Monday, September 29, 2008
धूल झाड़ते हुए
कल किताबों से धूल झाड़ते हुए एक पर्ची गोद में गिर पड़ी। पता नहीं कब कहां से उतारी थी यह कविता। मगर, कितना कुछ कहती हैं ये पंक्तियां...!
ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना
मासिक धर्म
11 बरस की उमर से
उन्हें ठिठकाए ही रखता
देवालय के बाहर।
कवि का नाम किसी को पता चले तो कृपया बताएं।
Saturday, September 27, 2008
मेरे बाजू वाली खिड़की
कब्रें
अपने होने का प्रमाण देती हैं
चलते फिरते लोगों में
कब्रें
फिर फिर दोहराती हैं
वही सच्चाई
कि सबको घुलना मिट्टी में
कब्रें
चुपचाप ही
इंसान सी
जीवित की तरह
सहती हैं धूप धुंआ अंधड़ पानी
कब्रें
बाईं ओर की खिड़की से झांकती सी
मुझमें,
कहती हैं
जीवन मृत्यु से बड़ा सत्य!
कब्रें
नाम की पट्टी ओड़े
मौत के बाद भी
ढोती हैं देह का दंश
सतत...सनातन...अंतहीन
Thursday, September 25, 2008
आहों पर बने सिंहासन
गुजरात पर जितना 'रोआ' जाए, कम है।
मेरे चारों ओर ऐसे महानुभावों की कतई कमी नहीं जो यह मानते हैं कि नरेंद्र मोदी गुजरात के भगवान साबित हुए हैं। उनके जैसा नेता (और भारतीय जनता पार्टी जैसी राजनीतिक पार्टी ) अब ईश्वर की फैक्ट्री में बनने बंद हो गए हैं। आज जो भी कुछ है गुजरात में, नरेंद्र मोदी की ही किरपा है। विकास के नए पैमाने स्थापित किए हैं। रोजगार के नए द्वार खोले हैं। वाह रे मोदी, गुजरात के ही नहीं राष्ट्र के लाल मोदी। हिंदुओं के तारणहार, पालनहार मोदी।
मेरा खून खौलता है। मगर, खौलता तो तेल भी है। आंच पर। होता क्या है? अंतत: तेल में पूरियां तल ली जाती हैं।
नानावती आयोग की रिपोर्ट की पहली किस्त आ गई है। गुजरात के दंगों पर आई इस पहली रिपोर्ट में कहा गया है कि साबरमती एक्सप्रेस को कथित दुघZटना नहीं थी बल्कि पूर्वनियोजित थी। ट्रेन को जलाने के लिए 140 लीटर डीजल का बंदोबस्त भी किया गया। ट्रेन जलाने का िक्लयर कट मकसद था- अराजकता फैलाना। कहा जा रहा है कि रिपोर्ट में मोदी को क्लीन चिट दी गई है।
इस क्लीन चिट पर भगवावादी नेता तो बल्ले बल्ले करेंगे ही, खुद को राष्ट्रवादी कहने वाले कथित हिंदू भी करेंगे।
अभी एक जानकार से इस रिपोर्ट की खबर के बाबत बात हुई तो उनका कहना था, कौन जाने क्या सच है? दंगों में कितने हिंदू मारे गए...साजिश थी या नहीं.. क्या पता..रिपोर्ट विपोर्ट की हकीकतें क्या पता नहीं आपको?
ऐसा कहने सोचने और बोलने वाले केवल यही एक होंगे, ऐसा नहीं। एक ही रिपोर्ट ने दो बातें कहीं हैं। एक, मोदी का इन दंगों से कोई लेना देना नहीं। दूसरी, साबरमती को जलाना साजिश था जिसका मकसद दंगें करवाना था। मगर, अपनी अपनी सहूलियत के अनुसार, हम रिपोर्ट के बिंदु को सच मानेंगे और दूसरे को झूठ।
....हां, खौलता तेल जब पांव पर गिरता है तो कदम रोक देता है। खौलता तेल जब चेहरे पर गिरता है तो नक्शा बिगाड़ देता है। ज्यादा दिनों तक तेल में पूरियां नहीं तली जा सकतीं।
Saturday, September 13, 2008
जो जीवित
Thursday, September 11, 2008
एक टुकड़ा
Wednesday, September 10, 2008
रफ़्तार हिंदी की...
आप यह पोस्ट पढ़ पा रहे हैं, तो इसका सीधा सा अर्थ है कि हिंदी ने अपने पांव उन अनजान कोनों में फैला दिए हैं जहां कुछ साल पहले इसके होने की संभावना तक से इंकार किया जा रहा था।
इंटरनेट के महाजाल में हिंदी शांति से आई और अब इस भाषा की अपनी जगह है.हिंदी इतरा रही है, इठला रही है और वाकई छाने को तत्पर है। इंटरनेट, हिंदी और कंप्यूटर पर काम करने वाले लोगों की संख्या बढ़ी है। लोगों का कम्फर्ट लेवल भी बढ़ा है कंप्यूटर पर हिंदी में काम करने के संबंध में। ई-मेल हिंदी में भेजी जा रही हैं। अन्य भाषाओं में काम करने वाले लोगों में हिंदी की साइट्स देखने और पढ़ने का सिलसिला तेज हुआ है। ब्लॉग जगत में ही देख लें...प्रत्यक्षम् किम् प्रमाणम्
हिंदी को ले कर प्रयोगों की गुंजाइश कितनी अधिक है, यह भी नजर घुमाएं तो पता चल जाता है। हिंदी के सर्च इंजन रफ्तार डॉट इन, गुरूजी डॉट कॉम ऐसे ही सफल प्रयोग तो हैं। रफ्तार डॉट इन की ही बात करें तो यह अपने आप में एक ऐसा सर्च इंजन है जो इंटरनेट उपभोक्ता को हिंदी के असीमित संसार से जोड़ता है। समाचार से ले कर साहित्य तक एवं विज्ञान से ले कर किचन तक, इंटरनेट पर मौजूद हिंदी का सारा कंटेट आपको एक िक्लक पर मिल जाता है।
हिंदी में सैंकड़ों साइट्स हैं, यह रफ्तार पर आने से पहले मुझे नहीं पता था। कुछ गिनी चुनी साइट्स को छोड़ दें, तो कितनी ऐसी साइट्स हैं जिन पर हम और आप विजिटिआते हैं? ऐसे में कुछेक महीनों के अंतराल में कुछ न कुछ नया ले कर आने वाले सर्च इंजन रफ्तार डॉट इन ने हिंदी और इंटरनेट की खुशनुमा उथल-पुथल को एक सूत्र में पिरोने की कोशिश की है।
Tuesday, September 2, 2008
कंपेटेबिलिटी...नारी स्वतंत्रता...
मेरी एक मित्र है। शादीशुदा है। अक्सर कहती है, बच्चे न होते तो अमन (पति) का साथ कब का छोड़ देती।
सुशीक्षित है। संपन्न परिवार से है। सोशल सर्कल में अच्छी-खासी पहचान है। प्रोफेशनल क्वालिफिकेशन भी है। विवाहपूर्व नौकरी करती थी, बाद में छोड़ दी। अपनी और पति की सहमति से। उम्र भी तीस से कम(तो नौकरी के लिए कथित आउटडेटेड भी नहीं)।
शादी के छह बरस बीत गए। तीन बरस हो गए, मुझे ये सुनते हुए कि अगर बच्चे न होते तो पति को छोड़ देती। वजह? पति और पत्नी के बीच 'इमोशनल कंपेटेबिलिटी´ नहीं है। वजह पर आपको हैरानी नहीं होगी। मगर, अगर यह बताऊं कि दोनों का प्रेम विवाह है तब...? क्या तब भी हैरानी नहीं होगी...?
मेरे लिए यह चौंंकाने वाला तथ्य था, तब जब मुझे यह नहीं पता था कि भावनात्मक रूप से एक दूसरे की जरूरतों को न समझने और न पूरी करने वाले युवक-युवती भी प्रेम कर विवाह कर लेते हैं। इधर ऎसे कई मामले देखने को मिले! मुझे लगता रहा है प्रेम विवाह का आधार पैसा या सामाजिक स्तर या सामाजिक अपेक्षाएं हों या न हों, मगर इमोशनल कंपेटेबिलिटी अवश्य ही होती है।
विवाह के छहों साल बीतते- बीतते जब भावनात्मक खालीपन इतना साल जाए कि रिश्ते में रूके रहने के लिए बच्चों का हवाला खुद को देना पड़े तो क्या यह उस रिश्ते के टूट चुकेपन का ही प्रमाण नहीं है? तब ऐसा क्यों होता है कि समस्या सुलझाने के लिए या अंततःन सुलझने पर फैसले नहीं लिए जाते...
कृपया बताएं आप क्या सोचते हैं...कि एक पढ़ी- लिखी, नौकरी सकने योग्य महिला भी 'बच्चों की खातिर´पति से अलग नहीं होती। क्योंकर? क्या वाकई बच्चे कभी- कभी मांओं के पांव में परतंत्रता की बेिड़यां बन जाते हैं... या उन तमाम समस्याओं और कथित लांछनों को अवाएड करने के लिए आड़ लेना ज़रूरी हो उठता है?
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