गूगल साभार |
लेकिन ठंड थी कि मैं जिधर का रुख करती, वहां से चुपके से खिसक लेती। या फिर सिर्फ निशान छोड़ जाती। इस निशान को मैं अपनी शॉल से ढक लेती। उस निशान की मालिकन ठंड से निपटना है,यह सोचकर मैंने रातों को चहलकदमी शुरू कर दी। शातिर ठंड से निपटना जो था।
छत थी। इतनी बड़ी थी कि पहली बीयर पार्टी वहीं हुई थी। तब भी ठंड यूं ही पसरी हुई थी। ठंड में बीयर पीकर हम और ठंडे हो गए थे। लगता था, ठंड सहेली है और मजे ले रही है। छत से दिखते दूर दूर तक के खाली बीहड़ टाइप मैदान में किंगफिशर की केन्स उछाल दी थीं। ठंड ने ठंडा नहीं किया होता तो आम मौसम में इतनी जुर्रत न कर पाते हम। जीवन की पहली बीयर थी। नशे में माल्या को हमने दुआएं दे डाली थीं।
अबकी बार कोई बीयर पार्टी नहीं है। लेकिन ठंड है। यूं पसर रही है जैसे इसने बीयर नहीं, वोदका गटक रखी हो। अरे सुन ठंड, जाओ न यार। क्यों वक्त बरबाद कर रही हो। पीला मौसम आने दो। पतझड़ आने दो। तुम्हारा होना पतझड़ डिले कर रहा है। तुम्हारी वजह से मैं इलाहाबाद नहीं जा पाई हूं। तुम मेरी वजह से कुछ रोकती हो क्या अपना। तोड़ती हो वक्त से पहले कोई सपना। नहीं न। तुम ठंड जो हो। परवाह नहीं न तुम्हें। न घुटनो के दर्द की। न किसी पेट दर्द की। तुम ठंड क्यों हो, मैं क्यों नहीं हो। जाओ तुम। मुझ ठंड हो जाने दो। जाओ बाबा....
1 comment:
बहुत अच्छा लिखा है पूजा...कई-कई जगह तो कई अर्थ निकलते नज़र आते हैं...
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