Sunday, October 25, 2009

धर्म और अध्यात्म : बहस की गुंजाइश



दीवाली के बाद की सुबह एक दबे छुपे सवाल को पटक कर सामने ले आई। सो अब न सुबह अलसाई रही और न ही इतावारिया मूड में स्लो..।

एक दोस्त का फोन आया। फोन साइलेंट पर डेस्कटॉप के पास रखा था और मैं सीट पर नहीं थी। सो 4 मिस कॉल हो गईं। ये दोस्त दनादन फोन खड़काने वालों में से नहीं है, सो तुरंत कॉल बैक किया। फोन उठाते ही बिना हलो किए ही बोले, तुम्हारी कॉलर ट्यून सुबह सुबह कान में पड़ जाए तो बड़ा सुकून महसूस करवाती है..सो स्वीट सो स्प्रिचुअल। वे हंसते हुए बोले, अब तुम्हें जो चीखते चिल्लाते देख ले,वो इस गुरबानी (मेरी कॉलर ट्यून) से तुम्हें रिलेट ही नहीं कर पाएगा। मैंने तुरंत कहा, हां यार, मैं इस ट्यून को जल्द ही बदलने वाली हूं। वे बोले, क्यों!मैंने चिढ़ कर कहा, लोगों को लगता है मैं धार्मिक हूं और मुझे पसंद नहीं कि कोई मुझे देवी देवताओं या धर्म-कर्म-कांड से जोड़े...। कॉलर ट्यून बदलने की इच्छा के पीछे के बाकी के तर्कों को बीच में ही काट कर वे बोले, ..पर यह गुरबानी तो आध्यत्मिक इनक्लाइनेशन दिखाती है, धार्मिक नहीं! मैंने तुरंत कहा, पर आमतौर पर लोग धर्म और अध्यात्म को एक ही मान कर चलते हैं। वे बोले, तो यह उनकी दिक्तत है। और, जिसे पता ही नहीं कि धर्म और अध्यात्म में क्या फर्क है, उसके कुछ भी सोचने- न सोचने से क्या फर्क पड़ता है।

इससे पहले कि मैं कुछ कह पाती उन्होंने थोड़ा गंभीर हो कर पूछा कि अगर तुम्हें जानने या पहचानने वालों को यह मालूम चलता चले कि तुम्हारा आध्यात्मिक रुझान है और तुम अध्यात्म से काफी जुड़ा महूसस करती हो, तो क्या तब भी तुम्हें बुरा या अजीब लगेगा? मैंने कहा, बात अजीब लगने या बुरा लगने की नहीं है, पर मुझे लगता है कि ईश्वर से मेरा रिश्ता कैसा है और क्यों है, नहीं है, या है, है तो कितना है और किस हद तक गहरा है, कब से यह रिश्ता जुड़ा, जितना जुड़ा, उतना क्यों जुड़ा, न जुड़ता तो क्या होता, जुड़ गया तो क्या हो लिया...जैसे सवाल और जवाब मेरे और ईश्वर के बीच के हैं। मैं अपने और ईश्वर के संबंध को किसी पर प्रकट (जाने या अनजाने में) नहीं होने देना चाहती। इस पर उन्होंने जो कहा, उसका सार यह था कि आज की पीढ़ी के युवा लोग यह क्यों नहीं सोचते कि उनकी अध्यात्म को ले कर भूख और उत्सुकता अगर जगजाहिर होगी तो ज्यादा से ज्यादा लोग इस बारे में सोचेंगे और जानेंगे। शायद स्ट्रेस से निकलने, रिलेक्स होने, जीवन के तनाव के कम होने और गुड ह्यूमन बीइंग बनने के लिए वे इंस्पायर भी हों..।

उम्र में मुझसे काफी बड़े और जिंदगी को फुल्ली पॉजिटवली जीने वाले इस दोस्त ने यह सोचने पर मजूबर कर दिया है कि क्या वाकई धर्म या अध्यात्म को ले कर हमारी सोच हम तक ही सीमित रहे, यह अच्छा है। या फिर यह बेहतर है कि धर्म और अध्यात्म से जुड़ी 'पॉजिटिविटी' का प्रचार और प्रसार हो..?

मुझे लगता है कि मैं ईश्वर के किस प्रकार में यकीन रखती हूं,यह मेरा निजी मामला है। मैं नागपंचमी मनाते समय जानवरों के प्रति भला-भाव रख रही हूं या फिर भगवान को याद कर रही हूं, यह मेरी निजी सोच है। आस्था है। आस्था की वजहें क्या हैं और अनास्था की वजहें स्ट्रांग क्यों नहीं है, मैं इस पचड़े में नहीं पड़ना चाहती और जैसे बाकी लड़के लड़कियां परमात्मा और आस्था पर ज्यादा बातचीत नहीं करते, मैं भी बस चुप्पी मार कर बैठे रहना चाहती हूं। जिसे मानना है माने, नहीं मानना न मानें। जिसे लीक पर चलते हुए आंख मूंद कर 16 सोमवार के व्रत रख लेने है, रखे। जिसे शादी का सबसे बुरा मुहूर्त निकाल कर शादी करनी है, करे। मेरा क्या जाता है!अगर मुझे लगता है कि अध्यात्मिकता जीवन जीने का एक तरीका है, तो जरुरी तो नहीं यह दूसरों को भी समझाया- बताया जाए। मैं तो इस पर चुप्पा बन कर बैठी रहूंगी।

पर अब यह सोच रही हूं कि ये कैसा स्वार्थ है! जहां पॉजिटिविटी को सिर्फ यह सोच कर मैंने बांध लिया है कि भई प्रगतिशील समुदाय में अध्यात्म फिजूल की चीज माना जाता है। अगर 'स्प्रिचुएलिटी इज ए वे ऑफ लाइफ' है तो यह तरीका बांटने से परहेज क्यों हो। बाकी युवाओं को भी क्यों हो। हम सभी को क्यों हो यह परहेज आखिर। यह सवाल कुलबुला रहा है।

2 comments:

Udan Tashtari said...

विचारणीय है...

Unknown said...

उत्तम विचार
पर दोनो अलग अलग बाते है
कही सुना था -
जो मन्दिर के जितने पास होता है
भगवान के उतना ही दूर होता है

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