वैसे तो प्रेम और आस्था निजी मामला है। विशेषतौर पर तब जब वह ईश्वर से/पर हो। लेकिन, मित्र
प्रणव प्रियदर्शी जी ने
बस बात- २ पोस्ट को ले कर घोर आस्तिकों (मुख्य रूप से मुझे) को आड़े हाथों लिया है। उनकी पोस्ट
किसके नाम पर जलाएं दिए ऐसी प्रतिक्रिया है जो तर्कपूर्ण होते हुए भी मुझे बार बार तर्कहीन लगी।
उनकी पोस्ट पर मैं अपनी बात प्वाइंट्स में रखना चाहूंगी-
आपने
अनुराग अन्वेषी जी की
प्रतिक्रिया का जिक्र किया है जिसमें वह कहते हैं-
और अफसोस है कि मिनट भर का करतब दिखाने वाले ईश्वर (वैसे अबतक उसका कोई करतब देखा नहीं हूं, सिर्फ सुनता आया हूं दूसरों के मुंह से) के नाम पर ही दीये जलाए जाते हैं। आइए, आस्था और भरोसे के साथ हम इनसान बने रहने की कसम खाते हुए दिये जलाएं। - तो मुझे ये बताइए, क्या पूरी सृष्टि अपने आप में ईश्वर का कोई करतब नहीं। असंख्य जीव जंतु पेड़ पौधे क्या सब कुछ एक करतब नहीं है?...और अगर यह करतब मैं और आप नहीं कर रहे हैं तो कौन कर रहा है? क्या वह कुदरत कर रही है? क्य़ा कुदरत का दूसरा नाम परमात्मा नहीं है! ( आप चाहें तो मत कहिए परमात्मा, कुदरत ही कह लीजिए, नाम में क्या रखा है) फिर इंसान बने रहने की कसम जिस आस्था के साथ हम खा रहे हैं, वह क्या ईश्वर पर आस्था नहीं है। आप कहेंगे ईश्वर पर नहीं वह खुद पर आस्था है। तो भई, मेरे अंदर आपके अंदर जो इंसानियत नाम का तत्व है, सत्व है, वह ईश्वर ही तो है। आप इसे इंसानियत कह लें, कुदरत कह लें या मैं उसे ईश्वर कह लूं...
दूसरा प्वाइंट-
आपने कहा-
भरपूर रौशनी वाले उम्मीद के दीये के लिए उसे एक काल्पनिक ही सही, पर ईश्वर चाहिए। ऐसा ईश्वर जिसे इंसानी समाज का सशर्त नही, पूर्ण समर्पण चाहिए होता है। उसे यानी ईश्वर को इंसान का ऐसा मन -मस्तिष्क चाहिए जो सवाल न करता हो, तर्क न करता हो, संदेह न करता हो। जो बस इस बात को अन्तिम सत्य के रूप में स्वीकार कर चुका हो कि ईश्वर जो करता है (और सब कुछ ईश्वर ही करता है ) वह अच्छा ही करता है।- ये कौन सा 'घटिया चालबाज और कपटी' ईश्वर है जो व्यक्ति का ऐसा मन मस्तिष्क मांगे जो सवाल न करता हो, तर्क न करता हो, संदेह न करता हो! ये तो बेवकूफों की फौज खड़ी करने वाली बात हुई ! ईश्वर ने मुझे विवेक दिया है। बुद्वि दी है। तर्क शक्ति दी है। आस्था दी है। भरोसा दिया है। जब यह सब खुद परमात्मा ने दिया है तो वह इनके बिना मुझे कैसे अपने पास आने के लिए कह सकता है? ( आप कहेंगे कि यह सब ईश्वर ने नहीं दिया ये तो मैने खुद अर्जित किया है तो भई जो मैने इतनी मुश्किलों के साथ अर्जित किया है, उसके बिना जो मुझे स्वीकारे या बुलाए, मैं उसके प्रति कैसे समर्पित रह सकती हूं ? ) वह ईश्वर नहीं जो कहे कि मुझे अंध समर्पण चाहिए। ईश्वर ने दिमाग दिया है ताकि इसकी कसौटी पर कस कर , तमाम सवाल कर, हर शंका का समाधान करके, ईश्वर को 'स्वीकारा' जाए। जी हां, ईश्वर तो है। वो तो है ही। आप और मैं नहीं मानेंगे उसके होने को, तो भी वह तो है ही। क्योंकि, हमारे होने से वह नहीं है। उसके होने से हम हैं। इसलिए, हम उसे 'मानते' या 'नहीं मानते' नहीं है। बल्कि, उसे स्वीकारते हैं या अस्वीकारते हैं। जैसे सामने रखी रोटी है, तो है ही। अब या तो हाथ में ले कर मैं उसे स्वीकार लूं, या फिर अस्वीकार दूं हाथ से दूर सरका कर। हमारे छिटकाने से रोटी का क्या जाता है! उसका अस्तित्व मिटता थोड़े ही है।..
और कौन कहता है कि जो होता है अच्छे के लिए होता है! जो यह कहते हैं वह असल में ईश्वर के साथ संबंध कायम ही नहीं कर पाए हैं। (और अफसोस कि मैजोरिटी इन्ही की है) दरअसल, थोड़ा सा सोचिए तो सही। गीता में कर्म की थ्योरी को सर्वोपरि रखा गया है। अच्छे कर्म का मीठा सा फल। बुरे कर्म का दुखदाई फल। किसी की मौत, किसी का एक्सिडेंट, किसी का तलाक, किसी की नौकरी छूटना आदि अच्छा तो होता नहीं है। किसी तरह से भी अच्छा नहीं होता। इसलिए जो होता है अच्छे के लिए होता है, थ्योरी ही गड़बड़ है। दरअसल,जो होता है कर्मों के फल के रूप में होता है। इसलिए ही होता है। वह अच्छा भी हो सकता है और बुरा भी। वरना ऐसा क्यों है कि एक ही मां के दो बेटे (एक सी परवरिश वाले) एक डॉन बनता है दूसरा पुलिस इंस्पेक्टर।
तीसरी बात-
आपने कहा-
संदेश साफ़ है यह पूरी दुनिया ईश्वर की है, पत्ता भी खड़क रहा है तो उसकी मर्जी से खड़क रहा है।– यह सचाई है। और, इस सचाई में कहीं भी अंध विश्वास नहीं है प्रणव जी। वरना ऐस ा क्यों होता है कि सूखा पत्ता ही खड़कता है और हरा पत्ता नहीं? क्यों गुलाब का रंग लाल है और गुलाबी भी पर नीला नहीं? किसने आपको संवेदनाएं दे दीं और किसी और को नहीं भी दीं? क्यों किया यह भेदभाव और क्यों सभी बच्चे पैदा होते ही एक से नहीं हैं? कौन है जो बॉयोलॉजी की सरंचना गड़ता है और कैमिस्ट्री के सूत्र तैयार करता है ? आप कहेंगे कि पानी ईश्वर का कोई वरदान नहीं ये तो पृथ्वी पर पाया जाना वाला पदार्थ है, जो असल में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना है और H2O नाम है इसका। तो बताइए, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन सही क्वांटिटी में मिलेंगे यह किसने तय किया...? सृष्टि की रचना के जिन नियमों को फिजिक्स, कैमसि्टी ने ढूंढ निकाला, वह किसने बनाए..? किसने तय किया कि समुद्र हमेशा लबालब रहेगा पर छलकेगा नहीं..etc.
चौथी बात-
आपने कहा-
तो अब अगर आप उससे असंतुष्ट हैं तो यह या तो आपकी नासमझी है या फ़िर ईश्वर में आपके भरोसे की कमी। दोनों ही स्थितियों में दोष आपका है। - ईश्वर से मैं तो महाअंतुष्ट हूं।
मेरी तुकबंदी पढ़ें। ईश्वर से अंतुष्ट होना नासमझी नहीं है। कम से कम मेरा ऐसा मानना है। क्या आपको लगता है ईश्वर से अंतुष्ट होना नासमझी है, यदि हां तो मैं हैरान हूं aapki इस बात पर .... । और, ईश्वर से असंतुष्ट होना भरोसे की कमी कतई नहीं। भरोसा जहां होता है वहां क्या सवाल नहीं होते! क्या हम अपने रिश्ते भी ऐसे ही जीते हैं? क्या हम अपना हर काम सवालों के जवाब के तौर पर ही नहीं करते? और सिर्फ इसलिए कि भई ईश्वर तो सामजिक रिश्तों इंसानी रिश्तों से परे की चीज है, मैं उस से सवाल कैसे कर सकता हूं..यह सोच तो ईश्वर को दूर ले जाएगी हमसे. उसने ही बुद्वि दी है तो वह कहीं प्रयोग हो न हो कम से कम इंसान और ईश्वर के रिश्ते में तो हो ही....। और ईश्वर कोई तानाशाह नहीं जिससे सवाल जवाब आपत्ति शिकायत गिला न रखा जाए या न किया जाए...।
पांचवी बात-
भूल कर भी किसी बात पर सवाल मत करो, न ही संदेह करो। और उसके आदेश की अवज्ञा? ऐसा तो सोचो भी मत।- ईश्वर कोई कानून नहीं है जो हमारे लिए बनाया गया है। इसलिए, मैं इस कानून को मानूं या अवज्ञा करूं, ये तो कोई बात नहीं। मैं नहीं जानती कि ईश्वर का कानून क्या है? कहां लिखा है किसके कान में फूंक गया है ईश्वर,.. मैं नहीं जानती। यदि आपको पता हो तो बताएं (कृपया पंडों की पोथियां मुझे यह कह कर न पकड़ाएं कि लोग कहते हैं इनमें ईश्वर ने अपना कानून लिखा है). वह कानून नहीं, आचार संहिताएं हो सकती हैं या फिर हो सकती हैं उच्च कोटि का साहित्य। इससे ज्यादा और कुछ नहीं।
छठी बात-
आपने कहा-
हमारी यह मान्यता तो स्पष्ट हो ही जाती है कि ईश्वरीय व्यवस्था को पूर्णतया समर्पित, कमजोर बल्कि मानसिक और भावनात्मक तौर पर गुलाम इंसान ही भाते हैं।- कोई भी व्यवस्था कमजोर लोगों के बलबूते नहीं चलती। पूर्णतया समर्पित, कमजोर बल्कि मानसिक और भावनात्मक तौर पर गुलाम इंसान के भरोसे तो भई बैलगाड़ी भी नहीं चलेगी! ईश्वर की 'सत्ता' चल रही है तो इसीलिए क्योंकि इसे पूर्णतया समर्पित, मजबूत (मानसिक और भावनात्मक तौर पर) इंसान ने स्वीकारा है। अगर ऐसा नहीं होता तो ईश्वर तो कब का 'ईश्वर' को प्यारा हो गया होता..!
सातंवी और अंतिम बात-
आपने कहा-
-बस यही दोनों विकल्प हैं और इन्हीं दो में से कोई एक हमें चुनना है। धर्म और आस्था ने पहले से बता रखा है कि उसे कैसा इंसान चाहिए। तर्क ने भी पहले से बता रखा है कि वह कैसा इंसानी समाज चाहता है।- यहां आपने दोनों चीजों को अळग कर दिया। धर्म और तर्क अलग नहीं हैं। धर्म ही कहता है कि तर्क करो। धर्म और आस्था ने जैसा इंसान चाहा है असल में वह वैसा ही इंसान है जैसा तर्क ने चाहा है। आप दोनों को अलग कैसे कर सकते हैं। तर्क भी ईश्वर का दिया (जीवन जीने का) हथियार है और आस्था भी। फर्क सिर्फ यह है कि (जो कि झगडे की मूल जड़ है ) कि अक्सर थक हार कर लोग खोखली उम्मीद (जिसे निराशा में हम लोग आस्था या विश्वास कह कर पुकारते हैं) को आगे रख देते हैं। तर्क को पलंग के नीचे सरका देते हैं, झूठी थाली सा। जबकि, तर्क के बाद जो आस्था पैदा होती है, वह ही स्थाई होती है। (धर्म से मेरा अभिप्राय कट्टर (आरएसएसवादी) व्याख्या से न लिया जाए कृपया..। ) जिन दो रास्तों की आप बात कर रहे हैं वे वाकई में एक ही रास्ते हैं। इंसानियत के साथ जीना धर्म के साथ जीना ही है। और, धर्म के साथ जीना यानी ईश्वर के साथ जीना है। इंसानियत जो मेरे आपके अंदर है। यानी, ईश्वर जो मेरे आपके अंदर है...।
इसलिए, यही कहा जा सकता है कि इंसानियत और ईश्वर का रास्ता एक ही है।
उम्मीद है मैं अपनी बात सही ढ़ंग से रख पाई हूं। ( फोटो साभार- गूगल)