Sunday, March 2, 2014

ऐ लड़की, अपनी जात की औकात में रह

तुम जनरल कैटिगरी की एक सीट खराब कर रही हो... समझ क्यों नहीं आता तुम्हें... कोटे से क्यों नहीं भरा... कोटे वालों के बाद में होते हैं ऐडमिशन... हाऊ मैनी टाइम्स शुड आई रिपीट!!!... गो.. जस्ट गो..
बट मैम मेरा नाम मैरिट लिस्ट में है... मैं क्या करूंगी कोटे में जाकर... मैम मैंने कंपीट किया है.. मैं इस लिस्ट में हूं...

गो.. जस्ट गो..

एक दिन... और दूसरा दिन... दो दिन ऐसे ही बीत गए। गो.. जस्ट गो..।

Copyright: PoojaPrasad
मैं बताती रही कि मेरे अंक फर्स्ट रिलीज लिस्ट के मुताबिक हैं और मुझे रिजर्वेशन के तहत ऐडमिशन लेने की जरूरत नहीं है। मैं काबिल हूं और रिजर्वेशन उन लोगों के लिए हैं जो साधनों के अभाव में बेहतर शिक्षा व शैक्षणिक माहौल न पा सके और बेहतर मार्क्स नहीं ला पाए। मैं तो किसी तरह से भी रिजर्वेशन की हकदार नहीं! लेकिन वह नहीं मानीं। उन्होंने मुझे फर्स्ट लिस्ट में आने के बावजूद आम मैरिट लिस्ट के तहत ऐडमिशन नहीं दिया। क्लास रूम में घंटों बेंच पर बैठी रहती। उनकी एक नजर पड़ने और बुला लिए जाने का इंतजार करते हुए मैंने दो दिन काटे। गर्ल्स कॉलेज था सो पापा कॉलेज के बाहर घंटों मेरा इंतजार करते।

जब पहले दिन पहली बार मैम की झिड़की सुनकर आंसू बहाती हुई गेट के बाहर आई थी तो उन्होंने ही कहा- इसमें रोने का क्या है.. और वह खिलखिला दिए। उनकी खिलाखिलाहट ने विटामिन का सा काम किया कि- कास्ट बेस्ड बायसनेस पर रोने का क्या है! क्यों रोना! ऐसी-तैसी...

वह बोले- जा अंदर जाकर कोशिश करती रह। मैं कोशिश करती रही। झिड़कियां खाती रही। इंतजार करती रही। और वापस आती रही। मेरा वापस आना, मेरा हार जाना नहीं था। हां, मेरा फिर फिर वापस जाना, उनका फिर फिर हार जाना था। जितनी बार वह मेरा चेहरा देखतीं, कभी तरस खातीं, कभी अंग्रेजी में समझाने की कोशिश करतीं कि एससी-एसटी कोटे के तहत मेरा ऐडमिशन आराम से हो जाएगा, फिर मैंने क्यों जनरल कैटिगरी में ऐडमिशन लेने की जिद की हुई है।

फिर मैंने एक चाल चली। सोचा, सेकंड लिस्ट रिलीज होगी, तब आ जाऊंगी। इन्हें कौन सा याद रहेगा कि यह लड़की पहले भी आई थी। हो सकता है तब इस स्ट्रीम में ऐडमिशन की कार्यवाही से जुड़ा कोई और व्यक्ति बैठा हो और इनसे पाला पड़े ही नहीं। मैं मन ही मन अपने इस प्लान पर खुश थी।

'देखती हूं कैसे आम कैटिगरी में ऐडमिशन नहीं देंगे... मुझे करना क्या है कोटे-शोटे के चक्कर में पड़कर.. फर्स्ट क्लास मार्क्स आए हैं.. आगे कौन सा कोटे-शोटे का फायदा लेना है मैंने, हुअंअ.. पत्रकार बनना है, कौन सी सरकारी नौकरी करनी है.. माई फुट.. मैं तो लेके रहूंगी ऐडमिशन'

सेंकड लिस्ट आई। जिस रूम में प्रॉसिजर चल रहा था, वह वही पुराना रुम था जहां फर्स्ट लिस्ट वालों के ऐडमिशन हुए थे। मन में धक-धक हुई। ओह गॉड.. कहीं फिर से संगीता (नाम परवर्तित) मैम न हों..

मेरा नंबर आते ही वह बोल पड़ीं- तुम फिर आ गईं। गर्ल, वाय डोंट यू अंडरस्टैंड? अबकी बार वह बहस में भी नहीं पड़ीं। मेरे किसी सवाल, किसी चिरौरी पर कोई प्रतिक्रिया नहीं। मेरी सारी प्लानिंग चौपट। वह मुझे पहचान चुकी थीं और मैं उन्हें पहचान चुकी थी।

यह एक मशहूर नैशनल यूनिवर्सिटी के वन ऑफ द बेस्ट कॉलेज के फर्स्ट ईयर ऐडमिशन प्रॉसिजर की कहानी है। मैं यह दृश्य कभी नहीं भूलती। जब भी रिजर्वेशन के खिलाफ लोगों को लामबंद होते देखती हूं, वे दिन याद आ जाते हैं।

वे दिन इसलिए याद नहीं आते कि मैं रिजर्वेशन के समर्थन में हूं। मुझे वह दर्द याद आता है कि किसी भी काबिल इंसान को महज इसलिए ऐडमिशन न दिया जाना क्योंकि वह फलां जाति का है, उस इंसान को कैसे भीतर तक तोड़ता होगा। मैंने जाटव जाति में पैदा होने के चलते यह भोगा है (अन्य मौकों पर भी), हो सकता है इस लेख को पढ़ रहे कई लोगों ने इस जाति में पैदा न होने के चलते यह जलालत भोगी हो...

उन मैडम का नाम यहां इसलिए नहीं दे रही हूं क्योंकि वह फर्स्ट और सेकंड ईयर में एक विषय विशेष में मेरी गुरु रहीं। (भले ही एक सबक मैंने भी उन्हें दिया ही।) पूरे दो साल नजरें चुराती रहीं। मुझे बुरा लगता। लेकिन कौन जाने, वह मेरे से नजर चुराती थीं या खुद से।

जनार्दन द्विवेदी ने उस दिन जाति आधारित आरक्षण को खत्म करने की बात कही और इस पर राजनीति होने लगी। इस बीच दलित ऐक्टिविस्ट चंद्रभान प्रसाद ने कहा था- मैं समझता हूं तीन पीढ़ियों तक यदि कोई आरक्षण का लाभ लेता है, तो इसके बाद उसे आरक्षण का लाभ लेना खुद ही बंद कर देना चाहिए। टीवी पर एक कार्यक्रम में बहस के दौरान एक अन्य ऐक्टिविस्ट ने कहा- आरक्षण लागू ही इसलिए किया गया कि इससे कुछ सालों बाद आरक्षण की जरूरत बंद हो जाए।

मैं सहमत हूं इन विद्वानों की बातों से पर ऊंची जाति के उन विद्वानों को कौन समझाएगा जो आरक्षण की ओर धकेलती हैं। उन हकीकतों का क्या जिन्हें आम लोग अपने जीवन में कोटे में होने या न होने के चलते झेलते हैं? वे भेदभाव जो गरीब कायस्थ भोगता है, वे भेदभाव जो साधन संपन्न दलित को भोगना पड़ता है। दशक भर बाद यह सच्ची कहानी मैंने आपको सुनाई है, उन अनगिनत कहानियों का क्या जो कभी सामने नहीं आती होंगी लेकिन भोगी जाती होंगी?

(नवभारत टाइम्स में शनिवार 1 मार्च 2014 को छपा मेरा यह लेख)

1 comment:

Unknown said...

That's the reality behind anti-reservation slogan!

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