Wednesday, May 20, 2020

'कोरोना के डर के बीच गर्भवती पत्नी को लेकर यहां वहां दौड़ता रहा, वे कई महिलाओं को दूर से ही भगा रहे थे'

कोरोना वायरस (Coronavirus) के संक्रमण काल में ऐसा लगता है जैसे सब रुक गया है. वे सभी जरूरी सेवाएं तक रुक गई हैं जिन्हें सरकार (Government) की ओर से चलते रहने की परमिशन (Permission) थी. हालत कुछ ऐसी है कि गंभीर बीमारियों से जूझ रहे लोग, बच्चे और बुजुर्ग हॉस्पिटलों में अपना इलाज (Treatment) तक नहीं करवा पा रहे हैं. एक इंजेक्शन (Injection) तक लगवाने के लिए किलोमीटर तक जाना पड़ रहा है. ओला-ऊबर (Ola-Uber) जैसी टैक्सियां चल नहीं रही हैं. ऐसे में जिनके पास अपना वाहन नहीं है, वह आम इंसान कहां जाए और कैसे अपना इलाज करवाए. ऐसी ही गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है गर्भवती महिलाओं (Pregnant Women) को. जिन क्लीनिकों में इलाज चल रहे थे, वे लॉकडाउन (Lockdown) के चलते बंद हैं. कोई डर से बंद हैं और कोई प्रिकॉशन (Precaution) के चलते. राजा अपनी पत्नी मीना कोटवाल को लेकर दो महीने से अधिक समय से काफी परेशान हैं. उनकी पत्नी का नौंवा महीना चल रहा है और यह खबर लिखते समय वह हॉस्पिटल में डिलीवरी के लिए एडमिट हुई हैं. राजा ने जो मुझे बताया, वह रौंगटे खड़े करने वाला था....

Meena Kotwal Covid 19 article by pooja prasad
मीना कोतवाल


क्लीनिक बंद हो गया और आज तक नहीं खुला
मेरी पत्नी गर्भवती हैं. इस समय उनका नौवां महीना चल रहा है. उन्हें कभी भी लेबर पेन हो सकता है. पहले महीने से ही हम लोग घर के पास में मनचंदा क्लीनिक से दिखवा रहे थे. 7 महीने तक तो देखा लेकिन 22 मार्च के बाद अचानक सबकुछ बंद हो गया. एसेंशियल सर्विस खुली रहने का निर्देश सरकार की ओर से था लेकिन यह क्लीनिक भी तभी से बंद हो गया और आज तक नहीं खुला. डॉक्टर से फोन पर बात होती रही लेकिन प्रेग्नेंसी में बिना देखे और जांच किए कैसे आखिरी के महीनों में इलाज चलाते... इस बीच एंटी-डी का इंजेक्शन भी लगना था और अल्ट्रासाउंड की रिपोर्ट कलेक्ट तक नहीं कर पाए.

पत्नी को एंटी-डी इंजेक्शन लगवाना था
हालांकि डॉक्टर की इस सारी चीजों में मैं कोई खास गलती नहीं मानता क्योंकि वह बुजुर्ग महिला हैं और सरकारी नियम कायदों के चलते ज्यादा प्रिकॉशन ले रही हैं. संभवत: इसी वजह से वह क्लीनिक नहीं खोल रही हैं. वह अच्छी गाइनोकॉलिजिस्ट हैं. आसपास की सभी गर्भवती महिलाएं वहां आती थीं. मेरी पत्नी का ब्लड ग्रुप ओ नेगेटिव है तो उन्हें एंटी-डी इंजेक्शन लगवाना था. यह इतना जरूरी है कि यदि यह नहीं लगवाया तो सेकंड टाइम कंसीव करने के दौरान मिसकैरेज की आशंका ज्यादा हो जाती है. ऐसे में जब क्लिनिक बंद था तो डॉक्टर की सलाह पर हम विनया भवन मैटिरनिटी हॉस्पिटल गए. यहां से हमने वह इंजेक्शन लगवाया. इस सबमें काफी भागदौड़ करनी पड़ रही थी.

डॉक्टर से फोन पर ही संपर्क में रह पाए
पत्नी को लेकर पैदल यहां वहां भागना पड़ रहा था और वह भी आखिरी समय में जब किसी भी वक्त डॉक्टरी असिस्टेंस की जरूरत पड़ सकती है. लॉकडाउन के इस पूरे टाइम में हम डॉक्टर से फोन पर ही संपर्क में रह पाए. इस बीच उन्होंने कैल्शियम और आयरन की गोलियां खाने की सलाह दी. हमें सरकारी हॉस्पिटल ले जाने में भी कोरोना के चलते डर लग रहा था. सवा आठ महीने पूरे होने के बाद हमने दूसरे हॉस्पिटल में दिखाने की सोची क्योंकि समय बीतता जा रहा था. लोधी रोड पर स्थित चरक पालिका मैटरिनिटी हॉस्पिटल में भी काफी बुरा व्यवहार रहा. इन्होंने इमरेंजसी में भी मेरी पत्नी को नहीं देखा जबकि मेरी पत्नी दर्द से कराह रही थी. बार बार कहते रहे कि आप लोग बड़े हॉस्पिटल जाइए...

ओपीडी में काफी भीड़ थी और सब आपस में सटे खड़े थे
फिर पंडित मदन मोहन मालवीय हॉस्पिटल में जाना हमने चुना. मनचंदा क्लीनिक से एक ओर मेरी पड़ोसन इलाज करवा रही थीं, इन्हें भी हम साथ लेकर मालवीय हॉस्पिटल गए. आज से करीब दो हफ्ते पहले जब हम यहां पहुंचे तो यहां पर सोशल डिस्टेंसिंग एकदम फॉलो नहीं हो रहा था. महिलाओं की लंबी लाइन थी. समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें. ओपीडी में काफी भीड़ थी और सब आपस में सटे खड़े हुए थे. सुरक्षाकर्मी ने बताया कि यहां कोविड के केसेस आ रहे हैं. भीड़ अधिक होने की वजह से लोग आसपास सटकर खड़े होने को मजबूर थे. हमने किसी तरह कोना खोजा और अलग अलग बैठ गए. दोपहर बाद जब हमारा नंबर आया तो डॉक्टर ने हमें न तो ढंग से चेक किया और न ही सही से बात की.

डॉक्टरों ने बुरा व्यवहार किया
आठवां महीना जिस महिला का लगा था, जो हमारे साथ गई थीं, उन्हें दूर दूर से देखा और बस बोला कि अभी तुम्हारा टाइम नहीं है और एक महीने बाद आना. काफी बुरा व्यवहार किया हमारे साथ.  दूसरे लोगों को भी डांट रहे थे और बीमार और जरूरतमंद लोगों के साथ ऐसा गंदा व्यवहार किया जा रहा था. एक गर्भवती महिला के पेट में दर्द था और उन्हें यहां के डॉक्टरों ने बाकायदा भगा दिया. हमारे पास मौजूद डॉक्युमेंट्स भी जल्दी जल्दी देखे और दवाएं लिख दी गईं. कुछ टेस्ट बोले जिन्हें करवाकर जब हम अगली बार गए तो जिस डॉक्टर ने देखा, वह बोलीं कि यहां न आइए.

मालवीय नगर मेट्रो के पास रेनबो हॉस्पिटल
दो तीन लोग एक बेड पर हैं. बच्चे का इम्युन सिस्टम वीक हो जाएगा. अगर आप अफोर्ड कर सकते हैं तो अच्छा तो यह होगा कि आप किसी प्राइवेट हॉस्पिटल में डिलीवरी करवाएं. हमें सलाह सफरदरजंग हॉस्पिटल की भी दी गई लेकिन हम इसलिए नहीं गए क्योंकि वहां कोरोना के केसेस बहुत अधिक थे. हमने सुना था कि वहां बेड भी परमानेंट बेसिस पर मिलता नहीं है. अब हम मालवीय नगर मेट्रो के पास रेनबो हॉस्पिटल में दिखा रहे हैं. यहां डिलिवरी ही होती है और बच्चों का ही इलाज होता है. अब हम यहीं दिखा रहे हैं और आगे का पूरा प्रोसेस यहीं करवाएंगे. क्योंकि, यहां सफाई भी है और लग रहा है कि सब ठीक रहेगा.

(19 मई को Hindi News18 (network 18) में पब्लिश मेरा आर्टिकल)

Thursday, May 14, 2020

नेटफ्लिक्स (Netflix) की वेबसीरीज Messiah अपने समय की एक मजबूत कथा


एक ऐसे समय में जब विश्वभर में ईश्वर और धर्म पर स्वतंत्र रूप से बात करना कोई बहुत आसान नहीं रह गया है, मेसीआ (Messiah) का बनाना, बन पाना, और एक पॉपुलर ओटीटी प्लेटफॉर्म नेटफ्लिक्स (Netflix) पर दिखाया जाना, जिगरे का काम है. हालांकि देश और काल से इतर, हम सब जानते हैं कि इतिहास सिनेमाई दिलेरी का दसियों बार गवाह रहा है. जानकारी के लिए बता दूं कि मेसीआ पर प्रतिबंध लगाने के लिए जॉर्डन में जोर-शोर से आवाजें उठ रही हैं. कोई हैरानी न होगी यदि जब तक यह लेख आप तक पहुंचे, वहां यह बैन हो चुकी हो।  बात आखिर अमानत में खयानत जैसी जो है.

netflix webseries messiah review in hindi

मेसीआ को हम यहां मसीहा ही बोलें तो बात करने में थोड़ी आसानी होगी. ऑस्ट्रेलियाई पटकथा लेखक और निर्देशक मिशेल पेट्रॉनी (Michael Petroni) ने इस थ्रिलर को बनाया है और निर्देशित किया है जेम्स मैट्यूग (James McTeigue) और केट वुक (Kate Wood) ने. मसीहा डेल्युजन से इल्यूजन और यथार्थ से परिकल्पनाओं तक हमें ऐसे उठा- उठाकर पटकती है कि इसे देखते हुए हम सवाल रचते हैं, जिनके जवाब देते हैं और जवाबों को खारिज कर फिर से सवाल कर लेते हैं. मगर यह नया सवाल पिछले सवाल से अलग होता है. मसीहा को गूगल किए बिना सीधा देखना शुरू कर देना, इसकी उठापटक को जीना है. किसी किताब का अंत यदि आप जान लें तो उसे पढ़ने का रोमांच समाप्त हो जाता है और रोमांच ही तो जीवन का नमक है! नहीं क्या?
कहानी का मोटा-मोटी प्लॉट यह है...

खैर, 10 लंबे-लंबे एपिसोड्स की एक सीरीज जिसका नाम मेसीह है नेटफिल्क्स की हालिया प्रस्तुति है. प्रत्येक एपिसोड 40 से 50 मिनट लंबा. सीरीज की शुरुआत में ही स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि यह पूरी तरह से काल्पनिक घटनाओं पर आधारित है. इसका धर्म, व्यक्ति विशेष, चरित्र से कोई लेना देना नहीं है. सीरीज को 1 जनवरी 2020 को रिलीज किया गया. सीरीज का पहला दृश्य सीरिया (Syria) की राजधानी दमासकस (Damascus) शहर ले चलता है जहां ईसा मसीह के लौट आने की हवा उस वक्त बह चलती है जब एक 'रहस्यमयी' शख्स एक टोरनेडो से लोगों को 'बचाता' है. इस हवा को सबसे पहले भांपने वाली CIA एजेंट ईवा गैलर (Michelle Monaghan) के साथ हम इस सीरीज की परत दर परत खोलते हैं. आज के तार्किक समाज के बीच 'ईसा मसीह की वापसी' तमाम शक शुबहा खड़े करती है और इस बीच होती हैं कुछ घटनाएं. जिन्हें, अंतरराष्ट्रीय समाज का एक बड़ा धड़ा, जो इस अल-मसीह का फॉलोअर बन रहा है, चमत्कार कह रहा है जबकि दूसरा कंफ्यूज्ड (जी हां, कंफ्यूज्ड) धड़ा खतरनाक मान रहा है. आम लोगों के बीच जब आप इस अल-मसीह पुकारे जाने वाले शख्स के मसीहा होने पर जरा 'भरोसा' सा करने लगते हैं, तब अगले ही पल मसीहा के शातिर कोन-मैन होने का शक आपको बर्रा देता है. और, आखिरी एपिसोड तक सस्पेंस और थ्रिलिंग अनुभवों के बीच क्रेश हुए क्लासिफाइड एरोप्लेन के बाहर मसीहा और बाकी दो लोगों के साथ आप भी इसकी अगली सीरीज के आने का इंतजार शुरू कर देते हैं.

किसी को हुई आपत्ति किसी ने ध्यान ही नहीं दिया...

मेन कैरेक्टर अल-मसीह द्वारा अमेरिकी प्रेजिडेंट से सीक्रिट मीटिंग के दौरान जो मांग की जाती है, उसके बाद दर्शक को लगता है- ओह तो यह है पूरा मामला. लेकिन आखिरी एपिसोड तक आते आते दर्शक की यह सोच भी 'Shit Yaar' में बदल जाती है. अल- मसीह की खास बात यह है कि यह सभी धर्मों के मौजूदा रूप और एग्जेक्यूशन पर वाजिब लगने वाले कुछ सवाल खड़े करता है. यह न बाइबल का नाम लेता है न कुरान का और न ही किसी और धर्म का लेकिन इन धर्मों की धर्म पुस्तकों में लिखे गए कोट्स का जिक्र वह लगातार करता है. वैसे शुरुआती एपिसोड से शुरू ये धारदार कोट्स आपको भी शानदार लग सकते हैं. क्रिश्चिएनिटी या यूं कहें कि ईसा मसीह के माता- पिता पर CIA एजेंट द्वारा काफी अधिक तीखे शब्दों में सहज रूपेण टिप्पणी करना, बड़े वर्ग को खला नहीं... सुखद हैरानी हुई मुझे. हालांकि गूगल ने बताया कि एक धर्म विशेष के ऑडियंसेस द्वारा ट्रेलर को लेकर आपत्ति जताई गई थी. वैसे यहां यह भी बताते चलें कि सीरीज की शूटिंग का बड़ा हिस्सा जॉर्डन में ही फिल्माया गया है जहां इसे प्रतिबंधित करने की मांग चल रही है. सीरीज जिस तरह से बनाई गई है, यह काल्पनिकपन की ओर तकनीकी रूप से उलझाती नहीं. इसलिए लगता कुछ ऐसा है, जैसे हालिया दौर (2019) के घटनाक्रम की पड़ताल की जा रही है.

तो क्या सचमुच ईसा मसीह लौटेंगे? कभी यह अल-मसीह एक कुत्ते को मार देता है और कभी यह गोली खाए एक बच्चे को 'जीवित' कर देता है. वह अपने फॉलोअर्स की परवाह नहीं करता. और, उससे संबंधित किसी भी स्थापित होते दीख रहे विचार को बेदर्दी से तोड़ चलता है. सुना है, ईसा मसीह भी स्टीरियोटाइप तोड़ा करते थे. यह अल-मसीह कभी लोगों को इस्तेमाल करता हुआ लगता है किसी खास एजेंडे के तहत, कभी वह धर्म की पुर्नस्थापना के लिए दुनिया भर के बॉर्डर्स की समाप्ति चाहता हुआ एक मानवतावादी लगता है. मसीह में एक और कैरेक्टर है जिबरिल. जिबरिल ने ही इस शख्स को अल-मसीह का नाम दिया. ऐसा लगता है सीरीज का अगला भाग इस कैरेक्टर के इर्द गिर्द घूमेगा क्योंकि जहां अल-मसीह अब शक की बेड़ियों में बंध गया है, जिबरिल आखिरी एपिसोड आते आते 'सेकंड कमिंग' का असल हकदार सा लगने लगता है जिस पर कम स कम शक की जंजीरें फिलहाल नहीं दिखाई गई हैं.

और क्या मिलेगा...

मसीहा को लिखने और निर्देशित करने वालों का विभिन्न धर्मों और धार्मिक पुस्तकों को लेकर तार्किक ज्ञान उच्चस्तरीय न रहा होगा तो इतना शानदार धारदार थ्रिलर लिखना असंभव था. सीरीज का हर कैरेक्टर अपनी जगह पर फिट है और कहीं कोई ओवर-डू नहीं दिखता. सीरीज में सीआईए जैसे टफ जॉब होल्डर्स की रिसती निजी जिन्दगियां, सोशल मीडिया की ताकत (या कि कहें, इंफ्लूएंस), अकेला होता जा रहा समाज, प्रमुख धर्मों के हार्ड कोर फॉलोअर्स के हिलते हुए विश्वास, राजनीतिक उठापटक और अमेरिकी राजनीतिक गलियारों पर भी रोशनी डालती चलती हुई यह सीरीज, नो डाउट, देखी जानी चाहिए, केवल तभी जब आप कुछ हटकर देखना चाहते हों. मगर इसी के साथ, यह एक सवाल भी छोड़ जाती है कि क्या एक सच्ची कहानी का नाट्य रूपांतरण है?

PS: इस बीच ये बता दूं कि कुछ दिन पहले ही मेसीहा की टीम ने इंस्टाग्राम पर बताया कि कोविड 19 के इस दौर के बाद भी मेसीहा का अगला पार्ट नहीं रिलीज होगा. जबकि, तैयारियां पूरी थीं..  खैर, हम इस टीम को शुभकामनाएं देते हैं..

(20 जनवरी को News18 Hindi (Network18 Media) में प्रकाशित मेरा लेख)

Wednesday, May 13, 2020

कविता: उफ्फ ये औरतें...

Pooja Prasad Poems

बहुत प्यार आता है हर उस औरत पर
जो आवाज ऊंची कर
डबल विनम्रता से
शुद्ध मर्दों के घेरे में
घुसेड़ने की कोशिश करती है
बस अपनी थोड़ी सी बात
बस अपनी थोड़ी सी चिंता
बस अपनी थोड़ी सी जानकारी

प्यार तो उस पर भी आता है
जो चुनती है खामोशी
रखती है सिर ऊंचा
और नाक ज़रा ज्यादा ही पैनी
मगर रहती है चुप
करती है केवल खुद पर विश्वास
और करती है खारिज स्साला सारे ढकोसले
दरअसल कभी पढ़ा था उसने
'मेरी पीठ पर सिर्फ मेरा ही हाथ है....'

औरतों की दुनिया की बातें जब होती हैं
मर्दों की दुनिया मचल मचल उठती है
जैसे कोई फेवरिट डिश
सामने आ पटकी हो
जैसे कोई बचपन की शरारत
बुढ़ापे में जीनी शुरू कर दी हो
बदलता तो वक्त है
बदलते नहीं हैं लोग
जहां होते हैं दलदल
वहां रहते ही हैं दलदल
साल दर साल
दशक दर दशक

मैं इंतजार करती हूं
जल्द से जल्द पीढ़ियां बदलने का
जल्द से जल्द जरूरत हो खतम
इन औरतों से एकस्ट्रा प्यार जताने की
जल्द से जल्द जरूरत हो खतम
ऐसी खामोशी और ऐसी डबल विनम्रता की.

Tuesday, May 12, 2020

कुंभ से लेकर कोरोना काल तक जनसेवा में जुटी हुईं PCS ऋतु सुहास (Ritu Suhas)

कोरोना काल (covid19) कोई आसान समय नहीं है. दुनिया के किसी भी शख्स के लिए यह अनिश्चितकालीन युद्ध का एक दौर है. और, इस बार यह युद्ध है भी तो एक ऐसे दुश्मन के खिलाफ, जो अदृश्य है. इस युद्ध में यूं तो हर कोई निजी स्तर पर योद्धा है, लेकिन कुछ योद्धा ऐसे हैं जो अपने खुद की जान और स्वास्थ्य की परवाह किए बगैर जनता की सेवा में लगे हुए हैं. जरूरी सेवाओं में लगे हुए देश के सरकारी और गैरसरकारी अफसरों को हमारा सैल्यूट है. हम पिछले कुछ दिनों से आपको 10 मई को होने वाले मदर्स डे के मौके पर ऐसी मांओं से अवगत करवा रहे हैं जो लगातार जनता के बीच रहकर जनहित के कार्य कर रही हैं. परिवार, बच्चों और खुद को प्रायॉरिटी लिस्ट में जनसेवा के बाद रखना वाकई दिलेरी का काम है. आइए आज हम आपको मिलवाएं 2004 बैच की पीसीएस अधिकारी ऋतु सुहास (Ritu Suhas) जो लखनऊ डेवलपमेंट अथॉरिटी में सेक्रेट्री के पद पर कार्यरत हैं और दो बच्चों की मां भी हैं.

covid 19 ritu suhas article by pooja prasad


लखनऊ में सैनिटाइजेशन से लेकर लंच बनवाने, पैक करवाने और बंटवाने का बीड़ा उठाए हुए हैं ऋतु. कहती हैं, कोरोना क्राइसिस में काम ज्यादा है लेकिन यही तो समय है जब पब्लिक की हमसे उम्मीदें ज्यादा होती हैं और हमें अपना काम और अच्छे से करना होता है. बाकी वर्क प्रोफाइल ऐसा है कि कभी प्रशासनिक कार्य करना है तो कभी लॉ एनफोर्समेंट का. कहती हैं, पिछले महाकुंभ के दौरान इलाहाबाद में म्यूनिसिपिल डिपार्टमेंट में पोस्टेड थीं तो करोड़ों लोगों के लिए हाइजीन की व्यवस्था करना काफी मुश्किल काम था लेकिन हमने ये किया और अच्छे से कर पाए.

बता दें कि ऋतु सुहास पिछले साल की मिसेज 2019 भी रह चुकी हैं. सुहास की पहली पोस्टिंग मथुरा में एसडीएम के पद पर हुई थी. इसके बाद वे जौनपुर, आगरा, सोनभद्र जैसी कई जगहों पर तैनात रहीं. अपने कार्यकाल में उन्होंने पद पर रहते हुए गर्भवती महिलाओं के लिए मोबाइल ऐप्लिकेशनन 'प्रेग्नेंसी का दर्पण', बच्चों के लिए मोबाइल ऐप 'कुपोषण का दर्पण' और शारीरिक रूप से असमर्थ लोगों के लिए 'बूथ दोस्त' नामक ऐप भी बनाईं जिन्हें बाद में सरकार ने ही इसे टेक ओवर कर लिया था.

covid 19 ritu suhas article by pooja prasad


पुरुषों पर सिर्फ कमाने का प्रेशर, औरतों करती हैं मल्टीटास्किंग

मां का रोल इस बड़े जिम्मेदार पद पर रहते हुए कैसे कर पाती हैं, पर बोलीं, भारतीय महिलाएं मल्टीटास्किंग करती हैं और वाकई वे सैल्यूट के काबिल हैं क्योंकि वे हमेशा ही सुपरवीमन के तौर पर काम करती देखी गई हैं. हम देखते हैं कि इस समाज और देश में कभी भी पुरुषों पर इस तरह का कोई खास प्रेशर नहीं रहा और आज भी नहीं है. उन पर केवल कमाने का प्रेशर है. औरतें चूंकि कई तरह के प्रेशर एक साथ हैंडल करती ही हैं तो वह टाइम मैनेजमेंट भी पुरुषों के मुकाबले बहुत बेहतर तरीके से कर पाती हैं. सुहास कहती हैं कि आप देखिए न कि कैसे औरतें घर में ही ब्यूटीपॉर्लर भी खोले हुए हैं और बच्चों को भी पालती हैं, परिवार और घर के सारे काम भी करती हैं.

वर्किंग मांओं के लिए निजी अनुभव से कुछ सुझाव...

सुहास कहती हैं कि न सिर्फ वह बल्कि हम औरतें अपनी प्रॉयरिटी के हिसाब से काम करती हैं. टाइम वेस्ट नहीं करती हैं जैसे कि मैं खुद टीवी नहीं देखती. बच्चों को टाइम देती हैं. वह कहती हैं कि बच्चों को क्वालिटी टाइम देना चाहिए. कोशिश करें कि जैसे ही मौका मिले, खेलें उनके साथ. अपने निजी अनुभव और तौर तरीके शेयर करते हुए सुहास बताती हैं, सोने से पहले रोज एक गाना सुनाती हूं मैं अपने बच्चों को आजकल... वे बहुत एन्जॉय करते हैं इसे. बच्चों को बेडटाइम पर साथ देना चाहिए. आपको खुद भी अच्छा महसूस होगा.

covid 19 ritu suhas article by pooja prasad
रितु सुहास


कहती हैं कि मेरे दो बच्चे हैं. पहले सोचती थी कि एक बच्चा ही पैदा करूंगी ताकि जॉब के साथ- साथ उसे अच्छे से बेहतर विकास के मौके और परवरिश दे पाऊं. लेकिन फिर मुझे लगा कि वह एकदम अकेला न रह जाए कहीं... उसके साथ बहन या भाई होगा तो उसके पास एक साथ होगा. इसलिए दूसरे बेबी का प्लान किया. बच्चे को पैदा करना बड़ा काम नहीं, उसे ढंग से पालना बड़ी जिम्मेदारी है.


Friday, May 8, 2020

कोरोना वॉरियर (corona warrier): उत्तर प्रदेश के हापुड़ की डीएम अदिति सिंह हैं पावरहाउस!

कोरोना का संक्रमण काल (Coronavirus Outbrek) पूरी कायनात पर भारी है. ऐसे में वे कोरोना वॉरियर्स (Corona Warriors) सैल्यूट के साथ हमारे शुक्रिया के हकदार हैं जो अपने घर, अपना स्वास्थ्य और अपना चैन दांव पर लगाए इंसानी सेवा में जुटे हुए हैं. उसमें भी दीगर योगदान उन महिलाओं का है, जो न सिर्फ वर्किंग हैं बल्कि आज के इस माहौल में तिगुनी गति से अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन कर रही हैं. ऐसी महिलाएं अपने परिवार, अपने बच्चे और खुद को कितनी मुश्किल से 'मैनेज' करती होंगी, यह सोचकर ही सिहरन होती है! सरकारी प्रशासनिक सेवाओं से लेकर मेडिकल लाइन की महिलाएं, सफाई कर्मचारियों से लेकर अन्य सभी जरूरी सेवाओं में कार्यरत ये औरतें सुपरवीमन नहीं, सुपरह्यूमन हैं.

IAS officer aditi singh hapur dm
aditi singh hapur


मदर्स डे स्पेशल (Mother's Day Special) सीरीज में हम आपके लिए आज लाए हैं ऐसी ही एक मां के मन की बात, जो एडमिनिस्ट्रेटिव सर्विस में हैं और एक छोटी सी बच्ची की मां भी हैं. यूपी के हापुड़ में डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट (डीएम) के पद पर कार्यरत अदिति सिंह अपने आप में एक पावरहाउस हैं. पिछले ही महीने हापुड़ की ओर कूच करने वाले दिल्ली से चले लोगों के एक विशाल समूह को वक्त रहते अदिति सिंह की ही टीम ने आइडेंटिफाई किया और क्वारंटाइन किया. केस न बढ़ें. इसके लिए तुरत-फुरत कार्रवाई करके हॉटस्पॉट चिन्हित किए गए और जरुरतानुसार लोगों को होमक्वारंटाइन भी किया गया. अफवाहों को रोकने से लेकर लोगों को जागरूक मुहैया कराने तक का काम करवाया गया.

मूल रूप से बस्ती की रहने वाली अदिति सिंह 2009 बैच की आईएएस अधिकारी ( IAS Officer Aditi Singh, Batch-2009) हैं. दिल्ली यूनिवर्सिटी की गोल्ड मेडलिस्ट अदिति कहती हैं कि घर और काम के घंटों के बीच तालमेल बिठाना असल चुनौती है. लेकिन, इस चुनौती को वह दिन-ब-दिन बेहतर तरीके से हैंडल कर पा रही हैं. कहती हैं, उनकी एक बेटी है और वह शुरू से ही मां के काम को लेकर एक गजब तरीके से अंडरस्टैंडिग थी. धीरे धीरे उसने मेरी प्रफेशनल कमिटमेंट्स के साथ तालमेल बिठा लिया और ऐसा कभी नहीं हुआ कि उसके चलते मेरे अपने कार्य के प्रति समर्पण में कोई दिक्कत आई हो.

हालांकि चैलेंजेस तो होते ही हैं. हर उस मां के, जो बच्चा घर में पीछे छोड़कर आती है. ऐसे में परिवार का एक सपोर्ट सिस्टम ही महिलाओं के लिए मजबूत ढाल बनता है. जब अदिति से इस सपोर्ट सिस्टम की मौजूदगी या गैर मौजूदगी के बारे में पूछा तो वह बोलीं, मेरी मां का सपोर्ट मेरे लिए बहुत मायने रखता है. उन्होंने हर तरह से मुझे सपोर्ट किया और जहां -जहां जरूरत पड़ी, वहां डांटकर सही भी किया. अदिति बताती हैं कि उनकी मां हमेशा चाहती थीं कि उनकी बेटी आईएएस अफसर बनकर समाज सेवा करे. अदित कहती हैं कि सबसे बड़ा अफसोस यही होता है कि वह अपनी बेटी की पढ़ाई-लिखाई के लिए खुद से उतना समय नहीं दे पातीं, जितना कि उनकी मां उनके लिए दिया करती थीं. हालांकि बच्ची की खुशियों, उसकी जरूरतों और उसके स्वास्थ्य से जुड़े किसी भी मोर्चे पर वह खुद अडिग रहती हैं और कोई समझौता नहीं करतीं हैं.

जब मैंने पूछा कि समाज और पुरुषों (घर के पुरुष और बाहर के, दोनों) से क्या उम्मीद करती हैं कि एक मां के लिए वह किस प्रकार सपोर्टिव हो सकते हैं, तो उन्होंने कहा, किसी भी बच्ची के लिए यह बहुत जरूरी होता है कि उसके माता पिता का बिलीफ सिस्टम क्या है. यानी, क्या वह बेटी को भी बेटे के बराबर ही आगे बढ़ने और समझने-समझाने के समान मौके मुहैया करवाते हैं या नहीं. बात सिर्फ यही नहीं होती कि बच्ची को मानसिक तौर पर मजबूत बनाया जाए और अपने पैरों पर खड़े होने का मौका दिया जाए, बल्कि यह भी जरूरी है कि बेटों को यह सिखाया जाए कि वह घर, बाहर, स्कूल-कॉलेज में भी महिलाओं के साथ सम्मान से पेश आएं. अदिति ने लड़कों की परवरिश की री-कंडीशनिंग पर जोर दिया.


IAS officer aditi singh hapur dm


मदर्स डे भले ही एक बहाना भर हो एक सफल करियर वीमन और एक मां से बातचीत करने का लेकिन उनसे प्रेरणा लेना अन्य महिलाओं के लिए लाभदायक ही साबित होगा. जब हमने पूछा कि नौकरीपेशा या बिजनेस कर रही मांओं के लिए कोई संदेश देना चाहेंगी, तो उन्होंने कहा- जो रास्ता आपने चुना है, हो सकता है शुरू में वह कठिनाइयों से भरा हो लेकिन कभी गिव-अप न करें. अपने खुद के स्वास्थ्य और जरूरत को अनदेखा करना भी कतई सही नहीं होता. इसलिए अपना ध्यान रखें. आप ठीक होंगी, स्वस्थ्य होंगी, तभी आप अपना काम सही से कर पाएंगी और परिवार की देख-रेख भी अच्छे से कर पाएंगी. ​


(6 मई को News18 Hindi में प्रकाशित मेरा आर्टिकल)

Thursday, April 30, 2020

मेरे डर: इरफान तेरी याद में...

•एक होती है सचाई. एक होता है डर. सचाई हमेशा खुशनुमा नहीं होती. इसलिए डर भी हमेशा निराधार नहीं होते. हम सब चाहते हैं कि हमारे डर हमेशा झूठ साबित हों. इससे बड़ा सुख कुछ नहीं! हालांकि ऐसा हमेशा होता नहीं है. और ये जो सच है, वह न तो कड़वा होता है, न मीठा. होता है तो टोटली नंगा... सच के नंगेपन के साथ हमारा रिश्ता कैसा है, यह हमेशा बदलता रहता है. कभी सुख का. कभी दुख का...

इरफान


•मगर डर के साथ हमारा रिश्ता बेहद दर्दनाक होता है. चाहे वह अंधेरे से डर हो या फिर उजाले के बुझ जाने का डर हो... डर अपने मूर्त और अमूर्त रूप में नाकों चने चबवा ही देता है. और, यदि भाग्यवश, डर सच निकल आएं तो... उफ... मैं हमेशा अपने कुछ क़रीबीयों को लेकर एक तीक्ष्ण डर को जीती हूं. बहुत कम ऐसा हुआ है कि किसी दिन मैंने इसे महसूस न किया हो. यह जब तीव्र होता है, तब कितना मारक होता है. और यह जब क्षीण होता है तब भी तो कितना... कितना.. कितना.. दुखाता रहता है...


•कुछ साल पहले मैंने हिम्मत करके गूगल किया और यह जानने की कोशिश की यह साला क्या मेरे ही साथ है या यह कोई थॉट-पैटर्न है, जिसे बदला जा सकता है टाइप्स.. यानी, क्या दुनिया में इस प्रकार के भय को जीते हुए मेरे जैसे लोग भी हैं.. यदि हैं, तो वह अपने जीवन को कैसे जीते हैं... कैसे इस डर को अपने फैसलों और दिनचर्या पर हावी नहीं होने देते.. क्या हैं तरीके... तरीके जो प्रैक्टिकली लागू किए जा सकें.. सत्संग नहीं.. तरीके.. हार्ड कोर टिप्स चाहिए थे मुझे.. जैसे कि डिस्प्रिन जिसे पानी में घोल कर पी लो तो सर दर्द गायब, पानी में घोलकर गरारा कर लो तो गले की खराश गायब.. मतलब रामबाण, इस डर का.


•रामबाण डर का ही चाहिए था, क्योंकि जिस बात का डर है, वह तो मनुष्य जन्म की सचाई है ही. इसलिए, उसका निदान नहीं. डर का निदान चाहिए था. मिला नहीं मुझे आज तक. कुछ समय जब यह डर कुछ साइलेंट रहता, तब लगता यह डर बीत चुका है, लेकिन फिर यह अचानक सांय सांय करके अपना सिर उठा लेता.. रात की नींद और दिन का चैन उड़ा देता.. सर में माइग्रेन दे देता.. यहां तक कि अपराध बोध से भी भर देता.. आजकल कोविड 19 के इस दौर में यह फिर सांय सांय करता है.. जबकि जन्म और मौत से इतर साला कुछ सचाई है ही नहीं..


(29 April 2020 की दोपहर एक शानदार एक्टर और शानदार शख्सियत इरफान की मौत हो गई. इरफान कैंसर का इलाज करवा कर लौट तो आए थे लेकिन कैंसर का तो ये है न, कि जिस घर में घुसता है, वहां से बाहर निकलता ही नहीं कभी पूरी तरह से... पिछले दिनो इरफान हॉस्पिटलाइज्ड हुए और कल साथ ही छोड़ गए.. न्यूज बिजनस में रहते हुए यह खबर चंद पलों  में मुझ तक पहुंची और रुलाई में बदल गई. कोरोना वायरस के चलते वर्क फ्रॉम कर रही हूं, इसलिए रुलाई कुछ देर बाद मेरे भीतर के इस डर को हवा दे गई जो मैंने यहां लिखा है... और आज यानी 30 अप्रैल को ऋषि कपूर की मृत्यु हो गई.. )

योगासन को लेकर औरतों को ध्यान रखनी चाहिए कुछ खास बातें, बता रहे हैं योगाचार्य


पिछले कुछ सालों में योग (yoga) को लेकर जागरूकता बढ़ी है और यही वजह है कि बच्चों, महिलाओं और पुरुषों ने इसे अपने जीवन में प्रमुखता से तरजीह दी है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi)  द्वारा भी योग के प्रचार प्रसार को तवज्जो दी गई जिसका असर यह रहा कि हम सब प्राणायाम, योग और विभिन्न आसनों से न सिर्फ वाकिफ हुए बल्कि उन्हें करना भी शुरू किया. मगर क्या आप जानते हैं कि बच्चों, पुरुषों और महिलाओं के अलावा रोगियों और कमजोर लोगों के लिए योग को लेकर कुछ नियम है. ऐसा नहीं है कि प्रत्येक आसन हर कोई कर सकता है. हमने इस विषय पर राजस्थान सरकार से नेचुरोपैथी और योग के क्षेत्र में सम्मान प्राप्त एक्यूप्रेशर स्पेशलिस्ट और योग टीचर डॉक्टर मनोज योगाचार्य से इस बारे में बात की.

dr manoj yogacharya article by pooja prasad


महिलाओं को आसन या प्राणायाम को लेकर किन बातों को ध्यान में रखना चाहिए, मासिक धर्म के दौरान कौन से आसन करने चाहिए और कौन से एकदम नहीं करने चाहिए जैसे सवालों पर उन्होंने बताया कि खासतौर पर पीरियड के दौरान महिलाओं को योग को लेकर कुछ बातें ध्यान में रखनी चाहिए.


1- जितने भी आसन पेट या ओवरी के इर्द- गिर्द के होते हैं, वे न करें. जो भी आसन पेट और गर्भाशय के हिस्से के ऊपर के हैं, वे आसन कर सकते हैं, जैसे कि सर्वाइकल संबंधी, ताली बजाना, हाथों, गर्दन के आसन कर सकते हैं. लंग्स से रिलेटेड योगासन कर सकते हैं. औरतों को पीरियड्स के समय अनुलोम- विलोग और भ्रामरी ही करने चाहिए.

2- जिन आसनों को करें उनके मामले में भी यह ध्यान रखें कि अपनी सांस की गति सामान्य रखें. अच्छा तो यह होगा कि सांस की गति धीमी रखी जाए. सांस तेज गति से न लें. थकावट लगने लगे तो डीप ब्रीथिंग करें और कुछ देर रुक जाएं. ज्यादा प्रेशर न लें.

3- इसके अलावा यह यौगिक क्रिया जरूर कर लिया करें- पैरों की एड़ी के ऊपर का पार्ट (कलाई जैसा) और हाथों की कलाई को रब करना है. जैसे चूड़ियां होती हैं, वैसे गोल गोल घुमाना. दूसरे हाथ के अंगूठे और चारों उंगलियों से हाथ की कलाई को पकड़ें और इसे गोल-गोल घुमाते हुए रब करें. यह 2 मिनट प्रतिदिन करेंगे तो बेहतर है. पीरियड्स के समय में क्रैंम्प्स आदि में इससे बहुत लाभ मिलेगा.

4- मासिक धर्म के दौरान लड़कियां क्रैम्प्स से बेहद परेशान रहती हैं. अच्छा होगा यदि पीरियड्स के बाद या पहले वाले समय में आप बटरफ्लाई आसन करने की आदत डाल लें. साथ ही मंडूकासन करना भी बेहतर है और यह सबसे अच्छा है जब किसी महिला को कई कई महीने तक पीरियड्स न आते हों.

5- यहां आपको बता दें कि मौसम जो भी हो, पानी अधिक से अधिक पीना चाहिए. देखा गया है कि काम काज के बीच औरतें पानी की जरूरत का केवल 50 फीसदी ही पीती हैं. लगभग 6-7 गिलास (आमतौर पर) एक दिन में जरूर पीना चाहिए. इसके अलावा लिक्विड चीजें भी पीनी चाहिए.

किसी भी उम्र की महिला को अपने शरीर और उम्र के मुताबिक ही आसनों का चयन करना चाहिए. इसीलिए कहा जाता है कि योग हमेशा किसी प्रशीक्षित की सलाह पर करें. हम इस लेख के मार्फत आपको यही कहने जा रहे हैं कि महिलाएं योगासनों का चयन परामर्श के बाद ही करें.

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Tuesday, April 28, 2020

सालों से चौराहे पर काल से टक्कर लेती एक मां 62 साल की डोरिस फ्रांसिस (Dorris Francis)

जिंदगी इम्तहान लेती है... और जब वह परीक्षा लेती है तब हमारे पास इस परीक्षा में न बैठने का विकल्प ही नहीं होता. नतीजा, हम तय नहीं करते लेकिन नतीजे के बाद जो रास्ता हमें अख्तियार करना होता है, वह हम ही तय करते हैं. किस रास्ते पर चलना है और कब तक चलना है, दुखद नतीजे के सामने हथियार डालने हैं या फिर दूसरों के लिए मिसाल बनना है, यह हम ही तय करते हैं. आज से 10 साल पहले डोरिस फ्रांसिस ने जिन्दगी की एक बाजी हारी भले ही लेकिन उसके बाद ऐसी मिसाल बन पड़ीं कि दूसरों की सांसों को बचाने का जिम्मा ले लिया. डोरिस फ्रांसिस वह जाना- माना नाम हैं जिन्होंने रोड ऐक्सिडेंट में बेटी खोई, कैंसर से लड़ाई लड़ी मगर अपने मिशन को जारी रखा.


An article by pooja prasad


NH9 पर ट्रैफिक संभालतीं डोरिस फ्रांसिस खोड़ा की रहने वाली हैं. अब तो उनकी पहचान ट्रैफिक कंट्रोलर के रूप में बन चुकी है. पहले लोग बात नहीं सुनते थे, मगर अब सम्मान देते हैं. 61 बरस की हो चुकी हैं डोरिस, पर जज्बा ऐसा कि कोई युवा भी इनके सामने खुद को बुजुर्ग महसूस करे. पर खास बात यह कि वे ट्रैफिक की विभागीय कर्मचारी नहीं हैं. जो कर रही हैं स्वतः स्फूर्त और पूरी तरह से अवैतनिक है! बस, यहीं पर सवाल मन में उठता है कि ऐसा क्यों? इस सवाल का जवाब तलाशने में एक हादसे की बेहद मार्मिक कहानी सामने आती है.

2009 के नवंबर का महीना था वह. डोरिस की 21 बरस की बेटी निकी फेफड़े की बीमारी से जूझ रही थी. वह कहती हैं- उसे एक हॉस्पिटल से दूसरे हॉस्पिटल ले जाना था. हम सब ऑटो में बैठे थे. इसी दौरान गाजियाबाद से आ रही वैगनआर ने हमारी ऑटो को टक्कर मार दी. हम तीनों बुरी तरह जख्मी हो गए. लोगों ने हमें अस्पताल पहुंचाया. वहां से तीनों को अलग-अलग हॉस्पिटल में रेफर किया गया. बेटी गिरी तो फेफड़े फट गए थे. ऑटो चालक भी घायल हुआ. मुझे जब तीन दिन बाद होश आया तो फटाफट उस हॉस्पिटल के लिए भागी जहां बेटी ऐडमिट थी... जुलाई 2010 में बेटी ने मौत के सामने हथियार डाल दिया. चौराहे पर हुए एक्सिडेंट ने घर उजाड़ दिया था. ऐसा लगता था कि हम चौराहे पर आ चुके हैं. निराशा-क्षोभ, उदासी-दुख सब हम पर हावी होते जा रहे थे. तभी हम पति-पत्नी ने निर्णय किया कि अब हम इस चौराहे पर किसी को ऐसी दुर्घटना से मरने नहीं देंगे. हम दोनों ऐक्टिव हुए. दोनों ने समय बांटा और यहां ट्रैफिक नियंत्रित करने लगे. 2016 में कैंसर हो गया... मैं यही सोचती कि इस चौराहे पर अब ऐक्सिडेंट्स को कौन रोकेगा... तब मीडिया ने मदद की. एक कैंपेन चलाया. लोगों से मदद मिलनी शुरू हो गई. सीएम अखिलेश यादव की ओर से भी मदद मिली. दिल्ली पुलिस और यूपी पुलिसवालों ने मदद मिली. इलाज हुआ और आज ठीक हूं. उसी चौराहे पर मुस्तैदी से खड़ी हूं. एक ही धुन है...बस, औरों की जान बचानी है. अपनी परवाह नहीं.

कितना वक्त देती हैं इस सेवा के लिए, पूछने पर डोरिस कहती हैं- अभी सुबह 7 बजे गई थी 11 बजे लौटी हूं. सड़क दुर्घटनाएं कम हों इसके लिए क्या चाहती हैं आप? इस सवाल पर डोरिस कहती हैं - सरकार से गुजारिश है कि दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए गंभीर कदम उठाए सरकार. ट्रैफिक पुलिस और जागरूक हो. वह कई बार, बड़े बड़े अधिकारियों को रॉन्ग साइड से निकाल देती है, पर अक्सर आम आदमी फंसा रह जाता है. बीमार पेशेंट्स तक को नहीं बख्शते ये लोग.

An article by Pooja Prasad


डोरिस फ्रांसिस की शिकायत है, ‘हमने देखा कि चालान (Challan) गरीब आदमी पर मार है. अमीरों की बड़ी गाड़ियों को कोई नहीं रोकता-टोकता. 10 हजार की बाइक वाला मार खा रहा है. बात तो तब है जब ऑडी-मर्सिडीज वालों को भी पकड़ा जाए और चालान काटा जाए.'

पुराने दिनों को याद करते हुए वह कहती हैं कि जब हमने यह काम शुरू किया तब पब्लिक, नेता ने परेशान किया. उनका हमसे कहना था, 'ये सरकार का काम है... ये पुलिसवालों का काम है. मेरे बेटे को पिटवाया. लोगों ने मुझे पागल भी कहा लेकिन परवरदिगार का शुक्रिया कि आज लोग तहजीब से बात करते हैं. सिग्नल लाइट से ज्यादा मेरे हाथ के इशारे का इतंजार करते हैं. जब दो दिन नहीं दिखती तो लोग पूछते हैं कि क्या हुआ... लोग पानी पूछते हैं और पिलाते हैं. वे समझते हैं कि भलाई के लिए कर रहूं हूं ये काम मैं...'

अपने बचपन की ओर झांकते हुए कहती हैं वह कि पिता आर्मी में थे और जम्मू में पोस्टेड थे. लेकिन हालत ऐसे भी हो गए कि हम बच्चों को खाने के लाले पड़ गए. लोगों के घरों में पानी भरकर, झाड़ू पोंछा लगाकर चार पैसे कमाए. न सिर्फ अपना और भाई बहनों का पेट भरा बल्कि उन्हें पढ़ाया लिखाया भी. वह कहती हैं- कोठियों में मेड का काम किया और भाई बहनों को पढ़ाया-लिखाया. मैं पढ़ नहीं सकी... यहीं मैं मार खा गई.. लेकिन ईश्वर ने ऐसा दिमाग दिया कि मैंने बहुत कुछ सीखा... गाड़ी जब रूल तोड़कर भागती है तो नंबर नोट करती हूं.. आज पढ़ सकती हूं, लिख सकती हूं...

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Monday, April 27, 2020

मरीजों का इलाज करने से जूतों का इलाज करने तक का शाज़िया कैसर (shazia qaiser) का सफर

'पापा को लगा कि जब यही सब करना था तो इतनी पढ़ाई-लिखाई क्यों की. शोरूम खोल लो... कोई और डीसेंट काम कर लो... ये जूते चप्पल का काम क्यों करोगी?' मायके वालों को लग रहा था कि नाम खराब हो जाएगा. उन्हें लग रहा था, सफेद कोट में एसी में काम करने वाले लोग जब 'जूते-चप्पल ठीक' करेंगे तब कितना बुरा लगेगा. ये सब काम वैसे भी मर्दों को शोभा देते हैं. फुटवियर सेक्शन वैसे भी पुरुषप्रधान सेक्टर है.


Shazia Qaiser (Show Laundrey)


शाजिया कैसर (Shazia Qaiser). फिजियोथेरेपी में ग्रेजुएशन. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) से लेकर यूनिसेफ (UNICEF) तक के लिए काम. प्राइवेट प्रैक्टिस और फिर गवर्नमेंट जॉब का अनुभव भी. फैमिली बैकग्राउंड- सिविल सर्विस वाला. दूर-दूर तक परिवार में न किसी ने बिजनेस किया और न ही शॉप चलाई. अब ऐसे में जब ठीक-ठाक काम धंधे को छोड़कर कोई ऐसा काम करने निकले जिसका न नाम सुना हो और न ही मार्केट, तो अपनों को एकबारगी अजीब लगना ही था. फिर महिलाओं को बिजनस के लिए आमतौर पर हतोत्साहित ही किया जाता है, नौकरी भी 21वीं सदी में कहीं जाकर कुछ वर्गों में सामान्य ली जाने लगी है. शाजिया कैसर को तो धुन सवार हो गई थी.

कभी मैगजीन में पढ़ा था, शू क्लीनिंग सर्विस के बारे में. तब फिजियोथेरेपी की पढ़ाई कर रही थी लेकिन दिमाग में आइडिया अटक गया. हालांकि नौकरी और शादी की जद्दोजहद में यह सपना कहीं दफन-सा हो गया था. फिर घर-गृहस्थी और बाल-बच्चे के लालन-पालन में कब समय निकल जाता, पता ही नहीं चलता था. जब बच्चा बड़ा होने लगा तो उसे खुद को अकेलापन लगने लगा. सोचा, कोई बिजनस कर लूं. मन तो था ही और बार-बार जेहन में वह आइडिया भी गूंज रहा था जिसे करने की सालों साल पहले तमन्ना जगी थी.

जूतों की देखभाल या यूं कहें जूतों का हॉस्पिटल जैसा कुछ काम ज्यादातर लोगों को एकबारगी तो समझ ही नहीं आता था. जिन्हें समझ आ जाता, वे कहते यह बेकार का आइडिया है. जिन्हें आइडिया ठीक लगता उन्हें शहर का माहौल औऱ मिजाज ऐसा नहीं लगता था कि ऐसा काम किया जाए. लोग कहते - पटना में इसके लिए एक ग्राहक नहीं मिलेगा. किसी को लगता - फिजियोथेरेपिस्ट जैसा सम्मानजनक काम करके, अब ऐसा काम करोगी... अजीब है. जब अपने मुंह सिकोड़ते हैं न, तो अजीब लगता है, लेकिन संभवत: यहीं हमें हमारा पैशन सहारा देता है.

पैरेंटल फैमिली ने सपोर्ट नहीं किया था. मगर, फिर उन्हें यह कहकर भरोसा दिलाया कि सफल नहीं हुई तो सब छोड़कर वापस नौकरी पर आ जाऊंगी लेकिन एक मौका तो तो लेने दो. ससुराल पक्ष के लोगों ने कहा कि पति अगर राजी है तो हमें दिक्कत नहीं. पति कहते थे कि बिजनेस तुम नहीं कर पाओगी लेकिन पत्नी की इच्छा का मान रखा और 'एक कोशिश' के लिए उन्होंने हामी भर दी.

2014 की उस दोपहर 'रिवाइवल शू लॉन्ड्री प्राइवेट लिमिटेड' (Revival shoe laundry pvt ltd) नाम से कंपनी शुरू की. 1 लाख रुपये से शुरू किया और आज लगभग 25 लाख सालाना की अर्निंग है. जब शुरू किया था तो बस तीन लोग थे- रिसेप्शनिस्ट, मोची और वह खुद. अब 15 लोग हैं.

रास्ते में जो रोड़े आए...

36 साल की शाज़िया से हमने जब पूछा कि यहां कौन जूते ठीक करवाने के लिए स्पेशल सर्विस लेता है? यह तो भारत में चलन ही नहीं है. तब वह बोलीं - फोन और टीवी को लेकर तो सर्विस सेंटर होता है लेकिन मंहगे से मंहगे जूतों के लिए कोई सर्विस सेंटर नहीं है. रीटेलरों से संपर्क किया और कहा कि कस्टमर्स और अपने खुद के प्रॉडक्ट से जुड़ी समस्या के लिए हमें काम दें. शाज़िया बताती हैं, 'शुरू में ऐसे जूते देते थे जो पूरी तरह से टूटे फूटे हों और सड़क पर फेंक दिए गए हों... हालांकि हमने वह भी ठीक करके दिया. ऐसी कुछ घटनाओं के बाद उनका हम पर विश्वास बना... हमें काम देने लगे और हम मेहनत करके उन्हें अच्छे से लौटाते.' कहती हैं शाज़िया. 'अब सोसायटीज़ में जाकर अपने बिजनस का प्रचार करते हैं ताकि लोगों को पता चले कि इस तरह का आपका काम भी होता है. पिक एंड ड्रॉप फैसिलिटी हम देते हैं.'

शाज़िया कहती हैं, 'मुझे कुछ भी पता नहीं होगा.. ऐसा वे सोचते थे... बाद में उन्हें मेरी बातों और मेरे काम से यकीन हुआ. कस्मटर से उन्हें फीडबैक जब मिला तब उन्हें मुझ पर भरोसा बना. लोगों को भी सर्विस लेने के बाद 'अडिक्शन' हो गया... आखिर क्लीन शूज पहनने की आदत हो गई.' अब काम मिलता है और अच्छे से मिलता है. यह सही है कि उनकी ग्रोथ दिन दूनी, रात चौगुनी नहीं है. अन्य कुछ बिजनेसेस के मुकाबले उनकी ग्रोथ स्लो है लेकिन ग्राफ का ऊपर की ओर जाना जारी है और यह काफी संतोषजनक है. आखिर मन का करना और ठीक-ठाक कर पाना... यह संतोषजनक तो है ही.

शाज़िया कहती हैं कि बहुत उतार-चढ़ाव आए लेकिन कभी ऐसी निराशा नहीं हुई कि वापस अपनी फिजियोथेरेपी वाली फील्ड में जाऊं. अब एक ठीक-ठाक मॉडल डेवलप हो गया है और टीम भी बन रही है. ऐसे में कोई मतलब ही नहीं कि वासप मुडूं... फुल फ्लेज्ड इस पर काम करूं, और करती रहूं... बस यही कोशिश है.

अपना खुद का कारोबार शुरू करने वाली औरतों के लिए आपका कोई मेसेज या टिप्स?


शाज़िया कहती हैं - आप जिस भी आइडिया पर काम करना चाहती हों जो भी बिजनेस करना चाहती हों तो पहले मार्केट सर्वे कर लें. पूरी प्लानिंग कर लें. यानी, 'फंडामेंटल ऑफ दैट बिजनेस' आप समझ लेती हैं तो आपको अपनी राह चलना और सफलता प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान हो जाता है. इसलिए जो भी काम करना है, उसे लेकर होमवर्क कर लें. ताकि जिस बिजनस को आप करना चाहती हैं उसे लेकर कम से कम दिक्कतें आएं.


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Sunday, April 26, 2020

औरतों के यूटरस में कहां से आ जाते हैं ये फाइब्रॉयड्स...

जिस यूटरस (Uterus)में बच्चे नहीं होते, उसमें कभी-कभी फाइब्रॉयड्स (fibroids) आ जाते हैं...', स्त्री रोग विशेषज्ञ (Gynecologist) ने जब मुझे Uterine fibroid को लेकर यह बात कही तो मेरे जेहन में उन महिलाओं के नाम और चेहरे घूम गए जिन्होंने बच्चे भी पैदा किए लेकिन फिर भी वे फाइब्रॉयड्स की 'शिकार' हो गईं, और सालोंसाल इससे जूझती रहीं. कुछ आज भी जूझ रही हैं. तो फिर ये फाइब्रॉयड्स, जिसे एक प्रकार की रसौली भी कहा जा सकता है, होते क्यों है? एक हंसती-खेलती स्त्री की जिन्दगी में तांडव मचाकर रख देने वाले इन फायब्रॉयड्स की पैदाइश के कारण क्या हैं? कैसे ये पनपते हैं और कैसे ये खत्म होते हैं? इनका इलाज क्या है? ये खत्म होते भी हैं या ताउम्र परेशान करते हैं? क्या ये कैंसर में भी तब्दील हो सकते हैं? तमाम रोगों की तरह फाइब्रॉयड्स के पीछे भी लाइफस्टाइल और स्ट्रेस की उठापटक है लेकिन क्या सिर्फ इतना ही है?

यदि आप पुरुष हैं और ये लेख पढ़ रहे हैं तो आपको बता दें कि इस रोग से जूझती हूई महिलाएं आपके इर्द- गिर्द भी हो सकती हैं. इसलिए, इस दुर्दांत तकलीफदेह समस्या के बारे में पढ़ें, समझें और मददगार बनें. दरअसल फाइब्रॉयड्स ऐसे ट्यूमर (गांठें) हैं जो कभी बेहद तकलीफदेह मगर नॉन-कैंसरस होती हैं देऔर कभी-कभी केवल 'शरीर में पड़ी रहती' हैं. ये ऐसे ट्यूमर होते हैं जो यूटरस की मांसपेशियों के टिश्यूज़ से पैदा हो जाते हैं. वेबएमडी के मुताबिक, इनके साइज, शेप और इनकी लोकेशन हमेशा एक सी होती हो यह जरूरी नहीं. ये यूटरस के भीतर भी हो सकते हैं और इसके बाहर भी चिपके हुए हो सकते हैं. कई तो काफी छोटे होते हैं लेकिन 
भारी और बड़े.

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आपको फाइब्रॉयड्स (fibroids) हैं, यह कैसे पता चलेगा...?

आपको फाइब्रॉयड्स (fibroids) हैं, यह अल्ट्रासाउंड के जरिए पता चलता है. हां, अपने शरीर और पीरियड्स से जुड़े कुछ बदलावों पर गौर करें और डॉक्टर से मिलें. फाइब्रॉयड्स का शक होने पर वह भी पुख्ता तौर पर प्रॉपर डायग्नोज के बाद ही बताएगा कि आप इस समस्या से पीड़ित हैं. एक महत्वपूर्ण बात यह है कि शुरू में पता ही नहीं चलता है कि ऐसा कुछ है. पीरियड का अनियमित हो जाना, पीरियड्स का 6 दिन से ज्यादा चलना, पेल्विक पेन (Pelvic Pain), लोअर बैक पैन (Lower back pain), बार बार यूरिन आना, अक्सर कब्ज रहना, शारीरिक संबंधों (Sexual relations) के दौरान दर्द होना. कई बार इतनी ज्यादा ब्लीडिंग होने के चलते महिला को एनीमिया भी हो सकता है. इस प्रकार की दिक्कतों के बढ़ने पर जल्द से जल्द डॉक्टर से मिलें. यदि फाइब्रायड हों तो अपने लाइफ स्टाइल में बेहतर बदलाव लाएं. लाइफस्टाइल में जरूरी बदलावों के बारे में हमने इसी लेख में नीचे लिखा है.

आखिर ये फायब्रॉयड्स क्यों होते हैं...?

मेडलाइन प्लस के मुताबिक, डॉक्टर पुख्ता तौर पर नहीं बता पाते कि फाइब्रॉयड्स का असल कारण क्या है. लेकिन रिसर्च और अध्ययनों से पता चला है कि इसके पीछे कई कारण होते हैं. जैसे कि जेनेटिक बदलाव. हारमोन्स में बदलाव. Estrogen और progesterone ऐसे दो हॉरमोन हैं जिनके चलते कई बार फायब्रॉयड्स के बढ़ने की घटनाएं सामने आई हैं. फाइब्रॉयड्स में एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टोरेन पाया जाता है और ये दोनों सामान्य यूटरिन मसल में भी पाए जाते हैं. आमतौर पर फाइब्रॉयड्स मीनोपॉज के बाद अपने आप सिकुड़ जाते हैं क्योंकि तब हॉरमोन्स का सीक्रेशन कम हो जाता है.

कैसी लाइफस्टाइल बेहतर, क्या खाएं-क्या न खाएं

 फल और सब्जियों का सेवन अधिक करें. माना जाता है कि सेब, ब्रोकली व टमाटर जैसे ताजे फल और सब्जियां खाने से फायब्रॉएड के खतरे को काफी हद तक कम किया जा सकता है.

• रक्तचाप यानी ब्लड प्रेशर पर नजर रखें. ब्लड प्रेशर बढ़ना फायब्रॉएड के लिए हानिकारक बताया जाता है.

• सबसे महत्वपूर्ण बात जो आपको ध्यान रखनी चाहिए वह है स्ट्रेस लेवल कम करना. मेडिटेशन या योगा के जरिए खुद को शांत रखने का प्रयत्न करें. चिंताओं को खुद पर हावी न होने दें.

• स्मोकिंग और एल्कोहल से दूरी बनाकर रखें. शरीर में एस्ट्रोजन का स्तर बढ़ना है जोकि फायब्रॉएड के लिए ठीक स्थिति नहीं है.

• चाय कॉफी यानी कैफीन की मात्रा कम करना बेहतर.

• व्यायाम पीसीओडी और इस परिस्थति में जरूरी बताए जाते हैं. वजन संतुलित होगा तो ठीक होने की संभावना रहेगी. इसके अलावा व्यायाम से शरीर डीटॉक्सीकेट भी होता है.

• डॉक्टर्स इस स्थिति में प्रोसेस्ड फूड के सेवन से परहेज करने के लिए कहते हैं. हार्मोंस के स्तर को डिस्बैलेंस करने में जंक फूड, प्रोसेस्ड फू़ड का खास योगदान होता है.

फाइब्रॉयड्स (fibroids) से निजात के लिए क्या हैं इलाज...

फाइब्रॉयड्स (fibroids) के चलते समस्याएं गंभीर रूप लेने लगें तो डॉक्टर दवाएं देते हैं और कभी-कभी सर्जरी के लिए भी सलाह देते हैं. मुंबई के इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर पॉपुलेशन साइंसेस की तृप्ति मेहर ने एक संबंधित स्टडी के बाद कहा कि कई बार डॉक्टर्स गर्भाशय निकालने जैसे सुझाव तब भी दे डालते हैं जब इसकी जरूरत नहीं होती. Indusdictum के मुताबिक, वह कहती हैं कि hysterectomy यानी गर्भाशय का रिमूवल जैसे उपाय अत्याधिक ब्लीडिंग और फाइब्रॉयड्स के केसेस में भी सुझा दिए जाते हैं जबकि इन समस्याओं में गर्भाशय को शरीर से रिमूव कर देने की जरूरत नहीं भी होती. गर्भाशय निकाल देने के बाद न तो आपको पीरियड्स होंगे और न ही आप कभी मां बन पाएंगी.

यूटरिन आर्टरी ऐम्बॉलिजेशन (Uterine Artery Embolization- UAE): यदि फाइब्रॉयड्स का साइज बड़ा है, तो यह तरीका अपनाते हैं जिसमें एक छोटी सी 'ट्यूब' को पैरों की रक्त वाहिकाओं के जरिए शरीर में पहुंचाया जाता है. दरअसल इस प्रक्रिया के तहत फाइब्रॉयड्स को सिकोड़ने की कोशिश की जाती है. US National Library of Medicine National Institutes of Health में छपी रिपोर्ट के मुताबिक, कई मामलों में देखा गया है कि इस तरीके को अपनाने वाली महिलाएं गर्भधारण कर पाई थीं.

एंडोमेट्रियल एब्लेशन (Endometrial ablation): यदि फाइब्रॉयड्स का आकार बहुत अधिक बड़ा नहीं है और ब्लीडिंग अत्याधिक होती है तो यह तरीका अपनाया जाता है. इसमें गर्भाशय की परतों को हटा दिया जाता है. बलून थैरेपी, हाई फ्रीक्वेंसी रेडियो वेव्स और लेजर एनर्जी जैसे तरीकों में से किसी एक के जरिए यह किया जाता है.

अल्ट्रासाउंड सर्जरी (MRI Guided Focused Ultrasound Surgery): US National Library of Medicine National Institutes of Health के मुताबिक, एमआरआई के जरिए स्कैन किया जाता है और देखा जाता है कि आखिर फाइब्रॉयड किस जगह पर हैं. एक प्रकार की मेडिकल-सुई के जरिए फाइबर ऑप्टिकल केबल डाली जाती है जो फाइब्रॉयड तक पहुंचकर इसे सिकोड़ देती है.

(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर पब्लिश्ड मेरा आर्टिकल)

Thursday, April 23, 2020

यूं जो तकता है आसमान को तू, कोई रहता है आसमान में क्या?


तीसरी मंजिल के हमारे कमरे की खिड़की तीसरी मंजिल के उनके आखिरी कमरे की ओर खुलती थी. उनके कमरे में हमारी खिड़की न चाहते हुए भी झांकने की कोशिश करती रहती थी. क्योंकि, दिन भर उसके पाट खुले रहते और कभी पर्दा लगता और हटता रहता. हमारी खिड़की हम बच्चों की तरह ही अक्सर गतिमान रहती. मगर उनकी खिड़की अक्सर मोटे पर्दे से ढकी रहती. खिड़की के कोनों से एक किरण भी कमरे में प्रवेश नहीं कर सकती थी क्योंकि मोटा दरी जैसा पर्दा कोनों में ठूंसकर फंसाया रहता था. जब-जब वह पर्दा हटता तो मैले शीशों वाली खिड़की पर चटकनी लगी होती. हम बच्चे आंखें मिचमिचाकर अंदर देखने की कोशिश करते रहते लेकिन दिखता कुछ नहीं.


हम अंदर क्यों देखना चाहते थे? सवाल लाजिमी है. दरअसल, उस घर से कभी- कभी रोने की आवाज आती. खिड़की के पास सटा जैसे कोई रो रहा हो. रोना हल्का नहीं होता था, कभी- कभी चीख- चीखकर रोने की आवाज आती. जैसे कोई पीट रहा हो या फिर कोई जिद में रोता है न, वैसे. वहां जो परिवार रहता था उनकी बेटी उसी स्कूल में पढ़ती थी जिसमें हम पढ़ रहे थे. उनका बेटा मेरे भाई की जान पहचान वाला था. क्योंकि भाई ने ही एक दिन धीमी आवाज में मेरी ममी को बताया था कि पायल की ममी 'पागल' हैं और उनको कभी-कभी दौरे पड़ते हैं. अड़ोस-पड़ोस की इस परिवार को लेकर कानाफूसी से यह बात पक्की हो गई. यह भी कहा गया कि पायल और राजेश अपनी ममी के चलते शर्म खाते हैं और इस मारे किसी से ज्यादा मिलते जुलते नहीं हैं. मैंने अपनी ममी को दो-तीन बार इस परिवार का जिक्र चलने पर पापा से कहते पाया कि इलाज क्यों नहीं करवाते ये लोग ढंग से. ममी की आवाज में गुस्सा सा होता. बेचैनी सी होती. इस परिवार का जिक्र इसलिए भी चल निकलता था क्य़ोंकि पड़ोस से खबरें छन कर आ रही थीं कि पायल शायद स्कूल छोड़ दे.

पायल ने अंतत: स्कूल छोड़ दिया था. वह कई दिन नहीं दिखी. बालकनी में कपड़े सुखाते उतारते, और झाड़ू लगाते हुए वह लोगों को नहीं दिखी. हमने सुना कि वह दूसरे धर्म के किसी लड़के साथ भाग गई है. बाद में पता चला कि वह भागी नहीं थी, रिश्तेदार के घर गई हुई थी. रिश्तेदार के घर! और लोग कह रहे थे कि वह भाग गई है! इस बीच उनके कमरे का पर्दा हटा रहा. शायद वह ममी को साथ लेकर रिश्तेदार के घर गई थी. अब हमें एक बंद अलमारी दिख जाती थी. खिड़की आधी खुली और आधी बंद रहती थी. तेज हवा में खटाखट बजने लगती थी. रात में जब खिड़की बजती थी तो बहुत डर लगता था. क्योंकि, ऐसा लगता था कि वहां बैठा कोई रो रहा है. मुझे ऐसा लगता वहां पायल की ममी बैठी हैं. इस भ्रम ने मेरी कई रातें हराम कीं. क्या वह 'पागल' थीं? पागल तो चिल्लाते रहते हैं न. हाथ- पांव मारते हैं. चीजें तोड़ते हैं. फिर पायल की ममी ने कभी कमरे की खिड़की खुद क्यों नहीं जो...र से धक्का मारकर खोली थी? वह रोती थीं लेकिन लड़ती- चिल्लाती क्यों नहीं थीं. मैंने उन्हें कभी नहीं देखा था. मगर अड़ोस-पड़ोस की आंटियों और ममी ने देखा था. ममी ने बताया था कि वह कभी-कभी बालकनी में नहाकर धूप में सिर के बाल सुखाने बैठ जाती थीं. ऐसे ही कभी तौलिया उठाने आ जाती थीं. किसने कब कहा, यह तो याद नहीं लेकिन बीच- बीच में यह सुना हुआ याद है कि 'वह अब ठीक हैं', 'उन्हें फिर दौरे पड़ने लगे हैं.' आदि इत्यादि.

फिर एक दिन, कई महीने बाद, मैंने ममी से पूछा, पायल औरी शिफ्ट हो गए हैं क्या. ममी ने कहा था, यहीं तो हैं. मैंने इसलिए पूछा था क्योंकि कई दिनों तक वह खिड़की खुली रही. पर्दा भी भूरा काला नहीं था, किसी और रंग का साफ सुथरा था. और अब पूरा हटा रहता था. कोनों में गिट्टक लगी रहती और इसलिए हवा चलने पर अब शीशे वाले पाट बजते नहीं थे. पता नहीं मुझे कैसे पतादेश चला, लेकिन कुल यह पता चला कि 'पायल की ममी गुजर गई हैं.' 'वह बीमार भी रहने लगी थीं और 'पागल' तो थी हीं.' 'पायल छोटी बच्ची कहां तक पागल औरत की देखभाल करती.'


10 तारीख को मेंटल हेल्थ डे है. अक्टूबर का कैलेंडर देखते हुए मुझे पायल याद आ रही है. उसकी ममी भी याद आ रही है. मेरे मन में आज वही बेचैनी है जो उस वक्त मेरी मां की आवाज में थी. 'इलाज क्यों नही करवाते ये लोग ढंग से... '.

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर हमारा रवैया अगर स्वस्थ्य होता, यदि उनका इलाज करवा लिया गया होता, तो पायल को न स्कूल छोड़ना पड़ता, न मां को खोना पड़ता...  पायल और राजेश के मैंने यहां नाम बदल दिए हैं. मगर नाम बदल देने से हालात नहीं सुधरते. हालात सुधरते हैं, कदम उठाने से. कदम, बेहतरी की दिशा में.. उठाने से.

फिर मैंने कई दिन बाद पायल को बालकनी में देखा था, वह हाथ में चाय का कप लिए आसमान की ओर कहीं दूर क्षितिज में देख रही थी. ऐसा कई बार हुआ. वह ऐसे कई बार दिखी. जौन एलिया का यह शेर मुझे आज इस दृश्य का ध्यान करके याद आ रहा है- यूं जो तकता है आसमान को तू, कोई रहता है आसमान में क्या?

मानसिक स्वास्थ्य को लेकर चाहिए अवेयरनेस, डराते हैं आंकड़े

4 अक्टूबर से लेकर 10 अक्टूबर तक देश में नेशनल मेंटल हेल्थ वीक मनाया जा रहा है. इस बार की थीम है 'प्रिवेन्शन ऑफ सुइसाइड्स' यानी आत्महत्या की रोकथाम. वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन (WHO) की रिपोर्ट के हवाले से टाइम्स ऑफ इंडिया ने छापा है कि 15 से 29 साल के आयुवर्ग में मौत का दूसरा सबसे बड़ा कारण आत्महत्या है. हर 40वें सेकंड में एक खुदकुशी होती है.हर साल करीब 8 लाख आत्महत्याएं दर्ज होती हैं. अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो खुदकुशी करने वाला हर तीसरा शख्स भारत से होता है. यह कितना दिल दहला देने वाला है!


डॉक्टर्स कहते हैं, शरीर बीमार होता है तो दवाएं लेते हैं. दिमाग खराब (परेशान) होता है तो चुप्पी ओड़ लेते हैं. खुद को समझाते हैं जैसे कुछ हुआ ही नहीं. कुछ कोशिश करते हैं लेकिन नहीं संभलता तो उसे उसके हाल पर छोड़ देते हैं. किसी प्रफेशनल मदद के लिए हाथ नहीं बढ़ाते. इसका नतीजा यह होता है कि मानसिक तकलीफ कब मानस और मस्तिष्क को अपने कब्जे में ले लेती है पता ही नहीं चलता. इंडिया टुडे की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पूरी दुनिया की कुल आबादी का 12 फीसदी हिस्सा मानसिक गड़बड़ियों से जूझ रहा है. यानी, 450 मिलियन लोग. यानी, चार में से एक शख्स ऐसा है जिसका मानसिक दिक्कत की अगर सही पहचान कर ली जाए तो इलाज से वह ठीक हो सकता है. 2002 के डाटा बताते हैं कि 154 मिलियन लोग डिप्रेशन से जूझ रहे हैं. यह आंकड़ा अब और बढ़ चुका होगा. जरूरत है, खुद को और अपने पास को कुछ संवेदनशीलता के साथ देखने की, ताकि समय रहते बात बिगड़ने से रोकी जा सके.


(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर 10 अक्टूबर को पब्लिश्ड)

Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट

  हिन्दी के मशहूर कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं को मैंने न्यूज18 हिन्दी के लिए पढ़ा था. यहां मैं पहली बार अपना हिन्दी पॉडकास्ट पोस्ट...