Thursday, September 17, 2009
ईश्वर, कुदरत, आस्था
ईश्वर के होने न होने को ले कर चली जिस बहस की शुरूआत प्रणब प्रियदर्शी जी ने की थी, उसे आगे बढ़ाया है संजय ग्रोवर ने। यह टिप्पणी कमेंट के तौर पर आई थी जिसे ज्यों का त्यों यहां पोस्ट कर रही हूं।
संजय जी, स्वाभाविक तौर पर यह देखा जा सकता है कि नास्तिकों को आस्तिकों की और आस्तिकों को नास्तिकों के तर्क अजीबोगरीब लगते हैं। दोनों को ही एक दूसरे की दुनिया अजूबी और आधारहीन तर्कों से भरी लगती है।
पूजाजी, बुरा मत मानिएगा, मुझे ईश्वर को मानने वालों के तर्क हमेशा ही अजीबो-गरीब लगते हैं। और उनके पीछे फिलाॅस्फी ( ) भी ऐसी ही है जो उन्हें अजीबो-गरीब ही बना सकती है। एक शेर में यह मानसिकता बखूबी व्यक्त हो गयी है -
जिंदगी जीने को दी, जी मैंने,
किस्मत में लिखा था पी, तो पी मैंने,
मैं न पीता तो तेरा लिखा ग़जत हो जाता-
तेरे लिखे को निभाया, क्या ख़ता की मैंने !
अब हम शायर महोदय से विनम्रतापूर्वक पूछें कि आपको पता कैसे लगा कि आपकी किस्मत में यही लिखा था। अगर आप न पीते तो यही समझते रहते कि आपकी किस्मत में न पीना लिखा था। क्योंकि ऐसी कोई किताब तो कहीं किसी फलक पर रखी नहीं है कि जिसे हम पहले से पढ़ लें और जान लें और घटना के बाद संतुष्टिपूव्रक मान सकें कि हां, यही लिखा था, यही हुआ। भाग्य और भगवान के नाम पर चलने वाली यह ऐसी बारीक चालाकी है जिसके तहत जो भी हो जाए, बाद में आराम से कहा जा सकता है कि हां, यही लिखा था। आखिर कोई कहां पर जाकर जांचेगा कि यह लिखा था या नहीं !? अब कुछ उन तर्कों पर आया जाए जिनके सहारे ‘भगवान’ को ‘सिद्ध’ किया जाता है। ये तर्क कम, तानाशाह मनमानियां ज़्यादा लगती हैं। इन्हीं को उलटकर भगवान का न होना भी ‘सिद्ध’ किया जा सकता है। देखें:-
1. चूंकि लाल फूल लाल ही रहता है, इसका मतलब भगवान नहीं है।
2. चूंकि दुनिया इतने सालों से अपनेआप ठीक-ठाक चल रही है इसलिए भगवान की कोई ज़रुरत ही नहीं है यानिकि वो नहीं है।
3. चूंकि दुनिया में इतना ज़ुल्म, अत्याचार, अन्याय और असमानता है जो कि भगवान के रहते संभव ही नहीं था अतः भगवान नहीं है।
4. भगवान को मानने वालों की भी न मानने वालों की तरह मृत्यु हो जाती है, मतलब भगवान नहीं है।
5. च्ूंकि अपनेआप सही वक्त पर दिन और रात हो जाते हैं इसलिए भगवान नहीं है। आदि-आदि....
अब यह तर्क है कि ज़बरदस्ती कि आप चाहे कुदरत कहो पर है तो वो ईश्वर......
धर्म और तर्क एक ही चीज़ है.......
कैसे पूजाजी !? इसे और विस्तार दूंगा। तब तक आप यह पोस्ट और प्रतिक्रियाएं पढ़ें:-
http://samwaadghar.blogspot.com/2009/06/blog-post_16.html
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4 comments:
हम सब को अपने दिल की बात सुननी चाहिए..
बस ..तर्क और धर्म सब अंतरात्मा की आवाज़ से परे है.
सुंदर लेख..बहुत बधाई..
तर्क और कुतर्क वाली वह बात याद आ गई जब शराब के फायदे और नुकसान बताने के लिए एक गिलास में शराब और एक में पानी रखा गया और उनमें कुछ कीड़े डाले गए। कुछ देर में शराब वाले गिलास में कीड़ों के मर जाने पर जहां शराब न पीने वाले समझे कि शराब मार देती है तो शराब के मुरीदों ने कहा कि शराब से पेट के सारे कीड़े मर जाते हैं। आस्था और तर्क के मसले में तो वैसे भी कहा जाता है कि दोनों साथ-साथ चल नहीं सकते तो फिर आस्था को तर्कों से समझने का मतलब क्या है। वैसे, कई बार देखा है कि विपदाएं नास्तिकों को भी ईश्वर याद दिला देती हैं।
नास्तिक कई तरह के होते हैं, ललितजी। एक नास्तिक भगतसिंह भी थे जिन्होंने फांसी चढ़ने से पहले ‘मैं नास्तिक क्यों हूं ?’ लिखा था। विपदा से डरकर ईश्वर को मानने वाले नास्तिक वे होते हैं जो दरअसल तो आस्तिक ही होते हैं मगर किसी खुन्नस या घटना विशेष के चलते ईश्वर से दुश्मनी ठान लेते हैं और उसे गालियां वगैरह दिया करते हैं। वैसे भी अगर हम किसी डर की वजह से ईश्वर को मानते हैं तो इसका मतलब तो यही निकलता है कि जो भी हमें डराएगा और हमें लगेगा कि वह हमारा कुछ बिगाड़ सकता है, हम उसे मानना-पूजना शुरु कर देंगे। या फिर हम ईश्वर को इसलिए मानने लगते हैं कि हमें लगता है कि वह हमें कुछ दे सकता है, हमारी मनोकामनाएं पूर्ण कर सकता है। डर और लालच, इन दोनों ही कारणों से ईश्वर को मानना क्या हमारे स्वार्थ का द्योतक नहीं है !? बहरहाल डर और ईश्वर के संबंध को समझाने की कोशिश करता एक किस्सा आप भी सुनिए:-
दो नासमझ लोग पहली बार ट्रेन मे जा रहे थे. अचानक वहां एक सोडा बेचने वाला आया. उन्होंने पहली बार सोडा की बोतल खोली वह भी बडी मुश्किल से. फ़िर उसमें से एक ने कहा, हमें कुछ पता नहीं यह क्या है, इसलिये मैं इसे पहले पीकर देखता हूँ. अगर सब कुछ ठीक रहा तब आधा तुम्हारे लिये छोड़ दूंगा, तुम इसे पी लेना. जैसे ही उसने सोडा की बोतल गटकी, उसी समय इत्तेफ़ाकन ट्रेन एक अंधेरी गुफ़ा के अंदर से गुजरी. कुछ एक मील लंबी गुफ़ा और घुप्प अंधेरा. सोडा पीते हुए मित्र ने दूसरे से कहा.. हाय! इसे पीते ही मुझे कुछ दिखाई नही दे रहा है, सब अंधेरा हो गया. अब मै अंधा हो गया तो हो गया तुम भूलकर इसे मत पीना.
मगर जिसे ईश्वर के होने में कभी विश्वास ही नहीं रहा वो क्यों तो गालियां देगा और क्यों विपदा में मानेगा !? क्या आपने किसी ऐसे व्यक्ति को विपदा में याद किया है जिसका न तो आपसे कोई परिचय हो, न कभी आपने उसे देखा हो,, न महसूस किया हो। अगर मैं यथासंभव, यथाशक्ति, यथाविवेक अपने कार्य ठीक से कर रहा हूं फिर भी कोई मुझे सिर्फ इसलिए डराना चाहता है कि मैं उसे सलाम-नमस्ते नहीं करता, तो मुझे तो वो या तो दादा लगेगा या फिर ब्लैकमेलर। मेरे ऊपर विपदा आती है तो मेरे सामने तो अकसर लगभग साफ होता है कि इसमें सामने वाले की बदमाशी है या मेरी ग़लती, कमी या कमजोरी। कोई सड़क पर मेरी टांग तोड़ दे तो इसमें ईश्वर कहां से आ जाता है ? या तो मैं ठीक से नहीं चल रहा होऊंगा या वो ग़लत ड्रायविंग कर रहा होगा। या दोनों में से कोई एक या दोनों किसी वजह से तनाव में रहे होंगे कि ध्यान भटक गया होगा। इसमें भी ईश्वर को कोई कष्ट देने का कोई अर्थ मुझे तो लगता नहीं। उसके बाद मैं अस्पताल में जाता हूं और सही वक्त या सही ढंग से मेरी मरहमपट्टी नहीं होती तो साफ है कि या तो अस्पताल का प्रबंधन सही नहीं है या वहां भ्रष्टाचार फैला है या कुछ और बात हो सकती है। मगर मैं वहां अपने हक या न्याय के लिए लड़ने के बजाय विपदा में ईश्वर को याद करके रोने लगूं और साथ में रिश्वत देकर या अपने किसी जानकार का प्रभाव-दबाव दिखा-धौंसाकर मरहमपट्टी भी करा लूं। तो कैसा तो हुआ मैं और कैसा होगा मेरा ईश्वर और कैसी होगी मेरी ईश्वर और जीवन की समझ !?
varsha said...
जहाँ तक भगवान् के अस्तित्व को नकारने की बात है, कुछ प्रश्न ऐसे हैं जिन्हें मानव आज भी उत्तर देने में असक्षम रहा है। मसलन यह दुनिया जो पृथ्वी तक सीमित नहीं है, इसका अंत कहाँ है। इसका आदि कहाँ है। समय जिसे हम घड़ी की सुइयों के द्बारा मापते हैं, यह कब शुरू हुआ। उससे पहले क्या था। पृथ्वी, सूर्य इन सबका तो अंत है, पर समय का अंत कब होगा।
ऐसे रहस्यमय प्रश्नों का उत्तर जब स्वयं नही मिल पाता तो मन करता है एक ऐसी शक्ति को मानने का जिसके पास इनके जवाब हों। इसी शक्ति को मैं इश्वर कहती हूँ और उसकी पूजा इसलिए करती हूँ की वह मुझ तुच्छ प्राणी को जीवन के व ब्रह्माण्ड के सत्य से अवगत करा दे।
पूजा करने को मैं पाखण्ड नहीं मानती क्योंकि कुछ पल आँख मूंदकर ठंडे दिमाग से, धूप से सुगन्धित व दीप से प्रज्वलित वातावरण में कुछ पल गुजारना मुझे दीन दुनिया से परे उस अलौकिक शक्ति के करीब लाता है। मुझे सुकून मिलता है, उम्मीद बंधती है।
sanjaygrover said...
वर्षाजी, मैं आपकी भावनाओं की कद्र करता हूं पर मुझे आप यह बताईए कक्षा में अगर किसी बच्चे के सवाल का उत्तर अघ्यापक नहीं दे पाता या वह क्लास से हर वक्त गायब रहता है तो ऐसे टीचर के बारे में आप क्या कहेंगी ? फिलहाल मैं आपके सवालों पर न जाकर इतना ही कहना चाहूंगा कि ईश्वर अगर है तो वह स्वयं आकर इन प्रश्नों के उत्तर क्यों नहीं दे देता !? अजीब गोरखधंधा है ! कैसी आंख-मिचैली है अपने ही चाहने वालों से यह, प्रभु !
आपको दीप-धूप के धंुए में बैठने से शांति और शक्ति मिलती है तो इसमें मुझे क्या एतराज़ हो सकता है ? मुझे भी नहा-धोकर किसी सरकारी दफतर में जाकर अपना काम ईमानदारी से करवा लेने में शक्ति और शांति मिलती है। या फिर कोई ऐसा लेख लिखने में जिसमें मैं अपने मन की बात ठीक से कह पाया होऊं और किन्हीं एक-दो लोगों को सोचने पर बाध्य कर पाया होऊं, राहत और ताकत मिलती है। यह तो अपना-अपना मनोविज्ञान है, वर्षा जी।
sanjaygrover said...
प्रिय मटुकजूली जी,
आपने कहा आप मेरी टिप्पणी से प्रभावित हैं। मुझमें जब तक भी अहं बाकी है, यह कहना झूठ ही होगा कि अपनी टिप्पणी से दूसरों को प्रभावित करना भी मेरे लक्ष्यों में से एक नहीं होता ।
मगर आप जैसा समझदार व्यक्ति एक तरफ तो यह कहे कि परमात्मा मेरे लिए एक सुविधाजनक शब्द है फिर उसके होने के बारे में वही पुरानी दलीलें भी दे, मेरी समझ में नहीं आता। अभी मेरे घर के बाहर कोई एक दस का नोट या एक पैन या कुछ भी फेंक जाए और मै यह पता लगाने में असमर्थ रहूं कि यह कौन फेंक गया है तो क्या मैं यह मानने लगूं कि यह परमात्मा फेंक गया है !? क्या कैनेडी की हत्या परमात्मा ने की थी (क्यों कि आज तक पता नहीं लग पाया कि किसने की थी)। दुनिया भर में जितने बम फट रहे हैं जिन्हें फेंकने वालों का पता नहीं लग पा रहा है, क्या परमात्मा फेंक रहा है!? जिस भी सवाल का हमें उत्तर नहीं मिल पा रहा उसका हम एक काल्पनिक उत्तरदाता क्यों खोज ले रहे हैं !? अगर सौ में से नब्बे सवालों के जवाब विज्ञान ने खोज लिए हैं तो बाकी दस के लिए हम थोड़ा इंतज़ार नहीं कर सकते !? 90 प्रतिशत पाने वाले बच्चे की 10 प्रतिशत और न ला पाने के लिए उपेक्षा, निंदा या उपहास या पिटाई किए जाएं, क्या यह अच्छी बात है !? क्या पृथ्वी पर इंसान न होता सिर्फ नदी, पर्वत नाले, रात-दिन, समय आदि-आदि होते, तब भी परमात्मा होता ?
समलैंगिक संबंधों की बात है तो ओशो को लेकर मेरी और आपकी स्मरण-शक्ति टकरा रही है। फिर भी औशो के लिए तो विकास तब तक ही रुका हुआ था जब तक व्यक्ति ‘संभोग से समाधि तक’ न पहुंच जाए। यानि उससे पहले की कोई भी अवस्था बीमारी के कम या ज़्यादा होने का ही संकेत भर हुई। चलिए, मान लेते हैं कि समलैंगिक विकास के कुछ निचले पायदान पर खड़े हैं। पर सभी विषमलैंगिक विकास की सीढ़ियां चड़ रहे होते हैं (हांलांकि यह आपने कहा नहीं है, मैं अपनी तरफ से सवाल रख रहा हूं), इसे कैसे जांचा जाए ? क्योंकि प्यार करने के भी बहुतों के अपने-अपने मकसद और मतलब होते हैं।
क्योंकि मेरे ब्लाग पर भी परमात्मा से संबंधित बहस चल रही है, इस कमेंट को आपके लिंक के साथ वहां भी लगा रहा हूं।
http://matukjuli.blogspot.com/2009/09/guru-shishya-sabandh-1.html#comment-form
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