जिंदगी इम्तहान लेती है... और जब वह परीक्षा लेती है तब हमारे पास इस परीक्षा में न बैठने का विकल्प ही नहीं होता. नतीजा, हम तय नहीं करते लेकिन नतीजे के बाद जो रास्ता हमें अख्तियार करना होता है, वह हम ही तय करते हैं. किस रास्ते पर चलना है और कब तक चलना है, दुखद नतीजे के सामने हथियार डालने हैं या फिर दूसरों के लिए मिसाल बनना है, यह हम ही तय करते हैं. आज से 10 साल पहले डोरिस फ्रांसिस ने जिन्दगी की एक बाजी हारी भले ही लेकिन उसके बाद ऐसी मिसाल बन पड़ीं कि दूसरों की सांसों को बचाने का जिम्मा ले लिया. डोरिस फ्रांसिस वह जाना- माना नाम हैं जिन्होंने रोड ऐक्सिडेंट में बेटी खोई, कैंसर से लड़ाई लड़ी मगर अपने मिशन को जारी रखा.
NH9 पर ट्रैफिक संभालतीं डोरिस फ्रांसिस खोड़ा की रहने वाली हैं. अब तो उनकी पहचान ट्रैफिक कंट्रोलर के रूप में बन चुकी है. पहले लोग बात नहीं सुनते थे, मगर अब सम्मान देते हैं. 61 बरस की हो चुकी हैं डोरिस, पर जज्बा ऐसा कि कोई युवा भी इनके सामने खुद को बुजुर्ग महसूस करे. पर खास बात यह कि वे ट्रैफिक की विभागीय कर्मचारी नहीं हैं. जो कर रही हैं स्वतः स्फूर्त और पूरी तरह से अवैतनिक है! बस, यहीं पर सवाल मन में उठता है कि ऐसा क्यों? इस सवाल का जवाब तलाशने में एक हादसे की बेहद मार्मिक कहानी सामने आती है.
2009 के नवंबर का महीना था वह. डोरिस की 21 बरस की बेटी निकी फेफड़े की बीमारी से जूझ रही थी. वह कहती हैं- उसे एक हॉस्पिटल से दूसरे हॉस्पिटल ले जाना था. हम सब ऑटो में बैठे थे. इसी दौरान गाजियाबाद से आ रही वैगनआर ने हमारी ऑटो को टक्कर मार दी. हम तीनों बुरी तरह जख्मी हो गए. लोगों ने हमें अस्पताल पहुंचाया. वहां से तीनों को अलग-अलग हॉस्पिटल में रेफर किया गया. बेटी गिरी तो फेफड़े फट गए थे. ऑटो चालक भी घायल हुआ. मुझे जब तीन दिन बाद होश आया तो फटाफट उस हॉस्पिटल के लिए भागी जहां बेटी ऐडमिट थी... जुलाई 2010 में बेटी ने मौत के सामने हथियार डाल दिया. चौराहे पर हुए एक्सिडेंट ने घर उजाड़ दिया था. ऐसा लगता था कि हम चौराहे पर आ चुके हैं. निराशा-क्षोभ, उदासी-दुख सब हम पर हावी होते जा रहे थे. तभी हम पति-पत्नी ने निर्णय किया कि अब हम इस चौराहे पर किसी को ऐसी दुर्घटना से मरने नहीं देंगे. हम दोनों ऐक्टिव हुए. दोनों ने समय बांटा और यहां ट्रैफिक नियंत्रित करने लगे. 2016 में कैंसर हो गया... मैं यही सोचती कि इस चौराहे पर अब ऐक्सिडेंट्स को कौन रोकेगा... तब मीडिया ने मदद की. एक कैंपेन चलाया. लोगों से मदद मिलनी शुरू हो गई. सीएम अखिलेश यादव की ओर से भी मदद मिली. दिल्ली पुलिस और यूपी पुलिसवालों ने मदद मिली. इलाज हुआ और आज ठीक हूं. उसी चौराहे पर मुस्तैदी से खड़ी हूं. एक ही धुन है...बस, औरों की जान बचानी है. अपनी परवाह नहीं.
कितना वक्त देती हैं इस सेवा के लिए, पूछने पर डोरिस कहती हैं- अभी सुबह 7 बजे गई थी 11 बजे लौटी हूं. सड़क दुर्घटनाएं कम हों इसके लिए क्या चाहती हैं आप? इस सवाल पर डोरिस कहती हैं - सरकार से गुजारिश है कि दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए गंभीर कदम उठाए सरकार. ट्रैफिक पुलिस और जागरूक हो. वह कई बार, बड़े बड़े अधिकारियों को रॉन्ग साइड से निकाल देती है, पर अक्सर आम आदमी फंसा रह जाता है. बीमार पेशेंट्स तक को नहीं बख्शते ये लोग.
डोरिस फ्रांसिस की शिकायत है, ‘हमने देखा कि चालान (Challan) गरीब आदमी पर मार है. अमीरों की बड़ी गाड़ियों को कोई नहीं रोकता-टोकता. 10 हजार की बाइक वाला मार खा रहा है. बात तो तब है जब ऑडी-मर्सिडीज वालों को भी पकड़ा जाए और चालान काटा जाए.'
पुराने दिनों को याद करते हुए वह कहती हैं कि जब हमने यह काम शुरू किया तब पब्लिक, नेता ने परेशान किया. उनका हमसे कहना था, 'ये सरकार का काम है... ये पुलिसवालों का काम है. मेरे बेटे को पिटवाया. लोगों ने मुझे पागल भी कहा लेकिन परवरदिगार का शुक्रिया कि आज लोग तहजीब से बात करते हैं. सिग्नल लाइट से ज्यादा मेरे हाथ के इशारे का इतंजार करते हैं. जब दो दिन नहीं दिखती तो लोग पूछते हैं कि क्या हुआ... लोग पानी पूछते हैं और पिलाते हैं. वे समझते हैं कि भलाई के लिए कर रहूं हूं ये काम मैं...'
अपने बचपन की ओर झांकते हुए कहती हैं वह कि पिता आर्मी में थे और जम्मू में पोस्टेड थे. लेकिन हालत ऐसे भी हो गए कि हम बच्चों को खाने के लाले पड़ गए. लोगों के घरों में पानी भरकर, झाड़ू पोंछा लगाकर चार पैसे कमाए. न सिर्फ अपना और भाई बहनों का पेट भरा बल्कि उन्हें पढ़ाया लिखाया भी. वह कहती हैं- कोठियों में मेड का काम किया और भाई बहनों को पढ़ाया-लिखाया. मैं पढ़ नहीं सकी... यहीं मैं मार खा गई.. लेकिन ईश्वर ने ऐसा दिमाग दिया कि मैंने बहुत कुछ सीखा... गाड़ी जब रूल तोड़कर भागती है तो नंबर नोट करती हूं.. आज पढ़ सकती हूं, लिख सकती हूं...
(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर पब्लिश्ड मेरा आर्टिकल)
NH9 पर ट्रैफिक संभालतीं डोरिस फ्रांसिस खोड़ा की रहने वाली हैं. अब तो उनकी पहचान ट्रैफिक कंट्रोलर के रूप में बन चुकी है. पहले लोग बात नहीं सुनते थे, मगर अब सम्मान देते हैं. 61 बरस की हो चुकी हैं डोरिस, पर जज्बा ऐसा कि कोई युवा भी इनके सामने खुद को बुजुर्ग महसूस करे. पर खास बात यह कि वे ट्रैफिक की विभागीय कर्मचारी नहीं हैं. जो कर रही हैं स्वतः स्फूर्त और पूरी तरह से अवैतनिक है! बस, यहीं पर सवाल मन में उठता है कि ऐसा क्यों? इस सवाल का जवाब तलाशने में एक हादसे की बेहद मार्मिक कहानी सामने आती है.
2009 के नवंबर का महीना था वह. डोरिस की 21 बरस की बेटी निकी फेफड़े की बीमारी से जूझ रही थी. वह कहती हैं- उसे एक हॉस्पिटल से दूसरे हॉस्पिटल ले जाना था. हम सब ऑटो में बैठे थे. इसी दौरान गाजियाबाद से आ रही वैगनआर ने हमारी ऑटो को टक्कर मार दी. हम तीनों बुरी तरह जख्मी हो गए. लोगों ने हमें अस्पताल पहुंचाया. वहां से तीनों को अलग-अलग हॉस्पिटल में रेफर किया गया. बेटी गिरी तो फेफड़े फट गए थे. ऑटो चालक भी घायल हुआ. मुझे जब तीन दिन बाद होश आया तो फटाफट उस हॉस्पिटल के लिए भागी जहां बेटी ऐडमिट थी... जुलाई 2010 में बेटी ने मौत के सामने हथियार डाल दिया. चौराहे पर हुए एक्सिडेंट ने घर उजाड़ दिया था. ऐसा लगता था कि हम चौराहे पर आ चुके हैं. निराशा-क्षोभ, उदासी-दुख सब हम पर हावी होते जा रहे थे. तभी हम पति-पत्नी ने निर्णय किया कि अब हम इस चौराहे पर किसी को ऐसी दुर्घटना से मरने नहीं देंगे. हम दोनों ऐक्टिव हुए. दोनों ने समय बांटा और यहां ट्रैफिक नियंत्रित करने लगे. 2016 में कैंसर हो गया... मैं यही सोचती कि इस चौराहे पर अब ऐक्सिडेंट्स को कौन रोकेगा... तब मीडिया ने मदद की. एक कैंपेन चलाया. लोगों से मदद मिलनी शुरू हो गई. सीएम अखिलेश यादव की ओर से भी मदद मिली. दिल्ली पुलिस और यूपी पुलिसवालों ने मदद मिली. इलाज हुआ और आज ठीक हूं. उसी चौराहे पर मुस्तैदी से खड़ी हूं. एक ही धुन है...बस, औरों की जान बचानी है. अपनी परवाह नहीं.
कितना वक्त देती हैं इस सेवा के लिए, पूछने पर डोरिस कहती हैं- अभी सुबह 7 बजे गई थी 11 बजे लौटी हूं. सड़क दुर्घटनाएं कम हों इसके लिए क्या चाहती हैं आप? इस सवाल पर डोरिस कहती हैं - सरकार से गुजारिश है कि दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए गंभीर कदम उठाए सरकार. ट्रैफिक पुलिस और जागरूक हो. वह कई बार, बड़े बड़े अधिकारियों को रॉन्ग साइड से निकाल देती है, पर अक्सर आम आदमी फंसा रह जाता है. बीमार पेशेंट्स तक को नहीं बख्शते ये लोग.
डोरिस फ्रांसिस की शिकायत है, ‘हमने देखा कि चालान (Challan) गरीब आदमी पर मार है. अमीरों की बड़ी गाड़ियों को कोई नहीं रोकता-टोकता. 10 हजार की बाइक वाला मार खा रहा है. बात तो तब है जब ऑडी-मर्सिडीज वालों को भी पकड़ा जाए और चालान काटा जाए.'
पुराने दिनों को याद करते हुए वह कहती हैं कि जब हमने यह काम शुरू किया तब पब्लिक, नेता ने परेशान किया. उनका हमसे कहना था, 'ये सरकार का काम है... ये पुलिसवालों का काम है. मेरे बेटे को पिटवाया. लोगों ने मुझे पागल भी कहा लेकिन परवरदिगार का शुक्रिया कि आज लोग तहजीब से बात करते हैं. सिग्नल लाइट से ज्यादा मेरे हाथ के इशारे का इतंजार करते हैं. जब दो दिन नहीं दिखती तो लोग पूछते हैं कि क्या हुआ... लोग पानी पूछते हैं और पिलाते हैं. वे समझते हैं कि भलाई के लिए कर रहूं हूं ये काम मैं...'
अपने बचपन की ओर झांकते हुए कहती हैं वह कि पिता आर्मी में थे और जम्मू में पोस्टेड थे. लेकिन हालत ऐसे भी हो गए कि हम बच्चों को खाने के लाले पड़ गए. लोगों के घरों में पानी भरकर, झाड़ू पोंछा लगाकर चार पैसे कमाए. न सिर्फ अपना और भाई बहनों का पेट भरा बल्कि उन्हें पढ़ाया लिखाया भी. वह कहती हैं- कोठियों में मेड का काम किया और भाई बहनों को पढ़ाया-लिखाया. मैं पढ़ नहीं सकी... यहीं मैं मार खा गई.. लेकिन ईश्वर ने ऐसा दिमाग दिया कि मैंने बहुत कुछ सीखा... गाड़ी जब रूल तोड़कर भागती है तो नंबर नोट करती हूं.. आज पढ़ सकती हूं, लिख सकती हूं...
(नेटवर्क 18 की हिन्दी वेबसाइट Hindi.News18.com पर पब्लिश्ड मेरा आर्टिकल)
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