Sunday, June 6, 2010
वेटर आपका गुलाम है और आप....?
हरिवंश राय बच्चन ने अपनी जीवनी में एक जगह कहा है - गुलामी के संस्कार पीढ़ियों तक नहीं जाते। जब मैं होटल-रेस्टॉरेंट्स में लोगों को वेटर्स को टिप देते हुए देखती हूं तो यही लगता है।
किसी को गुलाम समझने में या खुद से कमतर समझने में जो खुशी हमारी रीढ़ की हड्डी से हो कर गुजरती है, हमें अपनी सेवाएं देने वालों को दी जाने वाली बख्शीश इसी खुशी का इनडाइरेक्ट एक्सटेंशन है। बात जरा कड़वी है मगर सोच कर देखिए क्या सच नहीं है? और जिस तरह से टिप लेने वाला खुश होता है, क्या वह इसी सामंती जीन का असर नहीं है?
जबकि असल बात तो यह है कि कोई वेटर जब विनम्रता से आपको मेन्यू दे कर, ऑर्डर ले कर खाना परोसता है, तो वह अपना काम कर रहा होता है। ठीक वैसा ही काम जैसा कि मैं एनबीटी डॉट कॉम में करती हूं या फिर आप अपने ऑफिस में कर रहे हैं। इस जॉब के बदले में महीने के अंत में हम सभी को एक अमाउंट मिलता है जिसे हम सैलरी कहते हैं। किसी वेटर, किसी अकाउंटेंट या किसी जर्नलिस्ट को हर महीने उसके काम के एवज में सैलरी मिलती है। अब जरा बताइए, कैसा लगेगा एक अकाउंटेट को जब उसका बॉस शाम को जाते समय उसकी टेबल पर कुछ चिल्लड़ रख जाए और मुस्कुरा कर चलता बने?
क्या यह उसका अपमान नहीं होगा?
जिस सेवा ( काम) के बदले में रेस्टॉरेंट की ओर से वेटर को सैलरी दी जाती है, उसके लिए कोई उन्हें टिप क्यों दे आखिर? अगर आप उसके शुभचिंतक हैं और उसकी कर्टसी से प्रभावित होकर उसके लिए कुछ करना चाहते हैं तो सीधे मैनजमेंट से बात करिए। कहिए कि आपके फलां (उसकी ओर इशारा करके या ड्रेस का कलर बता कर या जैसे भी) वेटर का काम हमें बहुत अच्छा लगा। इससे तीन फायदे होंगे। एक, आपकी मेहनत की गाढ़ी कमाई बच जाएगी। दूसरे, मैनजमेंट को उस वेटर की कद्र महसूस होगी जो कि उसकी नौकरी और तनख्वाह बढ़ोतरी के लिए अच्छा साबित होगा। तीसरा, जब यह बात उस वेटर को पता चलेगी कि एक ग्राहक उसके व्यवहार आदि की तारीफ उसके बॉस से करके गया है तो वह मन ही मन आपको शुक्रिया अदा करेगा।
अगर इतना सब करने का समय आपके पास नहीं है तो उनकी कॉमेंट बुक में लिख दीजिए कि फलां वेटर (यदि नाम पूछ सकें तो बढ़िया) की सर्विस अच्छी रही आदि-इत्यादि। यह करने में भी किसी तरह की दिक्कत हो रही हो तो उस वेटर से प्यार से मुस्कुरा कर दो मीठे बोल लीजिए। अगर आप यह भी नहीं कर सकते तो मेरी बात मान लीजिए कि हरिवंश राय बच्चन ने सही कहा था गुलामी के संस्कार पीढ़ियों तक नहीं जाते। और ये संस्कार उस वेटर के ही जीन्ल में ही हैं, ऐसा नहीं है। मुझे लगता है यह उस हर इंसान में हैं जो आर्थिक रुप से अपने से कमजोर आदमी को शोशेबाजी के साथ उपकृत करने का कोई मौका नहीं छोड़ता। सर्विस सेक्टर से डील करते समय हम-आप अक्सर ऐसा करते हैं।
यहां बात यह नहीं है कि वे टिप ले कर कैसा महसूस करते हैं और उनकी दिनभर की कमाई का कितना फीसदी हिस्सा इन बख्शीशों से आता है। अगर महसूसने की बात करें तो मंदिरों की सीढियों पर ही रोक दिए जाने वाले दलितों को दशकों तक खुद के साथ होता आया यह व्यवहार बुरा नहीं लगा। वे जानते ही नहीं थे कि अगड़ी जातियों का मंदिरों में जाना सही है तो उनका मंदिरों की सीढ़ियों पर रुक जाना गलत क्यों है। यही बात दिल्ली के ऑटो ड्राइवर्स पर भी लागू होती है तो राउंड फिगर में पेमेंट लेने के लिए कभी गिड़गिड़ाने लगते हैं और कभी चिल्लाने लगते हैं। 36 रुपए बनें तो 40 रुपए ही लेना चाहते हैं। एक नौकरीपेशा व्यक्ति का किसी भी तरह की बख्शीश की उम्मीद करना एक ऐसी गलत परंपरा है, जो मुझे लगता है, हमें कॉन्शस एफर्ट्स के साथ तोड़नी चाहिए। हो सकता है शुरू में यह आपके साथ उठने-बैठने वाले लोगों को बुरा लगे। लेकिन क्या हमें वाकई टिप जैसी चीज पर दूसरों की सोच की परवाह करनी चाहिए?
फोटो साभार- गूगल
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9 comments:
आपकी सलाह सचमुच काफी अच्छी है। अच्छे सुझाव देने के लिए शुक्रिया।
बहुत अच्छी सोच है आपकी
इस लेख के लिए हृदय से धन्यवाद देता हूँ
आलेख बहुत ही अच्छा है और जो विकल्प आपने दिये है सेवा से खुश होने पे जो हम कर सकते है वो तो बहुत ही बढिया.
आईये जानें .... मन क्या है!
आचार्य जी
विचारणीय..
apne jo b likha hai bahut acha likha hai. is corporate culture ne sab kuch nigal liya hai. lakhon ka package lene vala editor aur patrkar b tip deta hai.aap jaise soch shyad bahut kam log rakhte hain. verna to kabi tip ke bare nahi sochte ki aisa ker vo khud ko east india company ka numinde ke trah behave ker rahe hai. jo 1947 main vo jo kuch choor ker gai the aaj tak vahi sab chal raha hai. aur hum log be hath faila ker mangne ke liye khade rahte hain. ek nai vichar ke liya apka daniyad.ashok sharma
apne jo b likha hai bahut acha likha hai. is corporate culture ne sab kuch nigal liya hai. lakhon ka package lene vala editor aur patrkar b tip deta hai.aap jaise soch shyad bahut kam log rakhte hain. verna to kabi tip ke bare nahi sochte ki aisa ker vo khud ko east india company ka numinde ke trah behave ker rahe hai. jo 1947 main vo jo kuch choor ker gai the aaj tak vahi sab chal raha hai. aur hum log be hath faila ker mangne ke liye khade rahte hain. ek nai vichar ke liya apka daniyad.ashok sharma
आज दिनांक 2 जुलाई 2010 के दैनिक जनसत्ता में संपादकीय पेज 6 पर आपकी यह पोस्ट शिष्टाचार की कीमत शीर्षक से प्रकाशित हुई है,बधाई। स्कैनबिम्ब के लिए लिंक दैनिक जनसत्ता के पेज 4 पर क्लिक कीजिए। असुविधा होने पर मुझे सूचित कीजिए मैं आपको स्कैनप्रति भेज दूंगा।
आपकी बात और मुद्दा सही है। लेकिन, टीप देने की शुरुआत विश्व युद्ध के दौरान हुई थी। जब आर्थिक मंदी से निपटने के लिए यूरोपीय देशों में ऐसे डिब्बे होटल में रखे गए थे जिन में लोग खाने के बाद वेटर के लिए मदद के रूप में पैसे डाल दे। आज आप टिप दे या ना दे सर्विस टैक्स के रूप में इसे आपसे वसूल ही लिया जाएगा। आप एक बार ये सोचिए कि परोसने का ही जब वेटर का काम है जिसकी उसे तनख्वाह मिलती है तो फिर हमसे सर्विस टैक्स का क्या मतलब...
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