में से एक शख्स ऐसा है जिसका मानसिक दिक्कत की अगर सही पहचान कर ली जाए तो इलाज से वह ठीक हो सकता है. 2002 के डाटा बताते हैं कि 154 मिलियन लोग डिप्रेशन से जूझ रहे हैं. यह आंकड़ा अब और बढ़ चुका होगा. जरूरत है, खुद को और अपने पास को कुछ संवेदनशीलता के साथ देखने की, ताकि समय रहते बात बिगड़ने से रोकी जा सके.
(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर 10 अक्टूबर को पब्लिश्ड)