Tuesday, April 15, 2008

मुक्ति सच में हो

इंटरनेट पर एक खबर है। खबर अपने आप में चौंकाने वाली तो है ही, संग में एक साथ कई सवाल उठाती है। खबर के अनुसार बिहार और झारखंड में कई स्थानों पर भूतों और प्रेतों से कथित तौर पर पीड़ित लोगों को प्रेत बाधा से मुक्ति दिलवाने के लिए मेलों का आयोजन किया जाता है। इन मेलों में कथित `पहुंचे हुए` पंडे और ओझा भूत उतारते हैं।

खबर पर गौर करें, इन मेलों में आने (लाए जाने) वालों में महिलाएं ही अधिक होती हैं। जिन्हें, डंडे की चोट पर स्वीकार करवाया जाता है कि उन पर प्रेत छाया है। मार खा कर लॉक अप में पुलिस उस जुर्म को कबूल करवा पाने में सफल हो जाती है जो गिरफ्त ने किया न हो तो एक महिला की क्या बिसात!

वैसे खबर की ओट न भी ली जाए तो हम और आप यह जानते ही हैं इस देश में महिलाओं को ही अक्सर भूत बाधा का सामना करना पड़ता है। समाज में महिलाएं ही अक्सर चुड़ैल करार दी जाती हैं। इन भूतों को भी महिलाएं ही प्यारी होती हैं। पुरूष नहीं। वे अक्सर महिलाओं को ही निशाना बनाते हैं। वह भी ऐसी महिलाओं को, जो पहले से ही अपने परिवार या समुदाय में दबी-कुचली परिस्थिति में दोयम दर्जे का जीवन जी रही होती हैं। बीमार या उपेक्षित होती हैं। न जाने क्यों यह भूत प्रजाति ऐसी महिला पर कब्जा करती है जिसका खुद अपने पर कोई `कब्जा` नहीं होता! ऐसे में ऐसी महिला को कब्जा कर कोई भूत दूसरों पर अपनी `ताकत` (या सत्ता) कैसे साबित कर सकता है!? वह एक कमज़ोर महिला पर हावी हो कर कैसे उसके आस पास के लोगों को परेशान करने की कोशिश में `सफल` हो सकता है! यह बात भूत योनि की समझ में नहीं आती, तो पता नहीं क्यूं।

वैसे यहां आपत्ति उस मानसिकता पर भी है जिसके तहत इस खबर में पीड़ित शब्द का उपयोग किया गया है। मानो, वाकई `भूत आना` कोई बीमारी हो। ईश्वरप्रदत्त बीमारी? महिला के बुरे कर्मों का फल?

या फिर, अपनों की बेड इंटेशन की शिकार? या समाज के भीड़तंत्र से पीड़ित ? दरअसल मुक्ति चाहिए तो सही, मगर किसको किससे? यह जानने की जरूरत है।

7 comments:

pranava priyadarshee said...

तीन बिंदु पर आते ही पहला साबका भूतों से ही पडा. शुरुआत अच्छी है पूजा. बधाई.
लेकिन दो बातें हैं. पहली यह की तीन बिंदु क्यों? यह स्पष्ट नही किया अपने. बता दें तो जिज्ञासा मिटे.
दूसरी बात भूत महिलाओं को ज्यादा लगते हो, मगर सिर्फ उन्हें ही नही लगते. खबर मे भी है कि सात साल का एक बच्चा भी 'पीड़ित' था जो दनादन सिगरेट पी रहा था.
कई बार भूत लगने का एक कारण यह भी होता है कि हर तरफ से उपेक्षित महसूस कर रही महिला को भूत लगने के बाद से सबका अटेंशन मिलने लगता है.
बहरहाल खबर का विश्लेषण अच्छा है. संवाददाता तो यकीनन भूत-प्रेतों मे विश्वास रखता है, शायद उसने देखा भी हो, लेकिन डेस्क ने भी यह मन कर खबर को छुआ लगता है कि भूतों ने सचमुच उन बिचारियों को पकड़ रखा होगा जिन्हें उन मेलों मे 'मुक्ति' दिलवाई जाती है डंडे के बल पर.

Pooja Prasad said...

प्रणव जी आगे भी आपका साबका `भूतों` से पड़ सकता है। हालांकि यह जरूरी नहीं कि ये भूत प्रेत योनि वाले ही हों, वे ऐसे मनुष्य भी हो सकते हैं जिनके भीतर से मनुष्यता समाप्त हो चुकी है।

`तीन बिंदु` नाम इसलिए रखा क्योंकि यह निरंतरता का बोध करवाता है। कुछ, जो जारी है। बच्चे के सिगरेट पीने का जिक्र है, और इसी कारण पोस्ट में लिखा गया है कि महिलाओं को अक्सर भूत बाधा का सामना करना पड़ता है।

राजीव रंजन श्रीवास्‍तव said...

Aurato par aanewale in bhooton ko bhagane ki prakriya ko maine bahut najdeek se dekha hai. Mere gaon se adha kilometer ki duri par hain ghinau brahma, jaha saal me do bar (Navratron men)bada mela lagta hai. Is dauran aas paas ki waisi aurate aati hain jinko bhoot ne pakad rakha hota hai. kai baar histeria ke daure ko bhi log bhoot-pret maan lete hain. kai baar aurate apni dabi bhaavanaao ko bhoot ke bahane parakat karti hain. Khair is ke bahut sare kaaran ho sakte hain. Is par kabhi vistaar se charcha karenge.

Girindra Nath Jha/ गिरीन्द्र नाथ झा said...

accha laga blog ki duniya me dekh kar, aur haan मुक्ति सच में हो" bhi pasand aayee

सौरभ के.स्वतंत्र said...

हाय अबला नारी तेरी यही कहानी...
यदि महिलाओं को पुरूष शासित समाज द्वारा जबरिया भूत बनाने की परम्परा चली आ रही है तो उन पुरुषो को अब पिशाच मान लेना ही श्रेयस्कर होगा..

पूजा जी बधाई ब्लॉग पर ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर चर्चा कराने के लिए...

मै अकेला चला था जानिबे मंजिल मगर...
लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया..!

- सौरभ के. स्वतंत्र

विजयशंकर चतुर्वेदी said...

ब्लॉगजगत में आपका स्वागत है. आपने शुरुआत भी एक अच्छी पोस्ट से की है. बस, निरंतरता बनाए रखें. शुभकामनाएं!
मैंने अपने ब्लॉग में आपकी बात वाया राजीव रंजन आगे बढ़ाई है. दरअसल हुआ ये कि पहले मैंने उनका ही आलेख पढ़ा था.

कुमार आलोक said...

यह सही है कि भूत-प्रेत के मामले में औरतों को निशाना बनाकर हमारा समाज अपना उल्लु सीधा करता है। खासकर जहां जहां मज़ार है वहां तो यह नंगा खेल जोर शोर से जारी रहता है। बिहार की राजधानी के ह्दय में पटना सिटी के कच्ची दरगाह पर चले जाइये और देखिए नजारा हैरत हो जाएगी कि आज के 21 वी सदी के दौर में भी मध्ययुगीन सभ्यता की झलक मिल जाएगी , कुछ ऐसा ही मंजर हमने सीवान शहर के समीप एक मजार पर देखा है। प्रगतशील कहा जाने वाला समाज या तो चुप्पी साधे रहता है या तो इसे नियती मानकर ऐसे पाप को फलने फूलने का अवसर देता है।

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