Wednesday, August 27, 2008
दाल काली है या नज़रिया
उड़ीसा में विश्व हिंदू परिषद द्वारा प्रायोजित,सॉरी आयोजित, बंद के दौरान एक महिला जिंदा जली, कई गंभीर रूप से घायल हुए और कुल पांच लोगों के मारे जाने की खबर है...
जम्मू में कई दिनों से आग लगी हुई है। स्वर्ग को नरक बनाने की हरसंभव कोशिश जारी है। तीन दिन से लगातार कर्फ़यू झेल रहा है यह क्षेत्र। पाक की नापाक कोशिशें जो रंग नहीं ला पाईं वो हमारे अपने ला रहे हैं...
और अभी -अभी की खबर है कि आज सुबह के पाक आतंकी हमले में आतंकवादियों ने एक परिवार को बंदी बना लिया है...
बिहार की `शोक´ नदी के दो सौ साल बाद रास्ता बदलने से प्रलय का सा माहौल है। लाखों लोग प्रभावित हैं। चारों ओर कोहराम मचा हुआ है...
ऐसे में सुशील, विजेंद्र और अभिनव। अंबानी बंधुओं की प्रति सेंकेड की सैलेरी का मनभावन सा ? हिसाब। सिंह इज किंग की विदेशों में धूम। नैनो समेत शेयर बाजार का कभी-कभी ऊपर दौड़ लगा जाना जैसी हंसी खुशी की खबरें भी खुशी नहीं दे रहीं। क्या मैं निराशावादी हो रही हूं? क्या मैं दाल में काला तलाश रही हूं, जबरदस्ती? क्या मैं अलग अलग चीजों को एक ही लेंस से देखने की बेवकूफी कर रही हूं? आप बताएं.....
आप बताएं, मेरे ही देश में लाखों लोग पानी में बह कर डूब कर सड़ कर मर जाएं तो मैं मेडलों की खबर को कैसे ओढूं और बिछाऊं...!? उड़ीसा में एक मौत का बदला कई मौतों से ले लिया जाए तो कोई कैसे कह कर खुश होए कि इंडिया शाइनिंग जी...? शाइनिंग की आड़ में जो स्याह कालापन है उस पर से कैसे आंखें भींच लें। खुशियां मनाने की कई वजहें हैं मगर इस समय जो जरूरी दीख पड़ रहा है वह है आम सी लगने वाली घटनाअों पर सक्रियता से कदम उठाना। खुशियों में डूब कर हम `डूबने´ को कमतर आंक रहे हैं क्या? आम लगता हो सकता है जम्मू कश्मीर का सुलगना मगर यह आम कहां हैं! समस्या पुरानी हो जाए तो क्या स्वीकार्य हो जाती है? नहीं ना। कोई कैसे धर्म, वर्ग आधार पर हमें लड़ाए जा रहा है। हम अपने `घरवासियों´ यानी बाढ़ प्रभावितों को बचाने की कोशिशों को पुश कर लें तब मनाएं खुशियां दिल खोल कर। कथित धर्माधारित संगठनों की मनमानी पर रोक लगाने के लिए क्या हम वाकई कुछ नहीं कर सकते!
ये लाचारी है या बहानेबाजी? कृपया बताएं तो.....
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3 comments:
न दाल काली है न नजरिया। पर जरा और सोचें। मसलन, किसी के घर में कोई मौत होती है, तो क्या उस घर के सारे सदस्य सिर्फ मातम में डूबे रहते हैं? नहीं। कुछ लोग दाह-संस्कार का इंतजाम कर रहे होते हैं, तो कुछ लोग घर के बच्चों का ध्यान रख रहे होते हैं। कोई पड़ोसी अपने घर से या किसी दुकान से चाय-नाश्ता लाकर उस घर के सदस्यों को ढांढ़स बंधाते हुए खिलाने की कोशिश करता है। यानी, ऐसे मातम के वक्त भी कई जरूरी काम हर कोई निबटा रहा होता है।
जाहिर है, इस वक्त देश में कई ऐसे हादसे हो रहे हैं। बेशक - उड़ीसा का जलना, जम्मू में छाई दहशत और कोसी का कोप - बेहद तकलीफदेह स्थितियां हैं।
पर दूसरी तरफ, सुशील, विजेंद्र और अभिनव की उपलब्धियां खुशी जुटाने वाली बातें हैं। इन्हें नजरअंदाज कर सिर्फ शोक में डूबे रहना भी सही नहीं होगा।
होना यह चाहिए कि हर एक शख्स अपने-अपने स्तर पर इन दोनों स्थितियों से सीधे जुड़े। एक तरफ हम बाढ़ पीड़ितों के लिए राहत सामग्री जुटाएं तो दूसरी तरफ सुशील, विजेंद्र और अभिनव के सम्मान का भी सम्मान करें। उड़ीसा को जलाने वाली विश्व 'हैवान' परिषद की सारी हैवानियत पर हम कातिलाना हमला करें। ऐसा हमला जिससे उसकी हैवानियत मरे। हिंदू, मुसलमान, सिख या ईसाई होकर जब भी हम उसके बारे में सोचेंगे या पक्ष में/खिलाफ कुछ करेंगे, वह हिंदू संगठन के रूप में ही काम करते रहेगी। ऐसी किसी भी संस्था के खिलाफ हमें इंसान के धरातल पर उतर कर लड़ाई लड़नी पड़ेगी और तभी वह विश्व बंधु परिषद बन कर तैयार हो सकती है।
आपकी बात से सहमत हूं कि शोक में डूबे रहना उचित नहीं। और यह तो मैंने कहा ही है कि सुशील अभिनव की `खुशियां´ हैं, मगर यह जेनुइन खुशियां नहीं दे रही हैं अनुराग जी। ऐसा संभवत: इसलिए क्योंकि हमने सुना है कि एक बार को किसी की शादी में न जाओ मगर किसी के निधन पर जरूर जाना चाहिए। तो मेरा कहना है कि, शादी की खुशियों में रम कर उस विभीषिका को नजरअंदाज करना संभव नहीं जो दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इन खुशियों के निशान उन दर्दों पर भारी होंगे ही जो हम उड़ीसा, घाटी और बिहार के संदर्भ में भोग रहे हैं...
और सही कह रहे हैं आप की विहिप सरीखे संगठनों से लड़ाई इंसान के धरातल पर उतर कर लड़नी ही होगी। जरूर ही।
कई गम्भीर प्रश्न आपने एक साथ उठाये हैं, लेकिन आप निराशावादी नहीं हैं।
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