Friday, April 9, 2010

हमें 'प्रभात' चाहिए

गौर करें- अगर आपने लव सेक्स और धोखा नहीं देखी तो हो सकता है यह पोस्ट आपको पगलाहट से कम न लगे। हालांकि क्रूर सचाई को पर्दे पर यूं घटित होते देखने के बाद बावला हो जाना अनोखा नहीं है...


पखवाड़ा बीता पर बीती नहीं साली ढाई घंटे की एक फिल्म। ऐसी चिपकी है कि पीछा नहीं छोड़ती। बेताल जब विक्रमादित्य के कंधे पर बार बार आ लपटता होगा, मैं समझ सकती हूं राजा की हालत कैसी होती होगी।

मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन की सीढ़ियों के बगल में बैठे राहलु श्रुति दिख ही जाएं तो कोई कैसे पीछा छुड़ा ले लव, सेक्स और धोखा के प्रेत से। आप दोबारा कभी चोरी से कभी गलती से इन राहुल श्रुति की ओर देख भर लें तो ये ऐसे सकपका जाएं कि आपको लगे आप सदी का पहला पाप कर आए हैं। क्यों देखा दोबारा..कितना चीप लगता है..बेचारे बैठे ही तो हैं। फिर आजादपुर की स्थाई उडंतू धूल मिट्टी से खुद को बचाने की चिड़चिड़ी कोशिश के बीच खोमचों के पीछे आपकी नजर पड़ जाए आदर्श पर...तो आपकी अगली सांस दो बार नहीं अटकेगी दिबाकर मुखर्जी को याद करते हुए, इसकी क्या गारंटी है? रश्मि को तो आप जब चाहें आंख मींच कर देख सकते हैं। नौंवी क्लास में आपके साथ पढ़ने वाली आखिरी row के पहले बैंच पर बैठने वाली लड़की, जिसने एक दिन अचानक से स्कूल आना बंद कर दिया हो। या फिर, अक्सर आटे की थैली कैंद्रीय भंडार से लाते हुए लौटती वह लड़की, जिसे आप देख कर मुस्कुरा दी हों (या दिए हों), पर वह पलट कर न मुस्कुराई हो....खडूस सी लड़की..।

चलिए निकल लीजिए आजादपुर की गलियों, नॉस्टेलजिया और मेट्रो स्टेशन से बाहर। आ जाइए सड़कों पर। सीसीडी, बरिस्ता, मैकडॉनल्ड, जनपथ, साउथ एक्स, सुभाष पैलेस, मंगोल पुरी, द्वारका, गुड़गांव, एम्बियंस मॉल तक दौड़ आइए। अपने खुद के और जान पहचान वालों के ऑफिसेज के कोने कोने में सेंध मार आइए। पुराने चेहरों को हाथ में कायदा लेकर फिर से पढ़िए। उन चेहरों में घुस घुस जाइए।

ढूंढिए कि अगर कहीं मिल जाए तो मुझे भी बताइए कि 'वो' मिल गया। जितनी आसानी से आदर्श, रश्मि, स्टोर वाली एक लड़की (नाम परमानेंटली भूल चुकी हूं) ,राहुल श्रुति, श्रुति के पिता और भाई, लौकी लौकल, नैना, चैनल की मालकिन, मालकिन का चमचा मिल जाते हैं, ये प्रभात क्यों नहीं मिलते...??

फोटो साभार- गूगल

4 comments:

Unknown said...

:) टेढी मेढी, ऊपर नीचे, ऊबड़ खाबड़, अगड़म बगड़म, चि‍ल चि‍ल पौं पौं, हैं हैं, खी खी, ओफ़फो ....... क्‍या है ? लाइफ है कि‍ छींट के कागज पर कई रंगों की सयाही से कि‍या गया घुच मुच। कभी आर्ट लगे, कभी सुंदर, कभी कचरापट़टी, कभी पागलपन तो कभी कि‍सी बच्‍चे की अनजाने में की गई जानी पहचानी शरारत। अच्‍छा लि‍खा है पर जो लि‍खा है वह अच्‍छा नहीं लगता .......

शरद कोकास said...

कोशिश करके ही देखना होगा अब इस फिल्म को इसलिये कि पगलाना तो अपने को भी अच्छा लगता है । एक शायर ने कहा भी है .." पागल को समझाना कैसा, पागल तो पागल होता है "

प्रभात रंजन said...

क्योंकि प्रभातों की कदर नहीं है दुनिया में...मजाक कर रहा हूं...लेकिन उनकी तलाश तो करनी ही होगी...खुद के लिए

प्रभात रंजन said...

क्योंकि प्रभातों की कदर नहीं है दुनिया में...मजाक कर रहा हूं...लेकिन उनकी तलाश तो करनी ही होगी...खुद के लिए

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