Thursday, June 25, 2009
खेल खेल में
खेल खेल में अजब खेल कर जाता है आदमी,
खेल खेल में खेल बन जाता है आदमी।
खेल खेल में खेल सिर्फ खेला नहीं जाता,
खेल की किसी बात को झेला नहीं जाता।
खेल में जिंदगी खेलनुमा हो जाती है,
खेल में भूल कभी खाली नहीं जाती है।
खेल में खिलाड़ी छुपे हुए होते हैं,
खेल में दांव शतरंज से चालबाज होते हैं।
खेल वही असल है, जिसका कोई नाम नहीं होता।
इसलिए इस खेल में खुद को खो देता है आदमी।
आज जो खेल कर दांव जीत जाता है,
कल वही खिलाड़ी औंधे मुंह की खाता है।
यहां नहीं कभी खेल का अंत होता,
आदमी मर जाता है, पर खेल चलता जाता है।
खेल में खिलाड़ी का चेहरा नहीं होता,
यहां कोई टीम, कोई मोहरा नहीं होता।
यहां बस आदमी बस आदमी से खेलता है,
यहां कोई रेफरी कोई कोच नहीं होता।
खेल में इंसान और हैवान सब एक हैं,
खेल में मुखौटे कुछेक नहीं, अनेक हैं।
खेल से तंग आकर, खेल फिर खेलता है आदमी।
खेल में फिर खुद ही खेल बनता है आदमी।
खेल एक नाटक है, खेल एक सच्चाई भी।
खेल की हर शाम पर किताब लिखता है आदमी।
खेल में जो हारा हो, लाओ कोई आदमी।
खेल में जो हारता है, जीता नहीं आदमी।
खेल की अवधि, उम्र जितनी लंबी है।
इसलिए, मौत से पहले हारता नहीं आदमी।
लाओ कोई जिंदा शख्स, जो खेल कर हारा हो,
खेल जब तक चालू है, बस खिलाड़ी है हर आदमी।
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7 comments:
वाह क्या जबरदस्त मोड़ दिया है !
बहुत उम्दा रचना, बधाई.
बहुत बढ़िया रचना बधाई.
जिंदगी की इतनी सारी सच्चाइयों को समेट कर रख देना और फिर सामने वाले को मजबूर कर देना...अपने अंदर झांकने के लिए...खुद से सवाल करने के लिए...आपकी कविता इसमें पूरी तरह कामयाब हुई है...
इंतजार करवाया। इतिश्री करके खेल करने में थोड़ा वक्त लगना लाजिमी था। बहरहाल, खेल मजेदार है। आपका इसी बहाने मैदान में उतरना भी। लेकिन मजा तब आए जब आप जंग के मैदान में उतरें। खेल जिनके लिए खेल है, वो अलग लोग हैं हम जैसों के लिए तो वह जंग ही है।
सॉरी, पर मैं यहां तारीफ करने नहीं आया। यह कविता जो गज़ल के फ़ॉर्म में लिखी गई है, गज़ल है नहीं। कुछ शब्द केवल तुकबंदी लगते हैं। ताज़ा कविताएं जितनी अच्छी हैं, उनके मुकाबले यह सामान्य है।
फिर से सॉरी कहता हूं। झूठी तारीफ की आदत नहीं।
@नीरेंद्र जी
कृपया सॉरी मत कहिए. आलोचना लेखन को सुधारने के लिए ही होती है. वरना कोई क्यों आलोचना करेगा, आलोचक क्या एक बड़ा शुभचिंतक नहीं?!
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