Wednesday, November 4, 2009

एक अमीबा

शब्दों के पैरों से घुंघरू बंधे हैं
कभी कभी कानों में शोर सा भरते हैं
ढांप लो हथेलियों से
कान को अगर कभी
तो चमड़ी पे तेज की थाप से बजते हैं
और कभी चमड़ी को
नोंच लो खुरच भी लो
तेज रोशनी बनके शब्द
आंखों में उतरते हैं

क्या करोगे नजर जब शब्द से ढकी होगी
क्या करोगे पांव जब शब्द से अटे होंगे
क्या करोगे सांस जब शब्द से सनी होगी
क्या करोगे शब्द जब मौन बन चीखेंगे..

चुनना तो है कि
कैसे शब्द को पचाना है
न पचे तो अपच सी
कर देते हैं घुंघर से शब्द
फिर कभी एक दिन मीरा के श्याम बन
नैया के खिवैया भी बनते हैं
यही शब्द
पर यकीन हो चला
शोर गजब ढाते हैं
आसमान गिरा रे गिरा
फिर फिर गरियाते हैं
शब्दों के पैरों से घुंघरू बंधे हैं
कभी कभी कानों में शोर सा भरते हैं

पीले नीले सफेद और भूरे लाल से
रंगीन कोई इंद्रधनुष है
सरगम की कल्पना..या फिर?
कौन जाने क्या बला है
पर यकीन तो हो चला है
बार बार धरती से खिसकते हैं यही शब्द

रहें तो रहें, या न रहें
बसें तो बसें, या न बसें
बजें तो बजें, या न बजें
या सदा बने ही रहें
पर कभी निजात दें
और कभी बता भी दें
क्या है अमीबा सा जो
खुद पे इतराते हैं
शब्दों के पैरों से 'सुनहरे' घुंघरू बंधे हैं...

4 comments:

M VERMA said...

बहुत सूक्ष्म और बेहतरीन रचना

शरद कोकास said...

मै यह सोचकर पढ़ गया कि किसी वैज्ञानिक विषय पर कविता होगी खैर ..कुछ रचने का प्रयास तो है अमीबा से विकसित इस संरचना में ।

Udan Tashtari said...

सुन्दर भाव!

राकेश कौशिक said...

सराहनीय कविता और सोच.

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