...इस बीच श्रीलंका सरकार ने अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा की अपील ठुकारते हुए तमिल विद्रोहियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई रोकने से इनकार कर दिया है..
यह खबर अभी अभी पढ़ी बीबीसीहिंदी पर। तो श्रीलंका सरकार ने विद्रोहियों के खिलाफ ताबड़तोड़ गोलीबारी का सिलसिला न रोकने का फैसला लिया है। सीधे कटु शब्दों में कहें तो सरकार ने हत्याओं का सिलसिला जारी रखने का फैसला लिया है। हत्याएं किनकी...? जो मर रहे हैं वे कौन हैं? जो आम लोग सरकार के नियंत्रण वाले एरिया में आने की कोशिश कर रहे थे, उनमें से भी कई या अधिकांश मारे गए। जो बचे उन्हें तमिल विद्रोही मार रहे हैं। लिट्टे के निशाने पर सरकार है और सरकार के निशाने पर लिट्टे। इन दोनों के बीच वे लोग हैं जो बस जीना चाहते हैं। दरअसल मैंने देखा है कि जो जीना भर चाहते हैं वे ही जी नहीं पाते हैं। जो मारने की तमन्नाएं और आरजूएं अपने इर्द गिर्द लपेटे सांय सांय पसरते चलते हैं वे ही जी पाते हैं। बस जीना भर चाह लेने वाले लोग हर देश हर काल में मरते ही हैं, अक्सर कुत्ते की मौत। श्रीलंका में किसका किसके खिलाफ संघर्ष है ये? क्या श्रीलंका सरकार यह मान कर बैठी है कि एक बार लिट्टे का 'सिर कुचल दिया जाएगा' तो वे दोबार सिर नहीं उठाएंगे? क्या यह खुद को दिया गया एक छलावा नहीं होता? क्या दबा कर आग को वाकई बुझाया जा सकता है? दबी चिंगारी मौका पड़ते ही जलजला नहीं लाएगी, कौन कह सकता है? फिर समाधान क्या है? यह अनवरत हिंसा...तो कतई नहीं।
सरकार नामक संस्था का हथियार उठाना क्या हमेशा सही होता है? सरकार के खिलाफ विद्रोह क्या हमेशा गलत होता है? क्या हिंसा कभी भी सही ठहराई जा सकती है? क्या हिंसा कोई समाधान है? जो मर रहे हैं, मेरे कुछ नहीं लगते। आपके भी नहीं लगते। पर क्या इतने भर से चुप रह जाना न्यायसंगत हो जाता है...? पर एक अच्छे इंसान की तरह मरने वालों(लिट्टे और सरकारी सेना के इंसानों) की आत्मा के लिए शांति मांग कर चलिए इतिश्री कर ली जाए...। सुबह काम पर जाना है।
Thursday, May 14, 2009
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Podcast: सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविताओं का मेरा पॉडकास्ट
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