Tuesday, December 16, 2008

आदतें


कुछ चीजें छोड़ देने का मन करता है
कुछ चीजें बांध लेने का मन करता है

जो छोड़ना चाहती हूं
छूटता नहीं है
जो बांधना चाहती हूं
बंधता नहीं है

कश्मकश सिर्फ मेरी नहीं है
उन 'चीजों' की भी है
मुझसे और खुदसे

जो छूटना चाहती हैं
पर छूटती नहीं
मेरे अस्तित्व से

जो बंधना चाहती हैं
पर बंधने नहीं देती मैं
उन्हें
अपने अस्तित्व से

फिर भी अक्सर जोर का धक्का लगा कर
छूटने का मन करता है
भाप बन कर
लुप्त होने का मन करता है

इस आपाधापी में
कब क्या छूट जाता है
पता ही नहीं चलता है!

कब क्या लुप्त हो जाता है
पता ही नहीं चलता है!

कब क्या बंध कर
बन पड़ता है
मेरे होने का सबूत
दुनिया की नजरों से देखती हूं तो दिखता है

वरना तो सब जादू सा
मायावी सा लगता है...

9 comments:

Unknown said...

अच्छी रचना है. यह खींचतान आम जिंदगी का हिस्सा बन गई है.

Mohinder56 said...

इसी को तो जीवन कहते हैं जहां बहुत कुछ अपने वश में होते हुये भी बहुत कुछ अपने वश से बाहर है..परन्तु इन सब के लिये वक्त रुकता नहीं.. जिन्दगी निरन्तर पलों के रूप में बही जाती है...

सुन्दर मनो भाव लिये रचना.. लिखती रहिये

रंजू भाटिया said...

इस आपाधापी में
कब क्या छूट जाता है
पता ही नहीं चलता है!

बहुत बढ़िया कहा आपने

शोभा said...

जो छोड़ना चाहती हूं
छूटता नहीं है
जो बांधना चाहती हूं
बंधता नहीं है
अच्छा लिखा है।

Vinay said...

बहुत बढ़िया!

---------------
चाँद, बादल और शाम
http://prajapativinay.blogspot.com/

अभिषेक आर्जव said...

"कश्मकश सिर्फ मेरी नहीं है
उन 'चीजों' की भी है
मुझसे और खुदसे"
यह बात थोड़ी नयी है ! सुंदर तो है ही !

विवेक said...

कश्मकश सिर्फ मेरी नहीं है
उन 'चीजों' की भी है
मुझसे और खुदसे

क्या बात है...बहुत खूब...

Pawan Kumar Sharma said...

bahut khub pooja ji, acha likhti hai aap. aisey hi likhti rahiye

Pawan Kumar Sharma said...

क्या बात है...बहुत खूब...
acha likhti hain aap.

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